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रविवार, अक्तूबर 18, 2020

"शारदेय नवरात्र की हार्दिक शुभकामनाएँ" (चर्चा अंक-3858)

 मित्रों।

रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।

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आज की चर्चा में सबसे पहले प्रस्तुत है 

एक जानी-मानी हिन्दी ब्लॉगर 

डॉ. वर्षा सिंह का परिचय उन्हीं की जुबानी... 

M.Sc. in Botany, Doctorate in Electro Homeopathy मैं यानी डॉ. वर्षा सिंह बचपन से लेखन कार्य कर रही हूं। मैं वनस्पति शास्त्र में एम.एस.सी हूं, इलेक्ट्रो होम्योपैथी में डॉक्टर हूं तथा मध्यप्रदेश पूर्वक्षेत्र विद्युत वितरण कम्पनी लिमि. सागर से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले चुकी हूं। मेरे छः ग़ज़ल संग्रह - वक्त पढ़ रहा है, सर्वहारा के लिए, हम जहां पर हैं, सच तो ये है, दिल बंजारा, ग़ज़ल जब बात करती है ; दो नवसाक्षरों हेतु पुस्तकें -पानी है अनमोल, कामकाजी महिलाओं के सुरक्षा अधिकार; एक आलोचना पुस्तक-हिन्दी ग़ज़ल: दशा और दिशा प्रकाशित हैं। मुझे मेरे सृजनात्मक लेखन हेतु केन्द्रीय हिन्दी परिषद, मध्य प्रदेश राज्य विद्युत मण्डल द्वारा विशिष्ट हिन्दी सेवी सम्मान,हिन्दी परिषद् (बीना शाखा) मध्य प्रदेश राज्य विद्युत मण्डल द्वारा हिन्दी शिरोमणिसम्मान,राजभाषा परिषद् भारतीय स्टेट बैंक, सागर शाखा द्वारा उत्कृष्ट साहित्य सृजनकर्ता सम्मान’,हिंदी साहित्य सम्मेलन शाखा सागर द्वारा सुधारानी जैन महिला साहित्यकार सम्मान’, बुन्देली लोक कला संस्था, झांसी, उत्तरप्रदेश द्वारा गुरदी देवी सम्मान’ , शक्ति सम्मान आदि अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। मैं मानती हूं कि महिलाएं शक्ति का पर्याय हैं। उन्हें अपनी शक्ति को पहचान कर आत्मनिर्भर बनना चाहिए, ताकि देश और समाज के विकास में वे अपना पूर्ण योगदान दे सकें। 

आपके ब्लॉग हैं-

ग़ज़लयात्रा GHAZAL YATRA

साहित्य वर्षा Sahitya Varsha

 वर्षा सिंह varsha singh

विचार वर्षा Vichar Varsha

Varsha Singh Photography Blog आदि...।

अब देखिए इनके ब्लॉग 

ग़ज़लयात्रा GHAZAL YATRA 

की एक पोस्ट 

बूढ़ी आंखें | 

अंतर्राष्ट्रीय वृद्ध दिवस | 

वक्त का दरपन बूढ़ी आँखें 
उम्र की उतरन बूढ़ी आँखें  

कौन समझ पाएगा पीड़ा 
ओढ़े सिहरन बूढ़ी आँखें 

जीवन के सोपान यही हैं 
बचपन, यौवन, बूढ़ी आँखें  

चप्पा चप्पा बिखरी यादें 
बांधी बंधन बूढ़ी आँखें  

टूटा चश्मा घिसी कमानी 
चाह की खुरचन बूढ़ी आँखें  

एक इबारत सुख की ख़ातिर 
बांचे कतरन बूढ़ी आँखें 

सपनों में देखा करती हैं
"वर्षा"- सावन बूढ़ी आँखें 

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नवरात्रि शारदीय नवरात्रि का, आज हुआ आरंभ। पापनाशिनी मातु अब,मिटा हमारे दम्भ।। 
करें कलश की स्थापना,पूजन विधि अनुसार।  प्रथम दिवस माँ शैल का,वंदन बारम्बार।। 


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गीत  "मैं हिमगिरि हूँ" 

मैं हिमगिरि हूँ सच्चा प्रहरी,

रक्षा करने वाला हूँ।

शीश-मुकुट हिमवान अचल हूँ,

सीमा का रखवाला हूँ।।

मैं अभेद्य दुर्ग का,

उन्नत बलशाली परकोटा हूँ।

मैं हूँ वज्र समान हिमालय,

कोई न छोटा-मोटा हूँ।।

मुझको मत पाषाण समझना,

पत्थर नहीं शिवाला हूँ।

शीश-मुकुट हिमवान अचल हूँ,

सीमा का रखवाला हूँ।।

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क्षितिज पार दूर देखती साँझ 

उन्मादी मन उलझा उत्पात में 
क्षितिज पार दूर  देखती साँझ। 
निर्निमेष पलक हैं भावशून्य 
अंतस में रह-रह उभरे झाँझ।
अनीता सैनी, गूँगी गुड़िया  

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प्यार का महल  

क्षणिका  

तुम्हारे प्यार का 
रंगीन महल 
मुकम्मल  होने से पहले 
क्यों ढहता है 
बार-बार 
भरभराकर  

Ravindra Singh Yadav,  

हिन्दी-आभा*भारत 

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जो झूठा होता है, वही बात बनाता है अक्सर 

मेरे ख़्वाबों में तेरा चेहरा मुसकराता है अक्सर 
ग़म पागल दिल पर हावी हो जाता है अक्सर।

सच को कब ज़रूरत पड़ी किन्हीं बैसाखियों की 
जो झूठा होता है, वही बात बनाता है अक्सर । 

दिलबागसिंह विर्क, Sahitya Surbhi  

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भूखी शिक्षा ; संजय कौशिक 'विज्ञात' 

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वैदिक वाङ्गमय और इतिहास बोध (१०) 

ऋग्वेद और आर्य सिद्धांत: एक युक्तिसंगत परिप्रेक्ष्य - ( छ  )

(मूल शोध - श्री श्रीकांत तलगेरी)

(हिंदी-प्रस्तुति  – विश्वमोहन)

अन्य भारोपीय शाखाओं के अपनी जगह छोड़ने का इतिहास 

जैसा कि भाषायी आँकडें यह दिखाते हैं क़ि अपनी मूल मातृभूमि में भारोपीय-भाषी बोलियाँ बोलने वाले समूहों में से ही एक भारतीय आर्य भी थे। इस तरह की अलग-अलग बोलियाँ बोलने वाले अन्य समूह भी ३००० वर्ष ईसा पूर्व निवास करते थे और आज का ज्ञान यह बतलाता है कि  इस भारोपीय भाषा परिवार में अलग-अलग ११ शाखाएँ विकसित  हो गयी थीं। 

पौराणिक इतिहास से यह भी पता चलता है कि  उस समय उस क्षेत्र में निवास करने वाली भारतीय-आर्यों की अनेक जनजातियों में से एक थी – ‘पुरु’ जनजाति। ऋग्वेद के मंडलों में उनकी पहचान पुरुओं  के एक ख़ास वंश की उपजाति  ‘भरत-पुरु’ के रूप में है। ये ‘भरत-पुरु’ ईसा से ३००० साल पहले पश्चिमोत्तर उत्तर-प्रदेश और हरियाणा के मूल निवासी थे। उनके आस-पास रहने वाली अन्य जन-जातियाँ भी थीं। इस आशय की तार्किक परिणति  तो इसी बात में होती है कि ईसा से ३००० साल पहले अपने हरियाणा और उत्तर-पश्चिमी उत्तर प्रदेश की मातृभूमि में पुरु जनजाति रहती थी और इनके परित: अन्य बोलियाँ बोलने वाली जो जनजातियाँ निवास करती थीं, उनकी ही बोलियों ने भारोपीय भाषा- परिवार की अन्य शाखाओं को जन्म दिया।

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साबूदाना वड़ा  (Sabudana vada recipe) 

लोगों को शिकायत रहती है कि साबूदाना वड़ा तलते वक्त फट जाते है या बहुत ज्यादा तेल पीते है या फ़िर क्रिस्पी नहीं बनते है। इन सभी समस्याओं का मैं समाधान लेकर आई हूं...दोस्तो, यह रेसिपी मैं मेरे शहर तुमसर वासियों की खास डिमांड पर शेयर कर रही हूँ। मैं ने अग्रसेन जयंती के आनंद मेले में लगातार 12-13 साल तक साबूदाना वड़ा का ही स्टॉल लगाया था। न...न...ऐसा नहीं हैं कि मुझे दूसरा व्यंजन बराबर बनाना नहीं आता! बात ये हैं कि जब मैं ने साबूदाना वड़ा का स्टॉल लगाया तो मेरे द्वारा बनाए गए साबूदाना वड़ा सभी को बहुत ही पसंद आए... 

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क्रांति 

प्रक्षालित अंगुली पर निशान लगाए भीड़ को निहारती ईवीएम मशीन के पास खड़ी मैं बड़ी उलझन में थी..। वज्जि जातीय समीकरणों के चक्रव्यूह में फँसा अपने शक्ति, शिक्षा और संस्कृति के गौरवशाली इतिहास पर कालिख पुतवा चुका था। आज उस चक्रव्यूह को भेदने के लिए दो शिक्षित युवा में से किसी एक का चयन करना मेरे लिए चुनौती बना हुआ था..,

विभा रानी श्रीवास्तव, "सोच का सृजन" 

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कुसुमलता पाण्डेय की कहानी *प्रीत वाली पायल बजी* 

Rahul Dev, अभिप्राय  

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तुम आग नहीं बनना अबकी बार,  मैं पत्थर दिल बन जाऊँगा। 

तुमने खामोशी इख़्तियार करने को कहा था, 
मैं गीत नहीं गाऊँगा,
तुम्हारी यादें सिरहाने पर दस्तक देती हैं,  
मैं तुम बिन नहीं सो पाऊँगा

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लगभग 35 वर्ष पूर्व लिखा एक पत्र।  यह पत्र 30 दिसंबर1985 को लिखा था  मुरादाबाद के साहित्यकार  दिग्गज मुरादाबादी जी ने । 

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वर्षा वनों के यात्री 

एक मुट्ठी
सजल सपनों के बीज, जीवन के पुष्प
वीथिकाओं में गहराया था सघन
मेघों का आकाश, सोचने में
अच्छा ही लगता है 

शांतनु सान्याल, अग्निशिखा  

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लघुकथा :  लौ चिंगारी की धूप दिखते ही , दिवी छत पर कपड़े सुखाने आयी ही थी कि उसकी निगाह सड़क की तरफ गयी । स्कूल यूनिफॉर्म में एक कम उम्र की बच्ची डरी - सहमी सी बार - बार पीछे देखती चली आ रही थी । उसकी कच्ची उम्र और डर से सशंकित दिवी ने छत से ही उसको आवाज़ लगाई ,"क्या बात है ? इतनी परेशान और डरी हुई क्यों हो ? " 

निवेदिता श्रीवास्तव, झरोख़ा  

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हे देवि!...  मृजया रक्ष्यते को व‍िस्मृत करने पर  हमें क्षमा करें 

Alaknanda Singh, अब छोड़ो भी 

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 तूफ़ान में दूब 

इस भीषण तबाही में भी 

बच गई सही-सलामत 

धरती की गोद में छिपी  

नन्ही, कमज़ोर-सी दूब.

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आज के लिए बस इतना ही...।

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13 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर प्रस्तुति!आभार और बधाई!!!

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  2. आदरणीय शास्त्री जी, मैं उन शब्दों का चयन कर पाने में स्वयं को असमर्थ पा रही हूं,. जिनके माध्यम से मैं आपके प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापित कर सकूं। अपना परिचय और पोस्ट चर्चा मंच पर देख कर हृदय प्रफुल्लित हो उठा है। आपने स्वयं मेरा परिचय दिया, यह मेरे लिए किसी पारितोषिक से कम नहीं।
    नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएं आपको एवं चर्चा मंच के सभी लेखकों, पाठकों एवं संयोजनकर्ताओं को🚩🌺🚩
    पुनः हार्दिक आभार आपकी इस सदाशयता के प्रति 🙏🍁🙏
    - डॉ. वर्षा सिंह

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  3. उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।

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  4. सुन्दर चर्चा। मेरी रचना को शामिल करने के लिए धन्यवाद

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  5. बहुत सुन्दर और सराहनीय प्रस्तुति ।

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  6. शास्त्री जी प्रणाम, शानदार संकलन, डा. वर्षा स‍िंंह के बोर में जानकार अच्छा लगा,,व‍िश्वमोहन जी की पोस्ट बहुत सार्थक रही और द‍िग्गज मुरादाबादी के हस्ताक्षर‍ित चंदा मामा ... गज़ब रहा

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  7. आदरणीय भाई साहब बहुत ही शानदार आयोजन । साहित्यिक मुरादाबाद की प्रस्तुति साझा करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत आभार ।

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  8. आदरणीय शास्त्री जी,इन सारगर्भित चर्चाओं के लिए साधुवाद एवं नमन 🙏

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  9. विविधताओं से परिपूर्ण चर्चा, बहुत सार्थक संयोजन व सुन्दर प्रस्तुति, मुग्धता ही मुग्धता, मेरी रचना शामिल करने हेतु हार्दिक आभार - - शारदीय नवरात्रि की सभी रचनाकारों को असंख्य शुभकामनाएं।

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