सादर अभिवादन।
शुक्रवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
शीर्षक व काव्यांश आदरणीय ओंकार जी की कविता 'उसकी हँसी ' से -
वह जब हँसता है,
तो डर जाते हैं सभी,
घुस जाते हैं घरों में,
बंद कर लेते हैं दरवाज़े,
समझ जाते हैं
कि होने वाला है कोई अनिष्ट.
जब कोई हँसता है,
तो अक्सर दूसरे भी हँसते हैं,
पर हमेशा ऐसा हो,
यह ज़रूरी नहीं है.
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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वन्दना "मैं गीत बनाना भूल गया"
शब्दों से जब बतियाता हूँ,
अनजाने में लिख जाता हूँ,
माँ स्वप्न सजाना ना भूली,
मैं मीत बनाना भूल गया।
माँ छन्द सिखाना ना भूली,
मैं गीत बनाना भूल गया।।
बन्द दिमाग की झिर्री से दिखी थोड़ी सी रोशनी
किसलिये घबराते
महीने बन्द फाईल-ए-उलूक फिर पड़ी भी अगर खोदनी
सबको जा जा कर बताते
कतरा कतरा कतरा कतरा
बामुश्किल खींच तान कर कुछ बने चाहे बने सात चाहे बने सतरा
क्यों खिसियाते
वह जब हँसता है,
तो काँपने लगती है ज़मीन,
ढहने लगते हैं घर,
सब प्रार्थना करते हैं
कि उसका हँसना
जल्दी बंद हो जाय.
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नवरात्रि पर माँ के भक्तों को एक मशवरा
धर्म-मज़हब की सियासत से, मगर बाज़ आइए.
कौन मुंह खोले-ढके, तालीम से मत जोड़िए,
कैसे, कब, क्या, खा रहा, इसकी फ़िक़र भी छोड़िए.
दूसरी मंज़िल से उतर कर पार्क तक - -
सिमटती है ज़िन्दगी, यहाँ सूर्य
तपता है पूरी शिद्दत से,
पल्लव विहीन
मौलश्री के
नीचे
जा कहीं रुकता है कुछ पलों का पर्यटन,
ज्योतित स्वरूप उजियारा भर, कर दे विलीन तम का कण-कण;
शतदल मकरन्द अमन्द धरे, धरती-नभ हो आनन्द मयम् .
वाणी,विशुद्ध संधानमयी, वे अमल-सरल स्वर दो !
शुभ श्रेय-प्राप्ति वर दो!
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डींगों की सब भरे उड़ाने
कटे पंख का रोना
सरल मनुज को धोखा देते
बातों का कर टोना
तेज आँच में रांधे चावल
कोरा ठीकर फूटा।।
उनके किस्से नए भी पुराने लगे,
जो भी दिन थे पुराने सुहाने लगे ।
उनकी ज़ुल्फ़ों तले शाम होगी कभी,
ऐसा मौसम बना पर ज़माने लगे ।
जिस दिन कलम को जेब से नही निकाला था
उस दिन उसने भूजाओ की मदद से
अपनी जिव्हा को बाहर खींचा था
और वो मालिक के सामने बहुत कुछ बोला था ।
प्रेमी से, मैं कौन हो गया।
वाचाल से, अब मौन हो गया।
तेरे बिन सब कुछ अब सूना,
आवास ही अपना जेल हो गया।
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इस चमन में ख़ुश्बू महक जाने दो
अब मुझे मम्मी तुम स्कूल जाने दो।।
पढ़ के मै भी मम्मी नाम करूँगा
मुझको भी पढ़ के सँवर जाने दो।।
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कभी-कभी मुझे ये सोचकर बड़ा अचरज लगता है कि जो चीजे हमें अपनी जीवन को पकड़ने में मदद देती है,वही चीज़े हमारी पकड़ से बाहर होती है। हम ना खुद उसके बारे में सोच सकते हैं ना किसी दूसरे को बता सकते हैं। क्या कोई अपने जन्म के घड़ी के बारे में कुछ याद कर सकता है या अपनी मौत के अनुभव को बता सकता है ? अपनी जन्म और मौत की घड़ी के अनुभव को साझा करना तो थोड़ा बेतुका है मगर, जब आपके आँखों के आगे किसी जीव का जन्म होता है वो चाहे इंसानी हो या पशु-पक्षी का उस पल की अनुभूति को भी क्या आप साझा कर सकते हैं ?
आज का सफ़र यहीं तक
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सुंदर संकलन
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आदरणीय
बहुत बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।
सभी रचनाएं असाधारण हैं मुझे जगह देने हेतु ह्रदय तल से आभार नमन सह।
जवाब देंहटाएंसराहनीय अंक ।
जवाब देंहटाएंसुंदर संकलन.आभार
जवाब देंहटाएंआभार अनीता जी।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सराहनीय प्रस्तुति प्रिय अनीता, मेरे लेख को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद
जवाब देंहटाएंमेरी रचना सम्मिलित करने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंआदरणीय , मेरी प्रविष्टि के लिंक की चर्चा , इस चर्चा मंच शामिल करने के लिए , बहुत धन्यवाद और आभार ।
जवाब देंहटाएंसभी संकलित रचनाएँ बहुत उम्दा है , सभी आदरणीय को बहुत शुभकामनायें एवं बधाइयाँ ।
सादर ।
बहुत ही सुंदर लिंको से सुसज्जित ...मेरी रचना को सम्म्मलित करने के लिए शुक्रिया ।
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