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शुक्रवार, जुलाई 18, 2014

"सावन आया धूल उड़ाता" (चर्चा मंच-1678)

आज के इस चर्चा में आपका हार्दिक अभिनन्दन है। 

सावन आया धूल उड़ाता रिमझिम की सौग़ात कहाँ
ये धरती अब तक प्यासी है पहले सी बरसात कहाँ।

मौसम ने अगवानी की तो मुस्काए कुछ फूल मगर
मन में धूम मचाने वाली ख़ुशबू की बारात कहाँ।

खोल के खिड़की दरवाज़ों को रोशन कर लो घर आंगन
इतने चांद सितारे लेकर फिर आएगी रात कहाँ।

भूल गये हम हीर की तानें क़िस्से लैला मजनूँ के
दिल में प्यार जगाने वाले वो दिलकश नग़्मात कहाँ।

इक चेहरे का अक्स सभी में ढूंढ रहा हूँ बरसों से
लाखों चेहरे देखे लेकिन उस चेहरे सी बात कहाँ।

ख़्वाबों की तस्वीरों में अब आओ भर लें रंग नया
चांद, समंदर, कश्ती, हम-तुम,ये जलवे इक साथ कहाँ।

ना पहले से तौर तरीके ना पहले जैसे आदाब
अपने दौर के इन बच्चौं में पहले जैसी बात कहाँ।
साभार:देवमणि पांडेय
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राजीव कुमार झा जी 
झूला झूलने का एक अपना अनोखा आनंद है.झूले पर बैठते ही वयस्क मन एकाएक किशोर हो जाता है.शायद,इसलिए कि झूले के साथ बचपन की अनेक मधुर स्मृतियाँ जुड़ी रहती हैं.पावस ऋतु में झूले की बहार दर्शनीय होती है.अमराइयों में वृक्षों की शाखाओं पर लगे झूले और उन पर पेंगें लेती किशोरियां,युवतियां. झूले का हमारे आराध्यों राम-कृष्ण के साथ भी घनिष्ठ संबंध है.
अनीता जी 
संतों की वाणी हमें झकझोर देती है. हमारे भीतर की सुप्त चेतना जो कभी-कभी करवट ले लेती है, एक दिन तो पूरी तरह से जागेगी. हम कब तक यूँ पिसे-पिसे से जीते रहेंगे, कब तक अहंकार का रावण हमें भीतर के राम से विलग रखेगा. हमारे जीवन में विजयादशमी कब घटेगी. वे कहते हैं, हम जगें, प्रेम से भरें, आनन्द से महकें. हम जो राजा के पुत्र होते हुए कंगालों का सा जीवन बिता रहे हैं.
आनन्द वर्धन ओझा जी
 पक तो गए थे तुम
तुम्हें तो गिरना ही था
जगत-वृक्ष की डाल से... !
तुम गिरे,
मैंने साभार झुककर तुम्हें उठाया,
धोया, स्वच्छ किया;
फिर किया तुम्हारा उपभोग--
कितने मीठे,
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शारदा अरोरा जी 
डॉ टी एस दराल जी 
यूं तो मुम्बई जाना किसी व्यक्तिगत काम से हुआ था ! लेकिन जब आ ही गए थे तो आम के आम और गुठलियों के दाम वसूलना तो हमे भी खूब आता है ! इसलिये काम के साथ साथ हमने मुम्बई के मित्रों से भी मिलने की सोची ! लेकिन बारिश के मौसम मे हमारे साथ साथ मुम्बईकारों की भी शायद हिम्मत नहीं पड़ी मिलने मिलाने की ! इसलिये यह काम इस बार अधूरा ही रहा ! हालांकि हमारे पास भी वक्त कम ही था !
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रमा जी 
जीवन चलता है 
समय बदलता है 
जीवन को बदलता है 
जीवन फिर भी चलता है 
रूकती घड़ियाँ हैं 
समय नहीं रुकता 
मरता इंसान है
रविकर जी 
हाथी पर बैठे कहीं, कहीं कटाये माथ |
हैं अजीब सी यह जुबाँ, लगा लगामी साथ |

लगा लगामी साथ, कहीं पर फूल झड़े हैं |
कहीं कतरनी तेज, सैकड़ों कटे पड़े हैं |
वन्दना गुप्ता जी 
अपने समय की विडंबनाओं को लिखते हुए 
कवि खुद से हुआ निर्वासित 
आखिर कैसे करे व्यक्त 
दिल दहलाते खौफनाक मंजरों को 
बच्चों की चीखों को
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विजयलक्ष्मी जी 
"माँ सच कहना क्या बोझ हूँ मैं 
इस दुनिया की गंदी सोच हूँ मैं 
क्या मेरे मरने से दुनिया तर जाएगी 
सच कहना या मेरे आने ज्यादा भर जाएगी
क्यूँ साँसो का अधिकार मुझसे छीन रहे हो 
मुझको कंकर जैसे थाली का कोख से बीन रहे हो 
क्या मेरे आने से सब भूखो मर जायेंगे 
या दुनिया की हर दौलत हडप कर जायेंगे 
पूछ जरा पुरुष से ,
"उसके पौरुष की परिभाषा क्या है "
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सभी के होते हैं रिश्ते 

सभी बनाना चाहते हैं 

उलूक टाइम्स पर सुशील कुमार जोशी
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हम पर छाते, 

"छाते" 

कुछ अलग सा पर गगन शर्मा,
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हो सके तो हमें माफ कर देना 

दूर देश से आती 
तुम्हारे झुलसे हुए 
नाज़ुक जिस्मों की तस्वीरें देखकर 
कौन ऐसा होगा 
जो रो न देता होगा ...
जो मेरा मन कहे पर Yashwant Yash
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प्रेमगीत 

Sudhinama पर sadhana vaid 
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"स्वरावलि" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) 

‘‘‘’
‘‘‘’ से अल्पज्ञ सबओम् सर्वज्ञ है।
ओम् का जापसबसे बड़ा यज्ञ है...
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चन्द माहिया " 

क़िस्त 04 

:1:
मत काटो शाख़-ए-शजर
लौटेंगे थक कर
इक शाम परिन्दे घर

:2:
मैं मस्त कलन्दर हूँ
बाहर से क़तरा
भीतर से समन्दर हूँ
आपका ब्लॉग पर आनन्द पाठक
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जला घर किसी का ! 

अंतर की ज्वालामुखी 
जब पिघलती है लावा बन 
वो कलम से आग उगलती है। 
वाह ! वाह ! सुनकर 
वो सिर पटक कर रो देती है...
hindigen पर रेखा श्रीवास्तव
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यादें... 

टूट गये खिलौने सब, 
नहीं हैं वो मित्र अब, 
बचपन की अब मेरे पास, 
यादें हैं केवल शेष... 
मन का मंथन। पर kuldeep thakur
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तालाब खतम, पानी खतम, 

गाँव कैसे ज़िंदा रहेगा ? 

हरी धरती पर Dr. Pawan Vijay 
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"बाबा नागार्जुन का दुर्लभ चित्र" (

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) 

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बंधन 

Love पर Rewa tibrewal 
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आज के लिए केवल इतना ही...
अगले शुक्रवार को मिलता हूँ,
कुछ नये लिंकों के साथ!
चर्चाकार : राजेन्द्र कुमार

12 टिप्‍पणियां:

  1. आज की चहकती-महकती चर्चा का जवाब नहीं।
    आपका आभार आदरणीय राजेन्द्र कुमार जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर चर्चा ! राजेंद्र जी.
    मेरे पोस्ट को शामिल करने के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  3. आज का चर्चामंच सावन के स्वागत से सराबोर है. "सावन आया धूल उड़ाता" शीर्षक मन की व्यथा को स्पष्ट रूप से व्यक्त करता है. राजीव कुमार झा जी की प्रस्तुति “सावन और झूलनोत्सव” पुराने दिनों की याद दिलाता है. रमा जी की प्रस्तुति “जीवन चलता है” मन को झकझोरने वाली है. सुन्दर एवं सामयिक संकलन. बहुत सुन्दर प्रस्तुति. पोस्ट को तैयार करने में अच्छी मेहनत की गयी है.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर सूत्रों से सजी सार्थक चर्चा ! मेरी रचना 'प्रेमगीत' को सम्मिलित करने के लिये आपका आभार राजेन्द्र जी !

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  5. सुन्दर चर्चा-
    बढ़िया लिंक्स-
    आभार आदरणीय राजेन्द्र जी -

    जवाब देंहटाएं
  6. सावन की रिमझिम जैसी आज की शुक्रवारीय चर्चा । 'उलूक' के सूत्र 'सभी के होते हैं रिश्ते
    सभी बनाना चाहते हैं' को स्थान देने के लिये आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  7. मनोहर चर्चा..बधाई और आभार !

    जवाब देंहटाएं
  8. सावन का महकता रूप...
    मेरी रचना को स्थान दिया...आभार आपका आदरणीय राजेन्द्र कुमार जी।

    जवाब देंहटाएं
  9. काम के लिंक मिले , आभार आपका सुंदर चर्चा के लिए !

    जवाब देंहटाएं
  10. सचमुच सावन की फुहारें है ये चर्चा ,बेहतरीन लिंक

    जवाब देंहटाएं

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