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गुरुवार, दिसंबर 16, 2021

'पूर्णचंद्र का अंतिम प्रहर '(चर्चा अंक-4280)

सादर अभिवादन। 
गुरुवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।


 शीर्षक व काव्यांश आ.भारती दास जी की रचना से-


पूर्णचंद्र का अंतिम प्रहर था
मंद मंद चल रहा पवन था
गंगा की लहरें इठलाती
जैसे शैशव वय बलखाती
विश्वनाथ का पूजा अर्चन
करने बैठे ध्यान व वंदन
एकाग्र हो गई सहज चेतना
पूर्ण हो गयी सघन प्रार्थना
अज्ञानता का मिटा अंधेरा
चित्त से दूर हुआ भ्रम सारा
आम्र वृक्ष का मोहक बागान
सुगंधित पुष्प से सजा उद्यान

 

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

--

दोहे "नियमन में है खोट" 

लकड़ी-ईंधन का हुआ, अब तो बड़ा अभाव।
बदन सेंकने के लिए, कैसे जले अलाव।।
--
हैं काजू-बादाम के, आसमान पर भाव।
मूँगफली को खाइए, मेरा यही सुझाव।।
पूर्णचंद्र का अंतिम प्रहर था
मंद मंद चल रहा पवन था
गंगा की लहरें इठलाती
जैसे शैशव वय बलखाती
विश्वनाथ का पूजा अर्चन
करने बैठे ध्यान व वंदन
दिसंबर की डाल पर
खिलकर चुपचाप मुरझा चुके हैं
ग्यारह फूल
मधुमक्खियाँ आईं
खेले भँवरे भी उनकी गोद में
कितना लूटा किसने
नहीं जानते
बीत चुके ग्यारह फूल
बारहवाँ फूल खिला है संकोच में
वह जानता है
--
हाँ ! बुढ़ापे की चाहना !
जानते हो क्यों ?
क्योंकि हमारे बुढापे में ही तो
समाप्त होगी न हमारी 
ये विरह वेदना !!...
आपकी सेवानिवृत्त होने पर ।
मन की अगम गहराई जाने न कोई,
सतह को छू कर बस मुस्कुरा
जाते हैं लोग, जल चक्र
में थे सभी अटके
हुए, मौसम
का यूँ
सहसा रुख़ बदलना पहचाने न कोई,
बला है, कहर है, आफत है यह  जवानी, 
चेहरे  पर  चार  चाँद  लगाती  है जवानी,
दीवानगी के संग दिखाती है खास अदाएँ,
चलने  में अपनी शान दिखाती है जवानी। 
चाँद सिरहाने रख ख्वाबों को सजा लेते है,
क्या अपनी शबीह से रूबरू होते हो तुम।
यूँ बात बे बात पर घबरा जाती हो क्यूँ,
क्या अपनों से सताये गए हो बहुत तुम।
'कल' अनंत है,
जो बीत गया वह भी 
और जो आनेवाला है वह भी
'आज' का अंत है,
इसलिये इसका अधिक महत्व है,
'कल' पर कल का अधिकार है 
और कल का ही रहेगा,
सड़कों पर नियमों की कद्र करते हैं
हम मरने से नहीं चलान से डरते हैं
क्योंकि हम अच्छें हैं ।
-- 
बेतरतीब उगी हुई
घनी जंगली घास-सा दुख
जिसके नीरस अंतहीन छोर के
उस पार कहीं दूर से
किसी हरे पेड़ की डाल पर
बोलती सुख की चिड़िया का 
मद्धिम स्वर 
उम्मीद की नरम दूब-सा
थके पाँव के छालों को
सहलाकर कहती है-
--
हरेक राह में वही मंजिल वही साथी तलाशता हैं
तेरी सोहबत तेरी चाहत इसको खास कितनी हैं

इन दंगो में हमने चोटे गहरी दिलो में खायी हैं
सियासत गिनती हैं शहर में बस लाश कितनी हैं
--

11 टिप्‍पणियां:

  1. लकड़ी-ईंधन का हुआ, अब तो बड़ा अभाव।
    बदन सेंकने के लिए, कैसे जले अलाव।।

    वाह।बहुत गहरे भाव है।
    सुप्रभात,श्रेठ रचनायों का संकलन है,हमे भी स्थान देने के लिए आभार

    जवाब देंहटाएं
  2. उपयोगी लिंको के साथ सार्थक चर्चा प्रस्तुति|
    आपका आभार आदरणीया अनीता सैनी दीप्ति जी!

    जवाब देंहटाएं
  3. रचना का चयन एक सुखद अनुभूति है। सुंदर रचनाओं का संकलन।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह अनीता जी, गजब के शानदार ल‍िंक्‍स हमें एक ही नायाब मंच पर पढ़वाने के बहुत बहुत धन्‍यवाद

    जवाब देंहटाएं
  5. उत्कृष्ट रचनाओं से सजी लाजवाब चर्चा प्रस्तुति..
    मेरी रचना को स्थान देने हेतु दिल से आभार प्रिय अनीता जी!
    सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएं।

    जवाब देंहटाएं
  6. शांतम सुखाय से शीर्षक जवानी
    ये लिंक नहीं खुल रहा।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. शायद इन्होंने रचना ब्लॉग से हटा दी है।
      या कोई और समस्या रही होगी।
      सादर

      हटाएं
  7. सारगर्भित भूमिका की पंक्तियां और विविधापूर्ण रंग समेटे सराहनीय सूत्रों से सुसज्जित अंक में मेरी रचना शामिल करने के आभार अनु।

    सस्नेह
    शुक्रिया।

    जवाब देंहटाएं
  8. सुंदर खूबसूरत चर्चा संकलन

    जवाब देंहटाएं

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