फ़ॉलोअर



यह ब्लॉग खोजें

रविवार, फ़रवरी 02, 2020

"बसंत के दरख्त "(चर्चा अंक - 3599)

स्नेहिल अभिवादन। 

रविवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है।

ऋतुराज बसंत का आगमन जीवन में सकारात्मक विचारों की धारा प्रवाहित करते हुए प्रकृति की सुंदरता का अवलोकन नयनाभिराम हो उठता है तब बसंत के दरख़्तों पर होते हैं मनभावन परिवर्तन जिन्हें हम भावबोध के साथ महसूस करते हैं

-अनीता सैनी 

**

मुक्तक गीत

"सदा गुणगान करते हैं" 

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) 

उच्चारण 
**

                              बसंत के दरख्त-1                              

कई रंग, अंग-अंग, उभरने लगे,
चेहरे, जरा सा, बदलने लगे,
शामिल हुई, अंतरंग सारी लिखावटें,
पड़ने लगी, तंग सी सिलवटें,
उभर सा गया हूँ!
या, और थोड़ा, निखर सा गया हूँ?
कभी था, अव्यक्त जैसे! 
**

बसंत तुम आ तो गये हो?

अभी गुज़र जाओ चुपचाप 
सन्नाटे में विलीन है पदचाप
बदलती परिभाषाओं की व्याख्या में 
अनवरत तल्लीन हैं बसंत-चितेरे। 
**

 मैं और चिड़िया 

Bird, Singer, Singing, Chirp, Tweet, Chirrup, Robin
मेरी आवाज़ 
मेरे ही घर में 
घुटकर रह जाती है,
उसका गीत 
पूरा मुहल्ला सुनता है.
**

लड़खड़ाती वफ़ादारी ( लघुकथा )

 
"अरे जी!"
"तुम नाहक़ ही चिंता करते हो।"
"घर में दस-ठो कुत्तों को किस दिन के लिये पाल रखा है?"
"छोड़ देना आज रात उसकी घरवाली पर।"
"सारी अक़्ल ठिकाने आ जायेगी!"
**

कह मुकरी

 

मन को मेरे अति हर्षाता

प्यासे तन की प्यास बुझाता

जिसका रूप लगे मनभावन

का सखि साजन?ना सखि सावन

**

मुझे आश्चर्य होता है

 

मुझे आश्चर्य होता है 

उसदिन 

जिसदिन तुम नही आते हो 

कि क्यों फीका-फीका सा लगता है सबकुछ

**

नवगीत मौन संजय कौशिक 'विज्ञात 


 ये भँवर बेचैन कितना
 घूम के हारा हुआ है
 मन यहाँ फँसता गया 
फिर हर समय मारा हुआ है
 सोच पाषाणी बनी 
जब डोलती कैसे बताएँ 
मौन गह्वर लाँघ कर के 
बोलती हैं नित शिलाएँ
जब चारों ओर अफरातफरी मची हो, कोई किसी की बात सुनने को ही तैयार न हो.   समाज में भय का वातावरण बनाया जा रहा हो और भीड़ को बहकाया जा रहा हो, भीड़ जो भेड़चाल
**

तेरा मेरा रिस्ता क्या लाइल्लिलाह इल्लिल्हाह----!

प्रकृति अपने विरुद्ध सभी बस्तुओं को,
 जीव जंतुओं को, पशु पक्षियों को समाप्त कर देती है, 
हम जब प्रकृति को समझने का प्रयास करते हैं 
तो ध्यान में आता है वही बचता है 
जो प्रकृति के अनुसार जीवन जीता है हमें दिखाई दे रहा है
**
मौसम की पालकी पर सज सँवरकर ।
आया है वसंत देखो जी दुल्हा बनकर। 
नव पल्लवों ने वंदनवार सजाए।
मंजरियों ने स्वागत द्वार सजाए।

** 

लोकतंत्र

हम जो हैं
वर्तमान राजतंत्र के नितारे गए लोग
जब हमने राजतंत्र से ऊब कर
विद्रोह शुरू किया
अधिकारों की मांग रखी
समानता की बात हुई- 

**

आज सफ़र यहीं  तक 

फिर मिलेंगे आगामी अंक में 

-अनीता सैनी 

11 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य कहा आपने जो भूखा है, विकल है, उसे सौंदर्य का बोध भला कैसे हो। उसके लिए तो बसंत और पतझड़ एक जैसे हैं।
    काश! कोई ऐसी ऋतु होती, जिसका प्रभाव सबपर एक समान होता।
    जो मनुष्य की मनोस्थिति को बदल देती और फैला देती वह सुंगध जिसमें सिर्फ मानवता की महक होती और खिल उठते दया, करुणा और प्रेम के प्रसून।
    और फिर ऐसे साहित्य का सृजन होता जिससे इन भूखे लोगों की आत्मा भी तृप्त होती।
    विविध रचनाओं से सजा मंच स्वागतयोग्य है, आपके श्रम को नमन अनीता बहन। सभी को प्रणाम।

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर और सार्थक चर्चा।
    आपके श्रम को नमन।
    अनीता सैनी जी हार्दिक धन्यवाद आपका।

    जवाब देंहटाएं
  3. सर्वप्रथम आदरणीया अनीता जी को मेरा प्रणाम और इस मंच का आभार, विशेषरूप से आज की प्रस्तुती हेतु जिसमें आपने मेरी लघुकथा "लड़खड़ाती वफ़ादारी" को स्थान देना उचित समझा! बहुत कम ऐसे लेखक होते हैं जो कि जनभावनाओं को अपने शब्दों का सत्यरूप देते हैं (और मैं कोई ज्ञानी पंडित नहीं कि दो श्लोक बांचकर ज्ञानी बनूँ अतः सीधे कहता हूँ "सम्पूर्ण पृथ्वी ही हमारा परिवार है!") जिनमें रवींद्र जी का नाम अग्रणीय है अतः रवींद्र जी से कहूँगा इस मंच के माध्यम से-      सत्य कहा आदरणीय रवींद्र जी आपने, बसंत का आना या ना आना यह पूर्णतः हमारी सोच और समाज की वर्तमान दशा पर निर्भर करता है। अब एक उदाहरण के ज़रिये इस बात को मैं समझाऊँगा कि होली के एक रात पहले कई उपद्रवी लोग गाँवों के ग़रीबों की खटिया होलिका की आग में डाल देते हैं और  अपने मन को तसल्ली देते फिरते हैं कि इस बार की होलिका नज़ारा बड़ा अच्छा लगा क्योंकि होलिका की आग की लपटें पूरे ज़ोरों पर थीं और वहीं दूसरी तरफ़, दूसरा व्यक्ति जिसकी खटिया ज़बर्दस्ती जलाई जा रही होती है वह अपनी खटिया के जलने से होलिका और उन उदंडियों को भर-भर मुँह कोस रहा होता है अंततः मैं यही  कहूँगा कि सोने के चमच्च मुँह में लेकर पैदा होने वाले बसंत मनाये, गीत गायें  और जिन किसानों और मज़दूर वर्ग के लोगों की सरकारों की ग़लत नीतियों के चलते इस बढ़ती महँगाई ने कमर तोड़ रखी है वह अनिश्चितकाल के लिए शोकगीत गायें! आपकी रचना सदैव ही सत्य को यथार्थ के धरातल पर रस्सी बाँधकर घसीट लाती है। सादर नमन आपकी लेखनी को! 'एकलव्य'         

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर चित्रों और पठनीय रचनाओं से सजा चर्चा मंच.. आभार !

    जवाब देंहटाएं
  5. बेहतरीन चर्चा अंक ,सभी रचनाकारों को ढेरों शुभकामनाएं एवं सादर नमस्कार

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुंदर चर्चा अंक।बेहतरीन प्रस्तुति।सुंदर चित्रों एवं सार्थक रचनाओं से सुसज्जित।सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।मेरी रचना को साझा करने के लिए हार्दिक धन्यबाद।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुंदर प्रस्तुति, मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार अनीता जी।

    जवाब देंहटाएं
  8. आभार.
    बहुत खुबसुरत लिंक्स से सजी है आज की चर्चा मंच.
    सुबह जब मैं चर्चा मंच पर आया तो देखा की एक सार्थक चर्चा हो रही थी... ऐसी चर्चाएँ जरूरी हैं...ताकि हमे ज्ञात हो सके की हम एक लम्बे समय से जिस परिपाटी को पिटते आ रहें है उसमे अब बदलाव की जरूरत है. समस्या का हल भी निकाला जाना चाहिए... अगर ऐसा नहीं हुआ तो कई ब्लोग्स के अस्तित्व को खतरा है.
    चर्चाओं को कुचलना या हटा लेना एक स्थाई हल नही है. या फिर अच्छे लेखकों को आगे से चर्चा मंच का हिस्सा न बनना भी कोई सार्थक हल नहीं होगा क्यूंकि इससे हम भेड़ों का बाड़ा बन सकते है.


    जवाब देंहटाएं

"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर

केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।