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मंगलवार, जनवरी 20, 2015

मजहब भी पूछो नहीं, बढ़ने दो आतंक ; चर्चा मंच 1864


रविकर 
"लिंक-लिक्खाड़"

जलती जाए जिंदगी, ज्योति न जाया जाय । 

आँच साँच को दे पका, कठिनाई मुस्काय । 

कठिनाई मुस्काय, जिंदगी कागद लागे । 

अपनी मंजिल पाय,  देखते उससे आगे । 

गूढ़ कहानी आप, यहाँ स्वाभाविक चलती । 

फैला रही प्रकाश, चिता यह धू धू जलती ॥ 

दोहा 

जाति ना पूछो साधु की, कहते राजा रंक |

मजहब भी पूछो नहीं, बढ़ने दो आतंक ||  

सज्जन धर्मेन्द्र 


6 टिप्‍पणियां:

  1. अद्यतन लिंकों के साथ बढ़िया चर्चा।
    आपका आभार आदरणीय रविकर जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. बढ़िया लिंक्स के साथ सार्थक चर्चा प्रस्तुति हेतु आभार!

    जवाब देंहटाएं
  3. सार्थक सूत्र सुन्दर चर्चा !

    जवाब देंहटाएं
  4. नए सूत्र और सुन्दर चर्चा ...
    शुक्रिया मेरी नज़्म को शामिल करने का ...

    जवाब देंहटाएं
  5. आतंक का कोई धर्म नहीं होता आतंकी का होता है..,
    माने की अभी तक तो होता है आगे का पता नहीं.....

    जवाब देंहटाएं

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