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गुरुवार, नवंबर 18, 2021

' भगवान थे !'(चर्चा अंक-4252)

सादर अभिवादन। 
गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 


 शीर्षक व काव्यांश आ. रश्मि प्रभा जी की रचना 'भगवन थे!' से -


अहा,
भगवान उस वक़्त भी मौजूद थे
और प्रयोजन,परिणाम का ताना बाना बुन रहे थे ।
जिस दिन मंच पर उपमाओं से सुशोभित वह खड़ी हुई,
उसने महसूस किया सोलहवां साल...
उस दिन वह हीर बन गई,
अदृश्य पर मनचाहे रांझे को
रावी के किनारे
खुद की राह देखते खड़ा देख
उसने प्रेम को जाना
भगवान को माना
वह राधा से कृष्ण हुई और
कृष्ण से कृष्णा हो गई।

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

--

गीत "काँप रही है थर-थर काया" 

नभ में धुआँ-धुआँ सा छाया,
शीतलता ने असर दिखाया,
काँप रही है थर-थर काया,
हीटर-गीजर शुरू हो गये,
नहीं सुहाता ठण्डा पानी।
जाड़े पर आ गयी जवानी।।
भगवान थे !
भगवान थे जब उसकी आँखों में मोहक सपने थे,
कभी राधा,मीरा
तो कभी किसी अल्हड़ सी बारिश को देखकर
उसके मन में बिजली कौंधती,
ठंडी,शोख़ हवायें बहतीं ...
जिस दिन सपने टूटे,बिखरे
बिजली गिरी,
हवायें दावानल हुईं,
भगवान तब भी थे ।

शून्य से ...

निर्वात में डूबी अभिव्यक्ति, 

विराम चाहती है ।

विचार….,

मन आंगन के नीलगगन में,

खाली बादल से विचरते हैं ।

--

मन मगन

मन उपवन

शब्दों के जंगल उग आते हैं 

घने और बियाबान 

तो सूर्य का प्रकाश 

नहीं पहुँच पाता भूमि तक 

मन पर सीलन और काई 

की परतें जम जाती हैं 

--

735. हाँ! मैं बुरी हूँ

मैं बुरी हूँ   
कुछ लोगों के लिए बुरी हूँ   
वे कहते हैं-   
मैं सदियों से मान्य रीति-रिवाजों का पालन नहीं करती   
मैं अपनी सोच से दुनिया समझती हूँ   
अपनी मनमर्ज़ी करती हूँ, बड़ी ज़िद्दी हूँ।   

रंज - ख़ुशी    के    दावतनामे   जाते  हैं,
यूँ  ही  कब  पलकों  तक  आँसू आते हैं।

कैसे   कह   दें  उनको   रागों  का  ज्ञाता,    
रात  ढले  तक  राग  यमन  जो  गाते  हैं

मन बावरा माना ना

कुछ भी जानना चाहा ना  

क्या कहाँ चाहिए उसे

उसने पहचाना ना  |

--

कृतज्ञता

आभारी हृद से रहें, लेकर भाव कृतज्ञ।
शब्द मात्र समझें नहीं, यह जीवन का यज्ञ।।
यह जीवन का यज्ञ, मनुज का धर्म सिखाता।
समता का ले भाव, जगत का दर्प मिटाता।।
अपने तमाम एहसास हमने, 
कुछ यूं लफ्जो़ मे पिरोए हैं,
तुम साथ तो चेहरे पे मुस्कुराहट बिखेरी,
और अकेले मे रोए हैं।

मेरे दिल की बात: एक मरते हुए तालाब की कहानी 

     विशेष रूप से कस्बों और शहरों की अपनी बसाहटों का हर दिन का कचरा और गंदा पानी डाल -डाल कर मनुष्य अपने तालाबों का अस्तित्व मिटाता जा रहा है। छत्तीसगढ़ का  तहसील मुख्यालय पिथौरा कभी एक छोटा गाँव हुआ करता था , बढ़ती आबादी के।कारण अब यह नगर पंचायत है। हो सकता है कि कल यह नगर पालिका बन जाए।  साफ पानी की जरूरत तो उस समय भी सबको होगी। 
   यहाँ कभी लाखागढ़ का तालाब ग्रामीणों की निस्तारी का प्रमुख जरिया था । लाखागढ़ अब एक अलग ग्राम पंचायत है।वर्षों पहले  इस तालाब के किनारे खूब रौनक रहती थी। लाखागढ़ और पिथौरा बस्ती के लोग इसकी पचरी पर आते ,इत्मीनान से बैठते ,एक दूसरे का हालचाल पूछते ,बतियाते  और इसके स्वच्छ जल में डुबकियाँ लगाकर नहाने के बाद अपनी दिनचर्या शुरू करते। 
--

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति!
    . आपका आभार अनीता सैनी जी|

    जवाब देंहटाएं
  2. सुप्रभात
    धन्यवाद मेरी रचना को शामिल करने के लिए अनीता जी आज के अंक में |

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन रचनाओं का सराहनीय सार -संकलन ।आपके परिश्रम को प्रणाम । हार्दिक शुभकामनाएं । आपने आज की चर्चा में मुझे भी स्थान दिया,इसके लिए बहुत -बहुत धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति,आभार आपका अनीता जी🙏

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर संकलन । बेहतरीन सूत्रों के मध्य मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए हृदयतल से धन्यवाद 🙏

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर और सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
    आज की चर्चा में शीर्षक व काव्यांश आ. रश्मि प्रभा जी की रचना
    'भगवन थे! से लिया गया है। यह तो हमारे चर्चाकारों की दरियादिली है
    कि जो ब्लॉगर अपनी महानता के दर्प में आकर कभी
    चर्चा मंच पर झाँकने भी नहीं आते हैं उनको भी स्थान दिया जाता है यहाँ।

    जवाब देंहटाएं
  7. एक से बढ़कर एक पठनीय रचनाओं से सुसज्जित है आज का चर्चा मंच, आभार मुझे भी इसमें शामिल करने हेतु !

    जवाब देंहटाएं
  8. सुंदर संकलन!
    पठनीय आकर्षक लिंक्स से सजा अंक।
    सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।
    मेरी रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए हृदय से आभार।
    सादर सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
  9. रोचक लिंक्स से सुसज्जित चर्चा। मेरी पोस्ट को चर्चा में शामिल करने हेतु हार्दिक आभार।

    जवाब देंहटाएं

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