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शनिवार, मार्च 05, 2022

मान महफिल में बढ़ाना सीखिए'(चर्चा अंक 4360)

 सादर अभिवादन ! 

शनिवार की प्रस्तुति में आपका स्वागत है ।


 आज की चर्चा का शीर्षक व काव्यांश आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री जी ग़ज़ल से  “मान महफिल में बढ़ाना सीखिए” -


तौलना शब्दों को तब मुख खोलना

मान महफिल में बढ़ाना सीखिए


बेटियाँ बेटों से कम होती नहीं

इसलिए उनको पढ़ाना सीखिए

--

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-


"प्यार की गंगा बहाना सीखिए" डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

प्यार की गंगा बहाना सीखिए

गैर को अपना बनाना सीखिए

--

आइना दिल को बनाना सीखिए

धूल शीशे से हटाना सीखिए

--

इस निराशा की अँधेरी रात में

आस का दीपक जलाना सीखिए

'का से कहूँ'

खुली आँखों से काले कोट पहने कोर्ट में बहस करते हुए स्वयं को सपने में देखना शुरू किया। जब से होश सम्भाला पुस्तकों के बीच में ही मेरा रहना हुआ। मुझसे तीन बड़े और एक छोटा भाई था। उनके पास जो पुस्तकें क्रमानुसार नन्दन, चम्पक, बाल भारती, धर्मयुग, सारिका, गुलशन नन्दा, रानू, राजहंस, शिवानी, प्रेमचन्द इत्यादि आतीं, कक्षा की पुस्तकों के संग उन्हें पढ़ती रही।

प्रजा के हित में

विध्वंस के बाद वे सब

आमंत्रित किए गए जब,

तथाकथित जीत का 

जश्न मनाने के लिए,

वे या तो मारे जा चुके थे

या शरणार्थी हो गए थे ।

गरीबी में डॉक्टरी : एक और मांझी

'माउंटेन मैन' दशरथ मांझी की तरह ही मेरी दृष्टि में  "एक और मांझी"  है- 'धर्मेन्द्र मांझी'' जिसने पहाड़ काटने जैसा कठिन शारीरिक परिश्रम तो नहीं क्या, लेकिन उसने जिस तरह बचपन से लेकर आज अपनी 32 वर्ष की आयु तक अपनी जिद्द और जुनून के दम पर जैसा 'मानसिक श्रम' कर दिखाया।

छैल छबीली फागुनी

छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद

ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद। 1


मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग

पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 2


फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग

रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 3

आपकी सहेली' की 8 वी सालगिरह

आठ साल हो गए मुझे ब्लॉगिंग करते हुए। इन आठ सालों में मुझे ब्लॉगर साथियों और पाठकों से इतना प्यार मिला कि मैं उसे शब्दों में बयान नहीं कर सकती। पीछे मुडकर देखती हूं तो यकीन नहीं होता कि पारिवारिक जिम्मेदारियां और इतनी शारीरिक तकलीफों के बावजूद मैं कैसे अपने ब्लॉग की निरंतरता कायम रख पाई! 

#मुसीबत में हाथ बढ़ाते हैं ,अपने ही लोग और #वतन ।


चाहे विदेशों में जाकर,

उलझ गए है कुछ हमवतन ।

और निकलने का ढूंढ रहे हैं ,

कोई सुरक्षित साधन ।

फिर चाहे कितनी भी ,

परिस्थितियां हो विषम ।

—-

सिसकियां सदियों ठहर जाती हैं 

युद्ध किसे चाहिए, क्यों चाहिए और क्यों आवश्यक है... युद्ध किसके लिए...जल, जमीन, आसमान या कुछ और...। जब जब युद्ध हुआ मानवता कुचली गई...। जल, जमीन और आसमान पर अधिकार कैसा... क्या इसे इंसान ने बनाया है यदि हां तो कैसे...? और नहीं तो हरेक वह व्यक्ति जो युद्ध पर खिलखिलाता है वह प्रकृति का दोषी है ।

पढ़ा लिखा बेरोजगार.

खोने को कुछ नहीं, पाने को पूरा आसमान पड़ा

व्याकुल विचलित एक शख्स, असमंजस में जो खड़ा

दोहरी मनोदशा पे शायद, हो रहा सवार है

कोई और नहीं साहिब, एक पढ़ा लिखा बेरोजगार है

कविता/ विश्व शांति के लिए


वह दुनिया को बचाने के लिए

बहुत चिंतित था इसलिए 

सबसे पहले उसने एक बम  गिराया

विश्व शांति के नाम

फिर उसे सहसा याद आया

मानवता भी कोई चीज है


आज का सफ़र यहीं तक 

@अनीता सैनी 'दीप्ति'




9 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते आदरणीय अनीता मेम ,
    मेरी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज
    'मान महफिल में बढ़ाना सीखिए'((चर्चा अंक -४३६०) पर शामिल करने के लिए बहुत धन्यवाद और आभार ।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. नमस्ते आदरणीय Mam,
    मेरी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज
    'मान महफिल में बढ़ाना सीखिए'((चर्चा अंक -४३६०) पर शामिल करने के लिए बहुत धन्यवाद और आभार ।
    सभी रचनाकारों की रचना बहुत ही अच्छी हैं सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई

    जवाब देंहटाएं
  3. आज की चर्चा में पढ़ने के लिए बहुत सुन्दर और सार्थक लिंक मिले।
    आपका आभार @ अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।

    जवाब देंहटाएं
  4. उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, अनिता दी।

    जवाब देंहटाएं
  5. हार्दिक आभार आपका
    श्रमसाध्य प्रस्तुति हेतु साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति में मेरी ब्लॉगपोस्ट शामिल करने हेतु बहुत आभार!

    जवाब देंहटाएं
  7. आभार शामिल करने के लिए धन्यवाद सार्थक चर्चा

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत कुछ सीखा चर्चा के इस अंक से । सरस रचनाओं के बीच स्थान देने के लिए धन्यवाद । रोचक और रचनात्मक रचनाओं के लिए सभी का अभिनंदन ।

    जवाब देंहटाएं

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