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रविवार, अप्रैल 04, 2021

"गलतफहमी" (चर्चा अंक-4026)

 मित्रों!

रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
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हिन्दी व्याकरण "आधा "र्" का प्रयोग"  
 “हिन्दी में रेफ लगाने की विधि
अक्सर देखा जाता है कि 
अधिकांश व्यक्ति आधा "र" का प्रयोग करने में 
बहुत त्रुटियाँ करते हैं। 
उनके लिए व्याकरण के कुछ सरल गुर प्रस्तुत कर रहा हूँ!
हिन्दी में रेफ  अक्षर के नीचे “र” लगाने के  लिए 
सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि 
‘र’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ?
  यदि ‘र’ का उच्चारण अक्षर के बाद हो रहा है तो 
रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के नीचे लगेगी 
जिस के बाद ‘र’ का उच्चारण हो रहा है ।
उदाहरण के लिए - 
प्रकाश, सम्प्रदाय, नम्रता, अभ्रक, चन्द्र आदि ।
हिन्दी में रेफ या अक्षर के ऊपर  "र्" लगाने के  लिए
 सदैव यह ध्यान रखना चाहिए कि 
‘र्’ का उच्चारण कहाँ हो रहा है ?  
“र्"   का उच्चारण जिस अक्षर के पूर्व हो रहा है तो 
रेफ की मात्रा सदैव उस अक्षर के ऊपर लगेगी 
जिस के पूर्व ‘र्’ का उच्चारण हो रहा है ।
उदाहरण के लिए - आशीर्वाद, पूर्व, पूर्ण, वर्ग, कार्यालय आदि ।  
             रेफ लगाने के लिए आपको 
केवल यह अन्तर समझना है कि 
जहाँ पूर्ण "र" का उच्चारण हो रहा है 
वहाँ सदैव उस अक्षर के नीचे रेफ लगाना है 
जिसके पश्चात  "र"  का उच्चारण हो रहा है ।
जैसे - 
प्रकाश, सम्प्रदाय, नम्रता, अभ्रक, आदि में 

 "र" का उच्चारण हो रहा है । 
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक', उच्चारण  
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एक गीत -  रामराज्य की तस्वीरों में रंग अभी भी भरना है 
रामराज्य की 
तस्वीरों में रंग 
अभी भी भरना है |

अभी नींव की 
ईंट रखी है 
अभी मंगलाचरण हुआ है ,
अभी राम के 
पुण्य धाम का 
दुनिया को स्मरण हुआ है ,
अभी कलश में 
सरयू जी के 
पावन जल को भरना है | 
जयकृष्ण राय तुषार, छान्दसिक अनुगायन 
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रंगपंचमी पर पांच छंद पद्माकर के | डॉ. वर्षा सिंह 
Dr. Varsha Singh
प्रिय ब्लॉग पाठकों, रंग पंचमी की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं !!!
   आज मैं अपने इस ब्लॉग पर बुंदेलखंड के गौरव एवं राष्ट्रीय स्तर पर ख्यातिलब्ध रीतिकालीन कवि पद्माकर के पांच छंद यहां प्रस्तुत कर रही हूं जो मूलतः होली पर केन्द्रित हैं -

1.
फागु के भीर अभीरन तें गहि, 
गोविंदै लै गई भीतर गोरी ।
भाय करी मन की पदमाकर, 
ऊपर नाय अबीर की झोरी ॥
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा 
दई मोड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! 
फिर खेलन आइयो होरी ॥
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संसार में हर एक व्यक्ति का समय आता है 

जिस इंसान ने धैर्य संयम सहनशीलता का परिचय दिया हो बुरे वक्त में उस इंसान का वक्त जरुर बदलता है और जो इंसान वक्त की नजाकत को नहीं समझता फिर वक्त निकलने के बाद पछताने के सिवा कुछ नहीं होता । इसीलिए कहते हैं सही समय पर सही फैसले ले लेना चाहिए ताकि उन्हें बाद में पछताना ना पड़े क्योंकि समय बीत जाने के बाद हमारे पास सिर्फ और सिर्फ पछतावा और अफसोस रहता है समय पर संभाल गया वही इंसान सफल कहलाता है।

किसी ने ठीक ही कहा है "समय दिखाई नहीं देता, पर बहुत कुछ दिखा जाता है !!"

 Sawai Singh Rajpurohit, AAJ KA AGRA 
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हास्य कथा कोरोना भाग.. कोरोना भाग पढिये और आनन्द लीजिये। यदि आप भी अपनी रचनाओं को  यहाँ देना चाहते हैं तब निःसंकोच भेजें_srisahitya 
श्यामलाल ने सुना कि कोरोना का टीका लगवाने से कोरोना नहीं होता।वह रात भर सो न सका।विस्तर पर कड़ाके की गर्मी में भी मुँह पर कम्बल लपेट कर करवटें बदलते रहा कि कब सुबह हो और दम भर टीका लगवा ले। 
वर्ष भर जब से कोरोना आया है, श्यामलाल का जीना दुरभ हो गया है। उसने जब मास्क के बारे में देखा -सुना तब खुद से नए कम्बल को काट कर झोले जैसा मास्क बना लिया । चौबीसों घंटे वह अपने कम्बल के झोले को पहने रहता। 
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आ बैल (कोरोना) हमें मार 
कुछ लोगों को सही मायनों में जान की कीमत नहीं पता ! बिमारी की चपेट में आने पर पहले की बंदिशें नहीं सहीं ! नाहीं ऐसे  लोगों को अपनों को खोने के दर्द का एहसास है ! इन्हें सिर्फ अपनी मौज-मस्ती और तफरीह से मतलब है ! लेकिन यह सारा अनुभव तभी संभव है, जब तक इंसान जिंदा है, जिंदगी कायम है ! तमाम सावधानियों और दवा के भी पहले ऐसे लोगों पर लगाम कसना जरुरी है ! कहने में अच्छा नहीं लगता, शब्द भी कटु हैं, पर ऐसे लोग एक तरह से अपने परिवार के अलावा समाज और देश के भी दुश्मन कहे जा सकते हैं.......!!  
गगन शर्मा,  कुछ अलग सा 
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फितरत 
फिर उनकी ही बातें, करते मर जाने पर, 
जीते जी, जो तरसे तारीफें सुनने को!

फितरत है, ये तो इन्सानों की,
मुरझा जाने पर, करते है बातें फूलों की, 
पतझड़ हो, तो हो बातें झूलों की,
उम्र भर, हो चर्चा भूलों की!
पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा, कविता "जीवन कलश"  
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मेरे अश्कों के दरिया में बहती है काग़ज़ की नाव 

काग़ज़ की नाव १९८६ में डायमंड प्रकाशन से छपा था और मैंने इसे पहली बार १९९१ में तब पढ़ा जब मैं कलकत्ता में रहता था और सी. ए.  फ़ाइनल परीक्षा की तैयारी कर रहा था । उन दिनों मेरे निवास से थोड़ी ही दूर ‘महात्मा गांधी रोड पर रोज़ शाम को उपन्यासों की ढेरियाँ लगाए बहुत से लोग एक लंबी कतार में बैठे रहते थे और किराए पर उपन्यास पढ़ने को देते थे । मैंने पाठक साहब के ज़्यादातर उपन्यास उसी दौर में उन लोगों से किराए पर लेकर पढ़े । एक दिन काग़ज़ की नाव लेकर आया । उपन्यास मैं आम-तौर पर अपने कोर्स की पढ़ाई के बीच-बीच में विश्राम लेने के लिए पढ़ता था और विश्राम के बाद फिर से अपने अध्ययन में जुट जाता था । पर काग़ज़ की नाव के साथ ऐसा हुआ कि उसे पढ़ने के दौरान कई मर्तबा मेरे आँसू निकल पड़े और जब उपन्यास पूरा हुआ तो मेरा किसी काम में मन नहीं लगा – न पढ़ाई में और न ही और किसी बात में । 

जितेन्द्र माथुर, jmathur_swayamprabha  
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गिल्ली-डंडा 
विमल कुमार शुक्ल 'विमल', मेरी दुनिया  
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आज का उद्धरण 
विकास नैनवाल 'अंजान', एक बुक जर्नल  
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आज के लिए इतना ही।
बुधवार को पुनः मिलेंगे।
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9 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय शास्त्री जी,
    आपकी पारखी दृष्टि उत्कृष्ट पठनीय सामग्री से युक्त लिंक्स का चयन करने में बेमिसाल है।
    आज भी बेहतरीन लिंक्स हैं यहां.... साधुवाद 🙏
    मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए बहुत हार्दिक आभार 🙏

    शुभकामनाओं सहित,
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

    जवाब देंहटाएं
  2. उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति । सभी सूत्र अत्यंत सुन्दर चयनित रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन प्रस्तुति। चर्चा मंच पर मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।

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  5. विविधरंगी सूत्रों की खबर देती सुंदर चर्चा ! आभार

    जवाब देंहटाएं
  6. आज की आगरा की पोस्ट को यहां शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार आदरणीय शास्त्री जी

    जवाब देंहटाएं
  7. एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाओं का संकलन।
    मेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आभार।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं

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