मित्रों रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
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कुछ होती हल्के रंगों की,
कुछ होती हैं बहुरंगी सी,
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- लघुकथा
- अध्यापक ने बच्चों को ईमानदार लकडहारा कहानी याद करने के लिए दी थी . अगले दिन कहानी सुनी जा रही थी . सुनाते वक्त एक बच्चे की जवान लडखड़ाई ." लकडहारा ईमानदार आदमी था ", कहने की बजाए वह बोला -" ईमानदार आदमी लकडहारा था ."अध्यापक सोच रहा है कि यही तो आज के वक्त का सच है कि ईमानदार आदमी लकडहारा ही है , अर्थात मजदूर है , गरीब है , बेबस है , मामूली आदमी है और जो भ्रष्ट है वह मालिक है , अमीर है , शहंशाह है , मजे में है .
दिलबागसिंह विर्क, Sahitya Surbhi
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तेरी हर शय
तेरी हर शर्त
है क़बूल मुझे ,
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
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हमारे कानों पर दो मच्छर थे, जो अपने फर्ज़ पूरे करने के लिहाज़ से भिनभिना रहे थे। सोने से पूर्व की सही भूमिका बनाने के लिए हमने कई क़िस्म की परिवर्तनीय करवटें भी लीं, लेकिन ये मच्छर भी न जाने किस ज़िद में थे।
Dr.Manoj Rastogi, साहित्यिक मुरादाबाद
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garima, aashaye
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Onkar, कविताएँ
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रेत के टीलों पर बना हुआ एक ऐसा दुर्ग जिस पर सूरज की किरणें पड़ती है तो सोने की तरह चमकता हुआ दिखाई देता है। राजस्थान का ऐसा दुर्ग जो यदुवंशी भाटी शासकों के गौरवान्वित इतिहास को अपने अंदर समेटे हुए है। कहते हैं इस दुर्ग में पहुंचना इतना कठिन हुआ करता था कि अबुल फ़ज़ल ने खुद कहा था जो आगे चल कर कहावत बन गयी "घोड़ा कीजे काठ का पग कीजिये पाषाण और अख्तर कीजिये लोह का तब पहुँचे जैसाण"
Pallavi saxena, मेरे अनुभव (Mere Anubhav)
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देवी मां की आराधना है
सबसे बड़ा काम
अभी मेरे लिए
इसके बिना नहीं विश्राम
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सभी चेहरे हैं ऋतु अनुचर,
शांतनु सान्याल, अग्निशिखा :
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यूँ, सब्र के धागों को तुम तोड़ो ना!
हो, कितनी दूर, हकीकत,
पर, मुमकिन है, सच को पा लें हम,
यूँ ही, खो जाने की बातें,
अब और करो ना!
सच से, यूँ ही आँखें तुम फेरो ना!
पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा,
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Prashant Suhano, SUHANO DRISHTI
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dilloalosaidf, dilmeraa
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nayee dunia, नयी उड़ान +
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यमलोक में आजकल सभी परेशान चल रहे थे। यमदूत आत्मा लेने धरती पर जा तो रहे थे लेकिन उन्हें खाली हाथ वापस लौटना पड़ रहा था।
विकास नैनवाल 'अंजान', एक बुक जर्नल
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उर्मिला सिंह, सागर लहरें
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गजल
💚💙💛🧡❤️
वो जबसे मोहब्बत करने लगे हैं
जी भर के शिकायत करने लगे हैं।।
💚💙💛🧡❤️💚💙💛🧡❤️
कहते हैं दिल है पत्थर से बना
पत्थर से उल्फत करने लगे हैं।।
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आज के लिए बस इतना ही।
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चयन एवं संकलन वैविध्यपूर्ण है शास्त्री जी। प्रत्येक रंग है इस विशाल चित्र में। अभिनंदन एवं मेरे आलेख के समावेश हेतु हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंवाह, वाह ,वाह । बहुत ही शानदार संकलन । आपने इस चर्चा में साहित्यिक मुरादाबाद का ब्लॉग भी शामिल किया इसके लिए आपका हृदय से बहुत बहुत आभार ।
जवाब देंहटाएंशुभ प्रभात
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति। ।।।।
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंउम्दा लिंक्स आज की | मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार सहित धन्यवाद |
सुंदर प्रस्तुति.मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ,मेरी रचना को शामिल करने के लिए हार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाओं के साथ बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति। सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचनाओं का संकलन करती श्रमसाध्य चर्चा अंक आदरणीय सर,सभी रचनाकारों को हार्दिक शुभकामनायें एवं नमन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर बाल कविता व वैविध्यपूर्ण अच्छे अच्छे लिंक
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबेबसी में ज़िन्दगानी
बोतलों में बंद पानी
नीर के स्त्रोतों से कब तक
और होगी छेड़खानी
कल धरा का रूप क्या हो !
दिख रहा जो आज धानी
गर नहीं दुनिया रही तो
कौन राजा, कौन रानी !
राजनीतिक द्यूत क्रीड़ा
दांव पर खेती -किसानी
वन कटे तो नित बदलती
मौसमों की राजधानी
लौट आया है कोरोना
है ज़रूरी सावधानी
रात भर सोती नहीं मां
हो रही बेटी सयानी
क्या किया, सोचो कभी तो
गुम कुंआ, नदिया सुखानी
काटना होगा जो बोया
रीत यह तो है पुरानी
देश के जो काम आए
सार्थक है वो जवानी
क्या कहें, पूरब से पश्चिम
छा गई है बेईमानी
छांछ-मक्खन बांट देगी
वक़्त की चलती मथानी
बुझ रही संवेदना की
ज्योति होगी अब जगानी
रह न जाये याद बन कर
बूंद-"वर्षा" की कहानी
यही है उत्तर दुष्यंत ग़ज़ल का तेवर जिसमें पर्यावरण चेतना भी है राजनीतिक कटाक्ष भी सामाजिक चिंताएं माँ बाप का बेटी के प्रति आशंकित मन।
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लो,गिरा दिए मैंने सारे पत्ते,
जवाब देंहटाएंअब फूल ही फूल बचे हैं,
पर मेरी अनदेखी अभी जारी है
समझ में नहीं आता, क्या करूं
कि तुम्हारी नज़र मुझ पर पड़े.
चलो, मैंने फ़ैसला कर लिया है,
फूल भी गिरा दूंगा एक-एक करके,
बिल्कुल ठूँठ बन जाऊंगा,
तब तुम मेरी ओर देखना,
हैरानी,दया या हिक़ारत से,
पर मेरी अनदेखी मत करना.
सशक्त बिबं-प्रधान भाव उद्वेलन
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जवाब देंहटाएंप्रेम के हैं रूप कितने (अनुराग शर्मा)
तोड़ता भी, जोड़ता भी, मोड़ता भी प्रेम है,
मेल को है आतुर और छोड़ता भी प्रेम है॥
एक नदी के दो किनारे लोग ना खुश ,
हर कोई उस पार जाना चाहता है।
दुश्मनों का प्यार पाना चाहता है ,
हाथ पे सरसों उगाना चाहता है।
कौन जाने फिर मनाने आ ही जाओ ,
दिल हमारा रूठ जाना चाहता है।
पूरा ग़ज़ल कुञ्ज है यह एकल रचना ,चर्चा मंच की ग़ज़लों का तेवर देखते ही बनता है।
शुद्ध शास्त्रीय अध्यापकीय तेवर लिए है ये रचना काश हम भी आपके शिष्य होते -तीन बेर खाती ,ते वे तीन बेर खाती हैं। यमकीय छटा लिए सुंदर काव्य रचना अर्थपूर्ण
जवाब देंहटाएंहरियल से आराम की ,छाया में आराम कर ,
यात्री ठहरे फिर चले , धरणी को यूं धाम कर।
आराम बाग़ की छाया में आराम कर
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शुद्ध स्वास्थ्य विज्ञान से प्रेरित है यह रचना ककड़ी रफेज़ ,एडिबल फाइबर्स ,खाद्य रेशों से भर -पूर
जवाब देंहटाएंजुगाली करने वाला पेय है ,बाल गीत अब लिखने वाले बचे ही कहाँ हैं। आप अपनी रचनाएं बाल भारती ,प्रकाशन विभाग ,सूचना भवन ,सीजीएचएस कॉम्प्लेक्स भेजिए ,नै दिल्ली भेजिए।
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नदी किनारे पालेजों में,
ककड़ी लदी हुईं बेलों पर,
ककड़ी बिकतीं हैं मेलों में,
हाट-गाँव में, फड़-ठेलों पर,
यह रोगों को दूर भगाती,
यह मौसम का फल है अनुपम।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
इस मर्तबा चर्चा मंच के तेवर निराले हैं तमाम सेतु संग्रहणीय
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शुद्ध स्वास्थ्य विज्ञान से प्रेरित है यह रचना ककड़ी रफेज़ ,एडिबल फाइबर्स ,खाद्य रेशों से भर -पूर
जुगाली करने वाला पेय है ,बाल गीत अब लिखने वाले बचे ही कहाँ हैं। आप अपनी रचनाएं बाल भारती ,प्रकाशन विभाग ,सूचना भवन ,सीजीएचएस कॉम्प्लेक्स भेजिए ,नै दिल्ली भेजिए।
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नदी किनारे पालेजों में,
ककड़ी लदी हुईं बेलों पर,
ककड़ी बिकतीं हैं मेलों में,
हाट-गाँव में, फड़-ठेलों पर,
यह रोगों को दूर भगाती,
यह मौसम का फल है अनुपम।
ककड़ी मोह रही सबका मन।।
शुद्ध शास्त्रीय अध्यापकीय तेवर लिए है ये रचना काश हम भी आपके शिष्य होते -तीन बेर खाती ,ते वे तीन बेर खाती हैं। यमकीय छटा लिए सुंदर काव्य रचना अर्थपूर्ण
हरियल से आराम की ,छाया में आराम कर ,
यात्री ठहरे फिर चले , धरणी को यूं धाम कर।
आराम बाग़ की छाया में आराम कर
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लोकतन्त्र में शासन करने के, सब ही अधिकारी हैं,
किन्तु अराजक तत्वों को, क्यों मिलती भागीदारी हैं,
मुक्त करो इनसे संसद को, कहता हर बाशिन्दा है।
करतूतों को देख हमारी, होता वो शरमिन्दा है।।
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ओछी गगरी सदा छलकती, भरी हुई चुपचाप रहे,
जिसकी दाढ़ी में तिनका है, वही ज्ञान की बात कहे,
आस्तीन का साँप हमेशा, करता चुगली-निन्दा है।
करतूतों को देख हमारी होता वो शरमिन्दा है।.
वाह शास्त्री जी राजनीतिक झरबेरियों को जन -मन के आहत मन को यूं गीतों में रख दिया यह कला कोई आपसे सीखे।
बेबसी में ज़िन्दगानी
बोतलों में बंद पानी
नीर के स्त्रोतों से कब तक
और होगी छेड़खानी
कल धरा का रूप क्या हो !
दिख रहा जो आज धानी
गर नहीं दुनिया रही तो
कौन राजा, कौन रानी !
राजनीतिक द्यूत क्रीड़ा
दांव पर खेती -किसानी
वन कटे तो नित बदलती
मौसमों की राजधानी
लौट आया है कोरोना
है ज़रूरी सावधानी
रात भर सोती नहीं मां
हो रही बेटी सयानी
क्या किया, सोचो कभी तो
गुम कुंआ, नदिया सुखानी
काटना होगा जो बोया
रीत यह तो है पुरानी
देश के जो काम आए
सार्थक है वो जवानी
क्या कहें, पूरब से पश्चिम
छा गई है बेईमानी
छांछ-मक्खन बांट देगी
वक़्त की चलती मथानी
बुझ रही संवेदना की
ज्योति होगी अब जगानी
रह न जाये याद बन कर
बूंद-"वर्षा" की कहानी
यही है उत्तर दुष्यंत ग़ज़ल का तेवर जिसमें पर्यावरण चेतना भी है राजनीतिक कटाक्ष भी सामाजिक चिंताएं माँ बाप का बेटी के प्रति आशंकित मन।
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लो,गिरा दिए मैंने सारे पत्ते,
अब फूल ही फूल बचे हैं,
पर मेरी अनदेखी अभी जारी है
समझ में नहीं आता, क्या करूं
कि तुम्हारी नज़र मुझ पर पड़े.
चलो, मैंने फ़ैसला कर लिया है,
फूल भी गिरा दूंगा एक-एक करके,
बिल्कुल ठूँठ बन जाऊंगा,
तब तुम मेरी ओर देखना,
हैरानी,दया या हिक़ारत से,
पर मेरी अनदेखी मत करना.
सशक्त बिबं-प्रधान भाव उद्वेलन
ग़ज़ल देख ग़ज़ल की धार देख ,
बेहतरीन ग़ज़ल कही है रवींद्र जी ने :
वक़्त फिसला है
रेत की तरह
"रवीन्द्र " के हाथों से,
सज्दे में झुक गया हूँ
समझ न
पुल से गुज़रने का महसूल मुझे।
ज़िन्दगी तू
अब सिखा दे
जीने का उसूल मुझे।
@रवीन्द्र सिंह यादव
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प्रेम के हैं रूप कितने (अनुराग शर्मा)
तोड़ता भी, जोड़ता भी, मोड़ता भी प्रेम है,
मेल को है आतुर और छोड़ता भी प्रेम है॥
एक नदी के दो किनारे लोग ना खुश ,
हर कोई उस पार जाना चाहता है।
दुश्मनों का प्यार पाना चाहता है ,
हाथ पे सरसों उगाना चाहता है।
कौन जाने फिर मनाने आ ही जाओ ,
दिल हमारा रूठ जाना चाहता है।
पूरा ग़ज़ल कुञ्ज है यह एकल रचना ,चर्चा मंच की ग़ज़लों का तेवर देखते ही बनता है।
सुन्दर प्रस्तुति....मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार....
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