सादर अभिवादन।
शुक्रवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है।
शीर्षक व काव्यांश कविवर केदारनाथ सिंह जी की कविता 'चुप्पियाँ' से -
चुप्पियाँ बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहाँ बोलना जरूरी था
बढ़ती जा रही हैं वे
जैसे बढ़ते बाल
जैसे बढ़ते हैं नाख़ून
और आश्चर्य कि किसी को वह गड़ती तक नहीं..
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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बालकविता "ककड़ी-खीरा खरबूजा है"
ऐसे मौसम में पेड़ों पर,
फल छा जाते हैं रंग-रंगीले।
उमस मिटाते हैं तन-मन की,
खाने में हैं बहुत रसीले।
चुप्पियाँ बढ़ती जा रही हैं
उन सारी जगहों पर
जहाँ बोलना जरूरी था
बढ़ती जा रही हैं वे
जैसे बढ़ते बाल
उन सारी जगहों पर
जहाँ बोलना जरूरी था
बढ़ती जा रही हैं वे
जैसे बढ़ते बाल
खुद से बात करना ... करते रहना ...सोच भी पता नहीं कहाँ से कहाँ पहुँच जाती है ... पर क्या करूं इंसानी फितरत ही ऐसी है ... तुम न होतीं तो कोई और होता ... होता ज़रूर किसी का नाम जिंदगी की किताब में ... स्याही देता है सबको इश्वर ... खाली पन्ने भी देता है जिंदगी में किसी का नाम लिखने को--
भला किससे है
कविता की महक और मिठास
शब्दों के सुमधुर जाल से
या भावों के सुर और ताल से
कभी ढूँढे नहीं मिलते शब्द पर
भीतर घन बन उमड़ती हैं भावनाएँ
या सागर में उठे ज्वार सी
निमवा के पतिया, निमन लगs हइ,चैत में।
सहजन के सहेज के रख लिह चैत में,
पीली घंटी के फुलवा
गोकर्ण के सफेद, गुलाबी
आउर बैंगनी रंग चैत में।
सहजन के सहेज के रख लिह चैत में,
पीली घंटी के फुलवा
गोकर्ण के सफेद, गुलाबी
आउर बैंगनी रंग चैत में।
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उसके किनारे पर
जमा होती है
संसार ने दिए जख्म
उसके पैर धस जाते हैं
स्वार्थीयों के किचड़ में
उसका वेग धीमा पड़ जाता है
प्रिय पुरुष
स्वागत है तुम्हारा मेरे इस अद्भुत विश्व में
मैंने बहुत आग्रह और प्रेम से
ये दुनिया बनाई है तुम्हारे लिये
जब तुम सो रहे थे देह में मेरी
महफ़िल में अपने आने से इक नया रंग आएगा
तुझमें रह जाऊंगी मैं, कुछ तू मेरे संग आएगा
अब दस बजे तक का समय कैसे कटे ! लेकिन नौ बजे ही अमिय के मित्र का फोन आया ,''बधाई हो आप दोनों सिलेक्ट हो गए हैं और मज़े की बात है भाभी का स्त्रियों में अव्वल रैंक है !!रमा के आँखों में अविरल अश्रुधारा बह रही थी | वो जानती थी अमिय के प्यार के बिना ,बाबूजी के अथक परिश्रम के बिना और अम्मा के सहयोग के बिना यहाँ तक पहुँचना नामुमकिन ही था !!!
हमारे ब्लॉग जगत की नन्ही रचनाकार मनीषा अग्रवाल ने अपनी एक कहानी "निशब्द" में लेखक के दोहरे चरित्र को बड़ी ही खूबसूरती से उजागर किया है।जो कि व्यवहारिकता के धरातल पर सत प्रतिशत सत्य है। अक्सर यही निष्कर्ष निकलता है कि-"ये कलाकार, चित्रकार या साहित्यकार सिर्फ और सिर्फ नाम यश के ही भुखे होते हैं। अपनी कृतियों में झुठी भावनाओं को व्यक्त करते-करते वो कब भावनाहीन हो जातें हैं उन्हें खुद भी पता नहीं चलता। --
शाम होने वाली थी। धीरे-धीरे सूर्यास्त होने लगा। फैरी के छत से सूर्य की लालिमा और काले बादल सुन्दर और मनमोहक लग रहे थे। मन्द शीतल हवा के साथ फैरी धीरे-धीरे मुंबई की ओर बढ़ रही थी और चन्द मिनटों में मद्धम रौशनी वाले बिजली के बल्बों की रौशनी समुद्र के चारों तरफ जगमगाने लगी। जैसे ही हमलोग गेट-वे ऑफ़ इण्डिया के पास पहुँचे वहाँ गेट-वे ऑफ़ इण्डिया और ताज़ होटल की विद्युत सज्जा को देख कर उन्हें कैमरों में कैद करने का लोभ कोई सँवरण न कर सका। हम सभी एक अविस्मरणीय यात्रा को सम्पूर्ण कर अपने होटल पहुँचे।
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आज का सफ़र यहीं तक
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
बहुत बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति|
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीया अनिता सैनी 'दीप्ति' जी!
सुप्रभात! पठनीय रचनाओं के सूत्रों का सुंदर संकलन, आज के अंक में मुझे शामिल करने हेतु बहुत बहुत आभार!
जवाब देंहटाएंआदरणीया अनिता सैनी दीप्ति जी, नमस्ते👏! आज की सारी रचनाएँ पठनीय, स्तरीय और संग्रहणीय है। आज के अंक में मेरी रचना को भी चयनित करने के लिए हार्दिक अभार! --ब्रजेंद्रनाथ
जवाब देंहटाएं@अनीता सैनी 'दीप्ति' जी मनभावन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर सराहनीय प्रस्तुति प्रिय अनीता, मेरे लेख को भी स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार
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