चर्चाकार………….डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक" |
आज गुरूवार है और गुरूवार की चर्चा मंच के चर्चाकार श्री पं. डी.के.शर्मा वत्स जी है! आइए आज इन्हीं के बारे में चर्चा करता हूँ! |
पं.डी.के.शर्मा"वत्स" : संक्षिप्त परिचय:
InterestsMy BlogsTeam Membersचर्चा मंचडॉ. रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक", "श्रीमती वन्दना गुप्ता", श्री मनोज कुमार, श्रीमती sangeeta swarup, श्रीमती स्वप्न मंजूषा शैल 'अदा', श्रीमती अनामिका "अनामिका की सदाये...... " श्री रावेंद्रकुमार रवि धर्म यात्रा ज्योतिष की सार्थकता कुछ इधर की, कुछ उधर की |
ज्योतिष की सार्थकता की प्रथम पोस्ट |
तांत्रोक्त भैरव कवच>> Friday 15 August 2008तांत्रोक्त भैरव कवचतांत्रोक्त भैरव कवच ॐ सहस्त्रारे महाचक्रे कर्पूरधवले गुरुः पातु मां बटुको देवो भैरवः सर्वकर्मसु पूर्वस्यामसितांगो मां दिशि रक्षतु सर्वदा आग्नेयां च रुरुः पातु दक्षिणे चण्ड भैरवः नैॠत्यां क्रोधनः पातु उन्मत्तः पातु पश्चिमे वायव्यां मां कपाली च नित्यं पायात् सुरेश्वरः भीषणो भैरवः पातु उत्तरास्यां तु सर्वदा संहार भैरवः पायादीशान्यां च महेश्वरः ऊर्ध्वं पातु विधाता च पाताले नन्दको विभुः सद्योजातस्तु मां पायात् सर्वतो देवसेवितः रामदेवो वनान्ते च वने घोरस्तथावतु जले तत्पुरुषः पातु स्थले ईशान एव च डाकिनी पुत्रकः पातु पुत्रान् में सर्वतः प्रभुः हाकिनी पुत्रकः पातु दारास्तु लाकिनी सुतः पातु शाकिनिका पुत्रः सैन्यं वै कालभैरवः मालिनी पुत्रकः पातु पशूनश्वान् गंजास्तथा महाकालोऽवतु क्षेत्रं श्रियं मे सर्वतो गिरा वाद्यम् वाद्यप्रियः पातु भैरवो नित्यसम्पदा इस आनंददायक कवच का प्रतिदिन पाठ करने से प्रत्येक विपत्ति में सुरक्षा प्राप्त होती है यदि योग्य गुरु के निर्देशन में इस कवच का अनुष्ठान सम्पन्न किया जाए तो साधक सर्वत्र विजयी होकर यश, मान, ऐश्वर्य, धन, धान्य आदि से पूर्ण होकर सुखमय जीवन व्यतीत करता है |
ज्योतिष की सार्थकता की अद्यतन पोस्ट |
कहाँ है वो वैदिक ग्रन्थों में वर्णित "सोम" ???>> Tuesday 1 June 2010वैज्ञानिक निरन्तर इस खोज में रहे हैं कि वो सोमरस की जडी बूटी कहाँ मिले, जिसकी वेदों नें बडी भारी प्रशंसा की है.वेद तो उसकी स्तुति से भरे पडे हैं.उसको देवता तक कहा गया है---सोम देवता.वहीं दूसरी ओर इसे कामवर्षक, रोगहर्ता, आनन्द प्रदायक एक मादक पेय भी बताया है. यदि ऋचाओं की संख्या को ध्यान में रखें तो इन्द्र के बाद सोम पर ही सबसे अधिक ऋचाएं कहीं गई हैं. ऋग्वेद का सम्पूर्ण नवम मंडल, जिसमें 114 सूक्त हैं, सोम पर आधारित है. ऋग्वेद के तीन सर्वप्राचीन ऋषियों वशिष्ठ, भारद्वाज और विश्वामित्र द्वारा ही इन ऋचाओं की रचना की गई है. काण्व ऋषियों द्वारा भी इसकी विशेषताओं के बारे में बहुत कुछ कहा गया है, इसे रोगनाशक, आयुवर्द्धक, मन में अच्छे विचारों का जन्मदाता, शत्रुओं के क्रोध को शान्त करने वाला तथा बुद्धि का जनक इत्यादि बताया गया है.ब्रह्मा देवानां पदवी: कविनामृ्षिर्विप्राणां महिषो मृ्गाणां श्येनो गृ्घ्राणां स्वधि तिर्वनानां सोम: पवित्रम्येति रेभन !!(ऋ.9/96/6) अर्थात सोम देवों में ब्रह्मा है, कवियों पदकार, विप्रों में ऋषि, मृ्गों में महीष, गृ्घ्रों में बाज और वनों का कुठार है. यह ध्वनि करता हुआ पात्र में उफनता है. तो यहाँ स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि सोमरस की वो जडी बूटी है कहाँ? तो खोजबीन चलती रही है, हिमालय के जंगलों में न जाने कितने वैज्ञानिक इसकी खोज में लगे रहे, लेकिन आज तक भी किसी के हाथ कुछ न लग पाया.कभी किसी के हाथ कोई अन्जानी जडी बूटी लग गई तो उसने वही सिद्ध करना शुरू कर दिया कि यही "सोम" है. अभी भी ये प्रश्न अनुतरित है कि यह "सोमरस" क्या है? भारतीय उपाख्यानों की इस अद्भुत कल्पना का क्या रहस्य है? पृ्थ्वी के प्राणी को अमृ्ततुल्य गुणकारी इस स्वर्गिक बूटी का परिचय कहाँ प्राप्त हो सकता है? यदि पृ्थ्वीलोक का प्राणी इस दिव्य बूटी के साथ परिचय प्राप्त कर भी ले तो उस से मनुष्य का कौन सा कल्याण सिद्ध हो सकता है? इन प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर समझ लेने पर हम "सोमरस" के रहस्य को भली प्रकार जान सकेंगें. इसके लिए पहले तो समुद्र मन्थन की कथा का रहस्य समझना आवश्यक है. महाभारत के आदिपर्व तथा अन्य पुराणों में देवों और असुरों के द्वारा समुद्र मन्थन किए जाने की एक कथा आती है.देवों और असुरों नें यह प्रस्ताव किया कि "कलशोदधि" को मथना चाहिए क्यों कि उसके मथने से ही अमृ्त उत्पन होगा. देवों द्वारा कहा गया कि अमृ्त जल में से प्राप्त होगा इसके लिए जल का मन्थन किया जाना चाहिए. तब उन्होने समुद्र का उपस्थान किया, अर्थात समुद्र के पास गए. समुद्र नें कहा कि" मुझको भी अमृ्त का अंश देना स्वीकार करो तो मैं इस भारी मर्दन को सह सकता हूँ". विष्णु की प्रेरणा से मंदार पर्वत उखाडा गया और कूर्म की पृ्ष्ठ पर स्थापित कर, वासुकी नाग की नेती( मथने की रस्सी, जिसे संस्कृ्त में नेत्र-सूत्र कहते हैं) बनाकर इन्द्र नें मन्थन आरम्भ किया. नाग के एक सिरे को देव और दूसरी ओर असुर थामकर मन्थन करते रहे. तब घर्षण करने से औषधियों का रस ट्पक ट्पक कर समुद्र जल में मिलने लगा. कुछ समय पश्चात सबको श्रमित देखकर विष्णु नें बल देने हेतु प्रोत्साहित किया कि मन्दार पर्वत के परिभ्रमण से "कलश" को क्षुभित करो. तब उस "कलश" में से "सोम" प्रकट हुआ. तदन्तर उस कलश से "श्री, सुरा तथा सात मुखों वाला उच्चैश्रवा नामक अश्व उत्पन हुआ, ये चारों आदित्य मार्ग का अनुसरण कर जहाँ देवता थे, उस ओर चले गए. उसके बाद कौस्तुभ मणि, धन्वन्तरि, पारिजात, कल्पवृ्क्ष, चार श्वेत दान्तों वाला ऎरावत हाथी, कालकूट विष, कामधेनु गौ, पान्चजन्य शंख, विष्णु धनुष और रम्भादिक देवाँगनाएं उत्पन हुई...... बस इस कथा को हम यहीं तक लेते हैं. क्यों कि हमारा प्रयोजन उपख्यान के केवल इस भाग से ही सिद्ध हो जाता है..... क्रमश:......... |
वत्स साहब को इस ब्लॉग जगत में कौन नहीं जानता , फिर भी एक बार फिर से उनके बारे में विस्तृत जानकारी के लिए शुक्रिया शास्त्री जी !
जवाब देंहटाएंआमतौर से यह छूट जाता है कि किसी न सफर कहां से शुरू किया...वत्स जी से पुन: मिलवाने के लिए आभार
जवाब देंहटाएंVats ji ke baare mein janana accha laga..
जवाब देंहटाएंdhnywaad..
वत्सजी, आपसे परिचय तो है ही, पर विस्तार से आज जानने का अवसर मिला ! आभार !
जवाब देंहटाएंवत्सजी, आपसे परिचय तो है ही, पर विस्तार से आज जानने का अवसर मिला ! आभार !
जवाब देंहटाएंhe is scholar
जवाब देंहटाएंvats ji ke bare mein achchi jankari di.
जवाब देंहटाएंआईये जाने .... प्रतिभाएं ही ईश्वर हैं !
जवाब देंहटाएंआचार्य जी
वत्स जी का परिचय अच्छा लगा...आभार
जवाब देंहटाएंअच्छी प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंshukriya is jaankari k liye.
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