सादर अभिवादन।
बुधवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
गौरैया की संख्या लगातार सीमित होती जा रही हैं। एक प्यारी-सी चिड़िया घर-आँगन में रौनक बरसाया करती थी जो अंधाधुंध भौतिक प्रगति की आँधी में अपने आवास और भोजन के लिए तरस गई और न जाने किस क्षेत्र में पलायन कर गई।
कुछ पक्षीप्रेमी संस्थाओं ने गौरैया को बचाने की मुहिम तो चलाई है किंतु वह अपूर्ण सिद्ध हो रही हैं।
आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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रूप 'मयंक' एवं अमर भारती : गीत "कैसे बचे यहाँ गौरय्या!" 
चिड़िया का तो छोटा तन है,
छोटे तन में छोटा मन है,
विष को नहीं पचा पाती है,
इसीलिए तो मर जाती है,
सुबह जगाने वाली जग को,
अपनी ये प्यारी गौरय्या।।
दाना-दुनका खाने वाली
कैसे बचे यहाँ गौरय्या??
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उमसभरी दोपहरी गुज़री
शाम ढलते-ढलते
हवा की तासीर बदली
ज्यों आसपास बरसी हो बदली
ध्यान पर बैठने का नियत समय
बिजली गुल हुई आज असमय
मिट्टी का दीया
सरसों का तेल
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पल-पल के
हिसाब से
तय करती है
अपना सफ़र…
समय ही कहाँ है
इसके पास
चोटी या जूड़ा
बनाने को...
बाल कटने के बाद
पोनी टेल भी
अच्छी ही लगती है
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कस्तूरिया ;कैमरे की आँख
लोग कहते हैं कि
कैमरे की आँख होती है
बहुत चालू !
लेकिन कहाँ पकड़ पाती है
हमारे सच्चे दुखों को वह
अनकही खोखली मुस्कान में
रह जाती है फँसकर
दरअसल कैमरे की आँख के
भीतर छिपकर बैठा होता है
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अग्निशिखा :: अतल से धरातल का सफ़र - -
रात के सीने में छुपे रहते हैं अनगिनत
अंध गह्वर, दूर तक रहता है गहन
अंधेरा, ज़िन्दगी उतरती है
धुंध की सीढ़ियों से
क्रमशः नीचे
बहोत -
नीचे की ओर जहाँ निमग्न कहीं बैठा
होता है सहमा सा एक बूंद सवेरा,
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कविता "जीवन कलश": कर कुछ बात
तू, मेरी बात न कर,
छोड़ आया, कहीं, मैं उजालों का शहर,
जलते, अंगारों का सफर,
भड़के, जज्बात!
बयां तू ही कर, क्या हैं तेरे हालात!
है तेरी बातें, अलग,
सोए रातों में, जगे जज्बातों का विहग,
बुझे, जली आग सुलग,
संभले, लम्हात!
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ऐ दोस्त
अबके जब आना न
तो ले आना हाथों में
थोड़ा सा बचपन
घर के पीछे बग़ीचे में खोद के
बो देंगे मिल कर
फिर निकल पड़ेंगे हम
हाथों में हाथ लिए
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कभी शहर के इस कोने पे
कभी दिखे उस कोने पर
कितने चक्कर रोज़ मारते
खाने के एक दोने पर
लगता है बस भीख मांगते
छोटे से तुम बड़े हुए
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किसी ने कितना खूबसूरत कहा है कि आप अपनी राह खुद तय करते हैं फिर चाहे उस पर कालीन हो या नुकीले पत्थर...। हमने कठिन पथ चुना, हमने चुना प्रकृति को, उसके दर्द के चीत्कार को सुना, महसूस किया। धरा के कंठ को सूखते देख हमें भी लगा कि हमारा कंठ भी सूखने को है...कितना सुखद सा अहसास है कि राह यदि आप मुश्किल चुनें और उस पर चलते हुए आप हमेशा मुस्कुराएं तब यकीन मानिये कि आपकी राह सही थी। मुस्कुराहट से याद आया कि प्रकृति पर चलने की यह राह चाहे वैचारिक हो, जमीनी हो या फिर महसूस करने वाली हो...
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अपने लेख 'मैं शाकाहारी क्यों हूँ' में मैंने कहा है कि जीवन का जितना अधिकार मनुष्यों को है, अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार उससे कम नहीं है। और क्यों हो कम ? जिस प्रकृति, जिस सबसे बड़ी शक्ति ने संपूर्ण सृष्टि को बनाया है, मानवों को बनाया है; उसी ने अन्य प्राणियों को भी बनाया है। जीवन लेने का अधिकार उसी को है जो जीवन दे सकता है। जब हम किसी को ज़िन्दगी दे नहीं सकते तो अपने स्वार्थ के लिए किसी की ज़िन्दगी लेने का भी हमें कोई हक़ नहीं है। क्या इंसान को दिमाग़ इसलिए मिला है कि वह निरीह जानवरों को ग़ुलाम बनाकर उन पर ज़ुल्म करता रहे और जब अपनी सहूलियत नज़र आए, उनकी जान ले ले ? हरगिज़ नहीं ! लेकिन इंसान की इसी ख़ुदगर्ज़ी ने आज समूची क़ायनात के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है, इसी ख़ुदगर्ज़ी ने कुदरत को वक़्त-वक़्त पर अपना क़हर ढाने पर मजबूर कर दिया है, यह याद दिलाने पर मजबूर कर दिया है कि दुनिया आख़िरकार फ़ानी ही है। --
‘ये फूल सतरंगी के हैं इसलिये किसी का भी यहाँ आना सख्त मना है .”
अब फूल किसी चहारदीवारी से घिरे तो थे नहीं ,जो दीवार लाँघनी पड़ती . हवा और धूप तो दीवार नहीं बनतीं न ? सो अगली सुबह जबकि धूप पेड़ों की फुनगियों से नीचे उतर भी न पाई थी कि काली और छोटी सी चिड़िया टहनियों पर फुदकती हुई फूलों तक आगई .मारे खुशी के उसकी पूँछ ऊपर--नीचे नाच रही थी . उसके पीछे ही भन् भन् करता एक भौंरा भी आगया और जल्दी ही कुछ कुछ मधुमक्खियाँ भी सन् सन् करती हुई आगईं सब फूलों से रस लेने में मगन हो गए . सतरंगी को यह बड़ा नागवार लगा . यह तो वही बात हुई कि ‘मान न मान मैं तेरा मेहमान ‘... रूखे स्वर में बोली--
“कौन हो तुम सब ? बिना किसी अनुमति के यहाँ क्यों आए हो ?”
“हमें ये फूल बहुत अच्छे लगते हैं इसलिये इनसे मिलने आए हैं और क्या ...”
“पर ये फूल तो मेरे हैं .तुम इनसे नहीं मिल सकते . क्या तुम लोगों ने बोर्ड पर लिखी सूचना नहीं पढ़ी ?”
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आज का सफ़र यहीं तक
फिर मिलेंगे
मेरे आलेख को स्थान देने हेतु आपका हार्दिक आभार आदरणीया अनीता जी। आपका चयन विविधता एवं गुणवत्ता, दोनों ही कसौटियों पर खरा उतरता हैै। मैंने भी गौरैया दिवस (२० मार्च) के अवसर पर अत्यन्त परिश्रमपूर्वक रचा गया एक लेख अपने ब्लॉग पर डाला था जिसका ब्लॉगर साथियों ने नोटिस ही नहीं लिया और वह लगभग अपठित ही रहा।
जवाब देंहटाएंसादर नमस्कार सर।
हटाएंजल्द ही आपकी वह रचना पढ़को के समक्ष होगी।
सादर
शुभप्रभात🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बेहतरीन और सरहनीय चर्चा मंच सभी अंक बहुत ही अच्छे हैं!
आभारी हूँ प्रिय मनीषा।
हटाएंबहुत सारा स्नेह।
सादर
जी बहुत बहुत आभार आपका...। सभी अच्छे लिंक हैं...।
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ सर।
हटाएंसादर
उम्दा लिंक्स से सजा आज का अंक |
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ आदरणीया आशा दी जी।
हटाएंसादर
अनीता जी , बहुत सुंदर सराहनीय अंक एवम् लिंक भी । समय मिलते ही पढ़ूंगी सबको ।सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।🙏
विविधरंगी सूत्रों से सजी बहुत सुन्दर प्रस्तुति अनीता जी ! मेरे सृजन को चर्चा में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंसराहनीय अंक
जवाब देंहटाएंअनीता जी,आपकी चयनित लगभग सभी रचनाएं पढ़ने का सौभाग्य मिला ,बहुत सुंदर,विविधतापूर्ण तथा सराहनीय हैं,आपके श्रम को मेरा नमन एवम वंदन।मेरी रचना का मान रखने के लिए आपका हार्दिक आभार एवम अभिनंदन। सुभकामनाओं सहित जिज्ञासा सिंह।
जवाब देंहटाएंपरख और परिश्रम को नमन अनिता जी। यदा कदा ही समय दे पाता हूं पर जब भी आता हूं तृप्ति मिलती है चर्चामंच संकलन से । आभार अभिवादन।
जवाब देंहटाएंसुंदर सराहनीय अंक विभिन्न गुलों से महकता सुंदर गुलदस्ता।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
सादर सस्नेह।
बहुत बढियां चर्चा प्रस्तुति
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