मित्रों!
‘काग़ज़ की नाव’ १९८६ में डायमंड प्रकाशन से छपा था और मैंने इसे पहली बार १९९१ में तब पढ़ा जब मैं कलकत्ता में रहता था और सी. ए. फ़ाइनल परीक्षा की तैयारी कर रहा था । उन दिनों मेरे निवास से थोड़ी ही दूर ‘महात्मा गांधी रोड’ पर रोज़ शाम को उपन्यासों की ढेरियाँ लगाए बहुत से लोग एक लंबी कतार में बैठे रहते थे और किराए पर उपन्यास पढ़ने को देते थे । मैंने पाठक साहब के ज़्यादातर उपन्यास उसी दौर में उन लोगों से किराए पर लेकर पढ़े । एक दिन ‘काग़ज़ की नाव’ लेकर आया । उपन्यास मैं आम-तौर पर अपने कोर्स की पढ़ाई के बीच-बीच में विश्राम लेने के लिए पढ़ता था और विश्राम के बाद फिर से अपने अध्ययन में जुट जाता था । पर ‘काग़ज़ की नाव’ के साथ ऐसा हुआ कि उसे पढ़ने के दौरान कई मर्तबा मेरे आँसू निकल पड़े और जब उपन्यास पूरा हुआ तो मेरा किसी काम में मन नहीं लगा – न पढ़ाई में और न ही और किसी बात में ।
खूबसूरत लिंक्स |आपका हृदय से आभार
जवाब देंहटाएंआदरणीय शास्त्री जी,
जवाब देंहटाएंआपकी पारखी दृष्टि उत्कृष्ट पठनीय सामग्री से युक्त लिंक्स का चयन करने में बेमिसाल है।
आज भी बेहतरीन लिंक्स हैं यहां.... साधुवाद 🙏
मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए बहुत हार्दिक आभार 🙏
शुभकामनाओं सहित,
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
उम्दा चर्चा। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति । सभी सूत्र अत्यंत सुन्दर चयनित रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति। चर्चा मंच पर मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।
जवाब देंहटाएंविविधरंगी सूत्रों की खबर देती सुंदर चर्चा ! आभार
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर आज की चर्चा
जवाब देंहटाएंआज की आगरा की पोस्ट को यहां शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और आभार आदरणीय शास्त्री जी
जवाब देंहटाएंएक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाओं का संकलन।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आभार।
सादर।