शीर्षक पंक्ति: आदरणीय रूपचन्द्र शास्त्री जी की रचना से।
सादर अभिवादन।
चर्चामंच की सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
आइए पढ़ते हैं चंद चुनिंदा रचनाएँ-
“कदम-कदम पर घास”
(समीक्षक-डॉ. राकेश सक्सेना)
“प्राणवायु देते सदा, पीपल, वट औ’ नीम।
दुनियाभर में हैं यही, सबसे बड़े हकीम।।
हरित क्रान्ति से मिटेगा, धरती का सन्ताप।
पर्यावरण बचाइए, बचे रहेंगे आप।।“
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'दीघ-निकाय' में वर्णित एक नीति-कथा
'वत्स ! यह तो आर्य-धर्म नहीं है,'
फिर भगवान बुद्ध ने उस व्यक्ति से पूछा –
‘वत्स ! क्या तुम्हारे पिता ने तुम्हें छह दिशाओं को नमस्कार करने के इस आर्य-धर्म के कारणों की व्याख्या की थी?’
उस व्यक्ति ने उत्तर दिया –
‘नहीं भगवन ! पिताजी ने इस आर्य-धर्म के निर्वहन का कोई कारण तो मुझे नहीं बताया था.’
अब उस व्यक्ति ने भगवान बुद्ध से प्रार्थना की –
भगवन ! आप मुझे छह दिशाओं को नमस्कार करने वाले आर्य-धर्म का उपदेश करिए.’
भगवान बुद्ध ने उपदेश किया –
‘माता-पिता पूर्व-दिशा हैं.
पत्नी और पुत्र पश्चिम-दिशा हैं.
मित्र और साथी उत्तर-दिशा हैं.
भृत्य और कर्मकर नीचे की दिशा हैं.
ब्राह्मण और श्रमण ऊपर की दिशा हैं.
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आज का हवाला
यही बात मुझे सालती हैबहुत व्यथित हो जाती हूँ
मेरा तुम्हारा क्या कोई महत्व नहीं
इस तरह नकार दिया जाता है हमें
मानो हम कुछ जानते न हों |
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उल्लास अधरों पर टाँगते हैं उफनते भाव-हिलोरों को न ऐंठो तुम
पहर पखवाड़े में सिमटती ज़िंदगी के
चलो! उल्लास अधरों पर टाँगते हैं
यों निढाल न बनो स्वप्न हाँकते हैं।
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धरती अंबर मिल लुटा रहे
जब बदल रहे पल-पल किस्से
कोई न सच कभी जान सका,
हर बांध टूट ही जाता है
कब तक धाराएँ थाम सका!
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एक लोकभाषा कविता-खेतवा में गाँव कै परानं
मौसम क जुआ हउवै
खेत औ किसानी
नदिया के पेटवा मा
अँजुरी भर पानी
दुनो ही फसीलिया में
ढोर से तबाही
झगड़ा पड़ोसियन से
कोर्ट में गवाही
मलकिन कै बिछिया
हेरान मोरे भइया ।
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चौपाई - जो समझ आयी .. बस यूँ ही...
आराध्यों को अपने-अपने यूँ तो श्रद्धा सुमन,
करने के लिए अर्पण ज्ञानियों ने थी बतलायी।
श्रद्धा भूल बैठे हैं हम, सुमन ही याद रह पायी,
सदियों से सुमनों की तभी तो है शामत आयी .. शायद...
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कितनी कसौटियाँकितनी कसौटियाँ, कितनी परीक्षाएँ, तुम बनाते रहे ... हर बार , परखने को .... एक औरत का किरदार |*****आओ मिलकर प्रीत जगाएँ
आओ मिलकर प्रीत जगाएँ
भला कहीं नारों से जीवन कटता है
भेदभाव का दृश्य स्वयं को छलता है
उनकी रस्सी अपनी गर्दन फाँस लगाकर
चौराहे पर खुद को यूँ न लटक दिखाएँ ॥
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कविता
नही देख सकता है वो अपने इर्द गिर्द
जिन्दा लाशें मरे हुये वजूद की
कचोटता है अपने कलम कि स्नाही से
उन्हकी आँखो की पुतलियाँ को
रखना चाहता है अपनी आत्मा पर
एक कविता रोष और आक्रोश की
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किश्तियाँ हैं ये कागज़ी
सुइयाँ फटे दिल का दामन सिलेंगी क्या?
लिख तो दिया है कि मुहब्बत है हमसे
रेत पे लिक्खी इबारतें टिकेंगी क्या?
एक चौराहे पे राहें जो जुदा हो गई हों ,
किसी चौराहे पे वो चारों फिर मिलेंगी क्या?
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फिर मिलेंगे।
रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत ही अच्छे लिंक्स।हार्दिक आभार आपका।सादर अभिवादन
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा प्रस्तुति|
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी|
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंआभार सहित धन्यवाद रवीन्द्र जी मेरी रचना को आज के अंक में शामिल करने के लिए |
सुप्रभात! पठनीय रचनाओं के सूत्रों का सुंदर संकलन! बहुत बहुत आभार मन पाए विश्राम जहाँ को शामिल करने हेतु रवीन्द्र जी!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर संकलन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार आदरणीय सर ।
मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।