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सोमवार, जून 14, 2021

'ये कभी सत्य कहने से डरते नहीं' (चर्चा अंक 4095)

शीर्षक पंक्ति: आदरणीय डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की रचना से। 

 सादर अभिवादन। 

सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।

आइए पढ़ते हैं आज की चंद चुनिंदा रचनाएँ- 

"हम बसे हैं पहाड़ों के परिवार में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")

दर्द सहते हैं और आह भरते नही,
ये कभी सत्य कहने से डरते नही,
गर्जना है भरी इनकी हुंकार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।
*****
*****
*****

*****सिर्फ़ यही चाह | कविता | डॉ शरद सिंह
वह चाहे
स्त्री हो या पुरुष
बूढ़ा या बच्चा
उसे मिले 
मेरे हिस्से का 
सब कुछ अच्छा-अच्छा
सिर्फ़ यही चाह
हो जाए पूरी
विलोपित हो जाएं  
वे सब
जो इच्छाएं
रह गईं अधूरी।
*****
तुम आओ तो सही ...

इतनी रफ़्तार से 

तुम आशियाने मत बदलो 

दरवाज़े पे 

बस इतना लिख देना 

की तुमने अपने आप को 

तब्दील कर लिया है 

*****

तड़प

नीड़ से ज्ञान लिया होगा रिश्तों के धागों ने उलझ जाना!

अक्षय वट के क्षरण के उत्तरदायित्व का

 स्पष्ट कारण का नहीं हो पाना।

मुक्तिप्रद तीर्थ गया में अंतिम पिंड का

प्रत्यक्षदर्शी गयावट ही है...!

*****

मदिरा सवैया : शिल्प विधान : संजय कौशिक 'विज्ञात'रूप शशांक कलंक दिखा, पर शीतल तो वह नित्य दिखा। और प्रभा बिखरी जग में, इस कारण ही यह पक्ष लिखा॥ खूब कला बढ़ती रहती, तब जीत गई फिर चंद्र शिखा। आँचल में सिमटी उसके, तब विस्मित देख रही परिखा॥*****एक ज़मीं पे ग़ज़ल: तीन मक़बूल शाइरआलेख: महावीर उत्तरांचली

सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर ख़ंजर कफ़-ए-क़ातिल में है
देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उस ने कहा
मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है
गरचे है किस किस बुराई से वले बाईं-हमा
*****
ठनी है रारतुम तय करो लड़ना किससे है तुम्हें जीतना किससे है तुम्हें ज़िन्दगी से या मौत से या फिर अपनी हताशा से, अपने विश्वास से*****वृक्ष
कटकर किसी चूल्हे का इंधन हो जाना 
वृक्ष का दधीचि हो जाना होता है 
कहाँ कोई है वृक्ष सा कोई संत ! 

******
ग़ज़ल

उन नन्हीं/बूढ़ी आँखों में झांको

ख़्वाब भरे हैं जिनमें कल के।

इश्क़ की राहों में कांटे हैं

चलना थोड़ा संभल संभल के।

*****

Corona

बेकार हो गये अब भैया जब रिटायर भये दोबारा,

अब न कोई सुनता न किसी पर चलता वश हमारा।

कह डॉक्टर कविराय अब किस पर हुक्म चलावैं,

बस चुप रह कर निस दिन बीवी का हुक्म बजावैं।
*****

आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे अगले सोमवार।

रवीन्द्र सिंह यादव


13 टिप्‍पणियां:

  1. सुप्रभात
    आज के अंक में मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार सहित धन्यवाद रवीन्द्र जी |

    जवाब देंहटाएं
  2. असीम शुभकामनाओं के संग हार्दिक आभार
    कुछ रचनाओं को पढ़ ली... सामयिक सार्थक लेखन
    श्रमसाध्य कार्य हेतु साधुवाद

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही सुंदर सराहनीय संकलन।
    सभी को हार्दिक बधाई।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. पठनीय रचनाओं के सूत्र, सुंदर प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  6. सुंदर प्रस्तुति.मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत बढियां चर्चा संकलन

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत सुन्दर और श्रमसाध्य चर्चा प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत सुंदर संकलन, मेरी रचना को चर्चा अंक में स्थान देने पर तहेदिल से शुक्रिया आपका आदरणीय ।

    जवाब देंहटाएं
  10. चर्चा मंच में मेरी कविता को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार रवीन्द्र सिंह यादव जी 🙏

    जवाब देंहटाएं
  11. विलम्ब से उपस्थित होने के लिए क्षमाप्रार्थिनी हूं 🙏 किन्तु
    देर से ही सही सभी लिंक्स की उम्दा सामग्री पढ़ डाली है। सभी एक से बढ़कर एक हैं...

    जवाब देंहटाएं
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    जवाब देंहटाएं

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