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सोमवार, अगस्त 01, 2022

'अंश और अंशी का द्वंद्व'(चर्चा अंक--4508)

सादर अभिवादन। 

सोमवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। 

शीर्षक व काव्यांश आदरणीया कल्पना मनोरमा जी की रचना 'अंश और अंशी का द्वंद्व'से -

जब हमें बराबर ये लगता और खटकता रहता है कि हमारे साथ जो हो रहा है, वह बहुत बुरा हो रहा हैलोग चालें चल रहे हैं। उस समय जगतनियंता आपके दोषों और अहम को परमार्जित कर चालन लगाकर तुम्हें निखार कर आदमी बना रहा होता है। क्योंकि आप जिस जगह को सर्वोत्तम मानकर टिकना चाहते होउस अदृश्य को मालूम होता हैवह स्थान आपके अनुकूल नहीं है। तभी तो वह इंसानी मुहरों को आपके खिलाफ भड़का देता है। और हम ठगे से देखते रह जाते हैं।यहाँ पहुँचकर अंश और अंशी का जो द्वंद्व पैदा होता हैवह जान लेवाकठिनतम कहलाता है। आपकी अपेक्षाओं के पर कतर कर वह आपको ऐसे स्थान पर पहुँचा देता हैजहाँ आपके स्वाभिमान को सम्मान ही नहीं मिलता बल्कि आप सुकून भी महसूस करने लगते हैं।

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-  

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उच्चारण: बालकविता "मम्मी मैं झूलूँगी झूला" 

अब हरियाली तीज आ रही,
मम्मी मैं झूलूँगी झूला।
देख फुहारों को बारिश की,
मेरा मन खुशियों से फूला।।
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एक बात बतलाओ माँ , 
मैं किस घर को अपना मानूँ 
जिसे मायका बना दिया या 
इस घर को अपना मानूं !
कितनी बार तड़प कर माँ 
भाई  की यादें आतीं हैं !
पायल, झुमका, बिंदी संग , माँ तेरी यादें आती हैं !
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करुणा का कातर कतरा,
कुछ अनकहा-सा कहता है।
ऊष्मा से आहत अंतस के,
तप्त तरल-सा बहता है।
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ईरानी गलीचे पर फैलता इश्क 
गाव तकिये पर अपने आप को सहारा देते 
गिर गिर पड़ते शेर 
अपनी सरहदों को छोड़ हारमोनियम पर 
सर टिकाये 
काफ़िया - रदीफ़ 
तबले के भीतर चुपचाप पड़ी 
सहमी सी थापें 
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जो हरदम चहका करती थी
वो चिड़ियां क्यों चुप चुप
बैठी है , डाल तो अब भी हरा भरा है
फिर वो क्यों उजरी -उजरी सी है।
मैंने पुछा तबीयत उसकी ,
जटिल सी मुस्कान लिए होंठो पर 
वो बोली सब ठीक है । 
--
चूड़ी बिंदी मेंहदी काजल
हंसता मुखड़ा उड़ता आंचल 
छन-छन धुन में बजती पायल
उदगार भरा है अपार
है श्रावणी का त्योहार....
--

भानु सहेजे किरन भोर की

दृग झपकाए लाल गरभ का ।

जैसे कमलनी खिले कलिका बिच

माथ ढका आँचल बिच माँ का ॥

थाल सजाए दीपक बाती

राह निहारे द्वार 

कंत तुम कब आओगे

नेह की परत फुहार 

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 प्रोफे ममता सिंह के तीन गवगीत

आशा और निराशा के दो 
पलड़ो में मैं झूलूँ 
पंख कटे हैं फिर भी मन है 
आसमान को छू लूँ। 
कैसे बाँधू गति चिंतन की 
चले न कोई जोर। 
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अंश और अंशी का द्वंद्व

खैर, जब आप कुशलता से सुस्थान पहुँच जाएँ तब आप अगर कुछ किसी को देना चाहें तो ऊपर वाले के उपकार के प्रति धन्यवाद दे सकते हैं। लेकिन अपने साथ घटित सुख-दुःख की सच्ची बात का भान रह पाना भी कठिन है। फिर भी आपको यदि याद बनी रहे तो समझिए भले आपसे कोई खुश रहे न रहेईश्वर बहुत प्रसन्न रहता है।

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 जरुरतमंद अलग मदद का तरीका अलग 

दिसंबर में उन्हें रेस्टुरेंट खुलवा दिया जो लाख रपये महीने के खर्च के कारण फ़रवरी में ही बंद हो गया | इस बीच उन दोनों ने कितने पैसे खुद खाये कोई नहीं जानता | बाबा अपने ढाबे पर वापस हैं लेकिन गालीमत हैं कि अभी भी उनके पास उन्नीस लाख रूपये बचे हैं | जो आयु बाबा की थी उसको देखते तो उनके लिए नया बिजनेस खोलना मूर्खता से ज्यादा कुछ नहीं था और  वो भी रेस्टुरेंट जैसा बिजनेस इस कोरोना और लॉकडाउन में | उसकी जगह उनके ढाबे पर और सुविधा उन्हें दे दी जाती या बैठ कर उसी दुकान पर  बेचने के लिए सामान भर दिए जाते तो उनकी आयु देखते बेहतर था | 

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आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति'  

11 टिप्‍पणियां:

  1. सार्थक लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
    आपका आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर रचनाओं से सजा गुलदस्ता।

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर चर्चा प्रस्तुति। मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हृदय से आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर लिंक संयोजन, सभी का आनंद लिया । फिर से धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  5. चर्चा मे मेरी पोस्ट शामिल करने के लिए धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं
  6. उम्दा प्रस्तुति !
    मेरी रचना को मंच पर जगह देने के लिए
    धन्यवाद दिल से ।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर, सारगर्भित रचनाओं से परिपूर्ण अंक ।
    मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका आभार और अभिनंदन अनीता जी । सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं 🌹🌹

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत खूबसूरत चर्चा संकलन

    जवाब देंहटाएं
  9. आभार रचना पसंद करने के लिए !

    जवाब देंहटाएं

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