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शनिवार, अप्रैल 16, 2022

'सागर के ज्वार में उठता है प्यार '(चर्चा अंक 4402)

सादर अभिवादन। 

शनिवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। 

शीर्षक व काव्यांश आदरणीया डॉ.विभा नायक जी की रचना 'प्यार '  से -

प्यार हवाओं में हैं,  प्यार मिट्टी की खुशबुओं  में है

प्यार मेरी और तुम्हारी गहरी निगाहों में है

बारिश की बूँदों में बरसता है प्यार

सागर के ज्वार में उठता है प्यार 

इस अनंत विश्व में बरसता है प्यार 

जो भिगोता है आत्माओं को अपनी अमृत छुअन से

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-

--

गीत "पीले गजरे झूमर से लहराते हैं" 

ये मौसम की मार हमेशा, 
खुश हो करके सहते हैं,
दोपहरी में क्लान्त पथिक को, 
छाया देते रहते हैं,
सूरज की भट्टी में तपकर, 
कञ्चन से हो जाते हैं।
लू के गर्म थपेड़े खाकर भी, 
हँसते-मुस्काते हैं।।
यही प्यार घुलता जा रहा है साँसों में मेरी 
गहरे उतर रहा है सीधे अंतरात्मा तक
भीग रही हूँ मैं पोर पोर तक इस अदृश्य जादू में 
डूब रही हूँ मैं अनंत महासागरीय विस्तार में 
आज एक बार फिर प्यार हो गया है मुझे खुद से 
--

हर किसी को नहीं मिलता ।
जन्म देकर भी कोई माँ नहीं बन पाती है,
और कोई
बिना जन्म दिये माँ बनकर 
निर्जीव से शरीर में प्राण डाल देती है ।
--
जिसमें पानी था उसी झील पे बरसात हुई
नींद में भी अब हरेपन का कोई ख्वाब नहीं
छत पे आ जाओ तो कुछ बात की खुशबू महके
आसमानों में कोई बोलता महताब नहीं
यीं धर्ती मा शरील पायी,
यीं धर्ती मा सब फिर समायी।
छै सचू नियम यीं धर्ती को,
क्वै औणा लग्यां क्वी जाणें लग्याँ।
--
कंठ सूखे होंठ पपड़े
ले नियति जब भागती है
पर्ण लेती सिसकियाँ जो
रात्रि भी फिर जागती है
अब पुरानी रीति बैठी
जीत के नव श्लोक जपने।।
दीवारों में दरार है ,
फिर कहां करार है ,
न खुशियों से दीदार है ,
न आपस में सद व्यवहार है । 
विन्ध्य, सतपुडा ,शिखर यहाँ
हरियाली है मुखर यहाँ ।
सिन्ध, बेतवा, क्षिप्रा चम्बल
ताप्ती और नर्मदा यहाँ ।
कण-कण जिसके बसे महेश
अपना मध्य-प्रदेश ।
--
वनगमन के दौरान ही उन्होंने हर जाति, हर वर्ग के व्यक्तियों के साथ मित्रता की ! हर रिश्ते को दिल से पूरी आत्मीयता और ईमानदारी से निभाया ! केवट हो या सुग्रीव, निषादराज हो या विभीषण सभी मित्रों के लिए उन्होंने स्वयं कई बार संकट झेल कर एक आदर्श संसार के सामने रखा ! इन सब के अलावा वर्षों पहले कहे गए कथन, वचन, वरदान, श्राप, सबका परिमार्जन भी किया जाना था ! कइयों को न्याय दिलवाना था ! कइयों को दंडित करना था ! देश-समाज में शान्ति स्थापित करनी थी ! इतना सब कुछ बिना वनगमन किए राजमहल में बैठ कर करना, अत्यधिक समय व रुकावटों का सबब बन सकता था !
-- 
आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

5 टिप्‍पणियां:

  1. पठनीय लिंंकों के साथ बहुत बढ़िया चर्चा प्रस्तुति|
    आपका आभार आदरणीय अनीता सैनी 'दीप्ति' जी!

    जवाब देंहटाएं
  2. आदरणीय सैनी मेम जी नमस्ते ,
    मेरी प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा को
    'सागर के ज्वार में उठता है प्यार '(चर्चा अंक-४४०२) पर शामिल करने के लिए बहुत धन्यवाद और आभार ।
    सभी संकलित प्रविष्ठियां उम्दा है , सभी आदरणीय को शुभकामनाएं और बधाईयां ।
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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