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शुक्रवार, मार्च 11, 2022

'गाँव की माटी चन्दन-चन्दन'(चर्चा अंक-4366)

सादर अभिवादन। 

शुक्रवारीय  प्रस्तुति में आपका स्वागत है

शीर्षक व काव्यांश आ.कल्पना मनोरमा जी की रचना 'गाँव की माटी चन्दन-चन्दन' से-

खैर, आजकल गाँव भी जल्दी से किसी पर विशवास नहीं कर पाता है। हो सकता है तुम्हें भी वह ठग समझे। तुम मेरी फोटू उसे दिखा देना। जैसे ही उसने तुम्हें मेरी जगह पहचान लिया फिर तो बहुत आव-भगत करेगा। मैं जानती हूँ कि चाहे जितना वह हठी और मूडी हो आखिर है तो वह गाँव ही। गाँव अब भी बहुत भावुक और स्नेही है। उसे जब तुम मेरी याद दोगे न! वह तुम्हें मेरी जगह देखेगा और उसके बाद जो तुम्हें मान और आदर मिलेगा उसे सहेज नहीं पाओगे भैया तुम अपनी जेब में इसीलिए कहती हूँ बस एक बार मेरे गाँव को कह आना मैं उसे बहुत प्यार करती हूँ!

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

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दोहे "लोग कमल के साथ" 

माता बेटी-पुत्र केकब्जे में अधिकार।
इस तिकड़ी ने कर दियादल का बण्टाधार।।
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काँगरेस में हो गयाअब नेतृत्व अभाव।
लोकतन्त्र के सिन्धु मेंडूब गई है नाव।।
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हाँ! हम समंदर हैं
अपने खारेपन से ही खुश
ज्वार और सुनामी को इशारों पर नचाती हुईं
प्रचंड और विनाशकारी भी
गहराई में गंभीर, शांत और स्थिर
पर हम नहीं चाहतीं कि हममें कोई लहरें उठे
वो जो दिन रात रहता था गुलज़ार कभी,
गुलो-बुलबुल का हसीं बाग, उजड़ता क्यूं है?
रास लीला में मगन रहते हैं, कितने नेता,
इक तिरा किस्सा ही, अख़बार में, छपता क्यूं है?
रास्ते के रोड़े हटाती रहें
अपनी ठोकरों से,
अपनी विनम्रता में छुपाए रखें 
अपनी अग्नि जिसमें भस्म कर सकें 
तमाम भस्मासुरों को
मुस्कुराहट में छुपाए रखें 
बंधन काया पर हो सकते 
बाँधे मन को कौन कभी 
चाहे डोर टूट कर बिखरे 
खण्डित मण्डित हो स्वप्न सभी 
किस अज्ञात खूँटे टँगे
थाप हवाओं के भी सहती ।।
धारा का ऐसा प्रवाह था
पकड़न फिसल गयी
चमत्कार की सब उम्मीदें
झूठी निकल गयीं
सीढी जिसे समझते थे हम
निकला एक कुँआ
हमने बहुत बहुत सोचा था
कुछ भी नहीं हुआ
--
भोजन की थाल देखते ही
मस्तक पहुँची तनकर भृकुटी
वो एक निवाला अटक गया
जब नहीं मिली चुपड़ी रोटी
क्या खाएगी ? पर घर बेटी
हम खा न पाए कौर चारि ।।
इच्छाओं की
चारदीवारी पर उड़ रहे हैं जो
श्वेत कपोत
मुक्ति की प्रार्थनाओं के
संदेशवाहक नहीं,
उम्र की पीठ पर लदी
अतृप्ति की बोरियों के
पहरेदार हैं।
दीप हाथ में ढूँढे पगडंडी 
परछाई एक अकेली-सी।
बादल ओट छिपी चाँदनी 
जुगनू बुझाए पहेली-सी।
मैं उसे देखती रहती हूँ दिन चढ़ आने तक लेकिन वह मुझे नहीं देखता। तुम ये सारी बातें उससे कहना हो सकता है कि वह तुम्हारी बात न माने कि तुम मेरे हरकारा हो तो उससे कहना कि मैंने एक डिबिया में उसकी पाँव की धूल सम्हाल कर रखी है। लगाते होंगे लोग मलियागिरी चंदन अपने माथे पर। मेरे लिए तो मेरे गाँव की माटी चन्दन-चन्दन है मैं उसी माटी से तिलक लगाती हूँ। धोका खाए बैठा है न! हो सकता है फिर भी वह कहे,"अरे भैया ये ठिठोली कहीं और ही करो जाकर।"
-- 

आज का सफ़र यहीं तक 

@अनीता सैनी 'दीप्ति'

9 टिप्‍पणियां:

  1. पठनीय लिंकों के द्वारा सजाई गई सुंदर चर्चा प्रस्तुति|
    आपका आभार अनीता सैनी 'दीप्ति' जी!

    जवाब देंहटाएं
  2. अच्छी प्रस्तुतियों के साथ आज का अंक सुसज्जित किया गया है । आभार अनीता सेन दीप्ति जी

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन रचनाओं के सूत्र देती सुंदर चर्चा!

    जवाब देंहटाएं
  4. शानदार संकलन , शानदार प्रस्तुति।
    शीर्षस्थ पंक्तियां हृदय में उतरती सी।
    सभी रचनाएं बहुत आकर्षक, प्रेरक पठनीय।
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
    मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
    सादर सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
  5. चाँदनी-सी स्निग्ध प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ। हार्दिक आभार।

    जवाब देंहटाएं
  6. बेहतरीन रचनाओं से सजे अंक में मेरी रचना शामिल करने के लिए अत्यंत आभारी हूँ।

    सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर सारयुक्त रोचक रचनाओं का संकलन ।बहुत बधाई अनीता जी ।

    जवाब देंहटाएं
  8. विविधरंगी अंक। इन सुंदर रचनाओं तक हमें पहुँचाने हेतु सस्नेह आभार प्रिय अनिता।

    जवाब देंहटाएं

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