सादर अभिवादन !
शनिवार की प्रस्तुति में आपका स्वागत है ।
आज की चर्चा का शीर्षक व काव्यांश आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री जी ग़ज़ल से “मान महफिल में बढ़ाना सीखिए” -
तौलना शब्दों को तब मुख खोलना
मान महफिल में बढ़ाना सीखिए
बेटियाँ बेटों से कम होती नहीं
इसलिए उनको पढ़ाना सीखिए
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आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
"प्यार की गंगा बहाना सीखिए" डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
प्यार की गंगा बहाना सीखिए
गैर को अपना बनाना सीखिए
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आइना दिल को बनाना सीखिए
धूल शीशे से हटाना सीखिए
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इस निराशा की अँधेरी रात में
आस का दीपक जलाना सीखिए
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खुली आँखों से काले कोट पहने कोर्ट में बहस करते हुए स्वयं को सपने में देखना शुरू किया। जब से होश सम्भाला पुस्तकों के बीच में ही मेरा रहना हुआ। मुझसे तीन बड़े और एक छोटा भाई था। उनके पास जो पुस्तकें क्रमानुसार नन्दन, चम्पक, बाल भारती, धर्मयुग, सारिका, गुलशन नन्दा, रानू, राजहंस, शिवानी, प्रेमचन्द इत्यादि आतीं, कक्षा की पुस्तकों के संग उन्हें पढ़ती रही।
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विध्वंस के बाद वे सब
आमंत्रित किए गए जब,
तथाकथित जीत का
जश्न मनाने के लिए,
वे या तो मारे जा चुके थे
या शरणार्थी हो गए थे ।
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गरीबी में डॉक्टरी : एक और मांझी
'माउंटेन मैन' दशरथ मांझी की तरह ही मेरी दृष्टि में "एक और मांझी" है- 'धर्मेन्द्र मांझी'' जिसने पहाड़ काटने जैसा कठिन शारीरिक परिश्रम तो नहीं क्या, लेकिन उसने जिस तरह बचपन से लेकर आज अपनी 32 वर्ष की आयु तक अपनी जिद्द और जुनून के दम पर जैसा 'मानसिक श्रम' कर दिखाया।
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छैल छबीली फागुनी, मन मयूर मकरंद
ढोल, मँजीरे, दादरा, बजे ह्रदय में छंद। 1
मौसम ने पाती लिखी, उड़ा गुलाबी रंग
पात पात फागुन धरे, उत्सव वाले चंग। 2
फगुनाहट से भर गई, मस्ती भरी उमंग
रोला ठुमरी दादरा, लगे थिरकने अंग। 3
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आठ साल हो गए मुझे ब्लॉगिंग करते हुए। इन आठ सालों में मुझे ब्लॉगर साथियों और पाठकों से इतना प्यार मिला कि मैं उसे शब्दों में बयान नहीं कर सकती। पीछे मुडकर देखती हूं तो यकीन नहीं होता कि पारिवारिक जिम्मेदारियां और इतनी शारीरिक तकलीफों के बावजूद मैं कैसे अपने ब्लॉग की निरंतरता कायम रख पाई!
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#मुसीबत में हाथ बढ़ाते हैं ,अपने ही लोग और #वतन ।
चाहे विदेशों में जाकर,
उलझ गए है कुछ हमवतन ।
और निकलने का ढूंढ रहे हैं ,
कोई सुरक्षित साधन ।
फिर चाहे कितनी भी ,
परिस्थितियां हो विषम ।
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युद्ध किसे चाहिए, क्यों चाहिए और क्यों आवश्यक है... युद्ध किसके लिए...जल, जमीन, आसमान या कुछ और...। जब जब युद्ध हुआ मानवता कुचली गई...। जल, जमीन और आसमान पर अधिकार कैसा... क्या इसे इंसान ने बनाया है यदि हां तो कैसे...? और नहीं तो हरेक वह व्यक्ति जो युद्ध पर खिलखिलाता है वह प्रकृति का दोषी है ।
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खोने को कुछ नहीं, पाने को पूरा आसमान पड़ा
व्याकुल विचलित एक शख्स, असमंजस में जो खड़ा
दोहरी मनोदशा पे शायद, हो रहा सवार है
कोई और नहीं साहिब, एक पढ़ा लिखा बेरोजगार है
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वह दुनिया को बचाने के लिए
बहुत चिंतित था इसलिए
सबसे पहले उसने एक बम गिराया
विश्व शांति के नाम
फिर उसे सहसा याद आया
मानवता भी कोई चीज है
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आज का सफ़र यहीं तक
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
नमस्ते आदरणीय अनीता मेम ,
जवाब देंहटाएंमेरी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज
'मान महफिल में बढ़ाना सीखिए'((चर्चा अंक -४३६०) पर शामिल करने के लिए बहुत धन्यवाद और आभार ।
सादर
नमस्ते आदरणीय Mam,
जवाब देंहटाएंमेरी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज
'मान महफिल में बढ़ाना सीखिए'((चर्चा अंक -४३६०) पर शामिल करने के लिए बहुत धन्यवाद और आभार ।
सभी रचनाकारों की रचना बहुत ही अच्छी हैं सभी रचनाकारों को बहुत-बहुत बधाई
आज की चर्चा में पढ़ने के लिए बहुत सुन्दर और सार्थक लिंक मिले।
जवाब देंहटाएंआपका आभार @ अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।
उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, अनिता दी।
जवाब देंहटाएंहार्दिक आभार आपका
जवाब देंहटाएंश्रमसाध्य प्रस्तुति हेतु साधुवाद
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति में मेरी ब्लॉगपोस्ट शामिल करने हेतु बहुत आभार!
जवाब देंहटाएंबहुत सराहनीय सार्थक अंक ।
जवाब देंहटाएंआभार शामिल करने के लिए धन्यवाद सार्थक चर्चा
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ सीखा चर्चा के इस अंक से । सरस रचनाओं के बीच स्थान देने के लिए धन्यवाद । रोचक और रचनात्मक रचनाओं के लिए सभी का अभिनंदन ।
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