स्नेहिल अभिवादन
आज की प्रस्तुति में आप सभी का हृदयतल से स्वागत हैं।
जीवन अर्थात " प्रकृति " अगर प्रकृति है तो हम है। लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या हम है ? क्या हम जिन्दा है? क्या हमने अपनी नदियों को , तालाबों को ,झरनो को ,समंदर को ,हवाओ को, यहाँ तक कि धरती माँ तक को जिन्दा छोड़ा है?
इन्ही से तो हमारा आस्तित्व है न।
अपनी भागती दोड़ती दिनचर्या को एक पल के लिए रोके और अपनी चारो तरफ एक नज़र डाले और दो घडी के लिए सोचे, हमने खुद अपने ही हाथो अपनी प्रकृति को यहाँ तक कि अपने चरित्र को भी कितना दूषित कर लिया हैं। पर्यावरण को शुद्ध करने वाले नीम ,पीपल ,बरगद जैसे देव वृक्षों का आस्तित्व मिटा चुके हैं हम यकीनन प्रकृति भी हमारी मनमानी से थक चुकी हैं
और हमारी सजा तय कर चुकी हैं।
आज की प्रस्तुति में आप सभी का हृदयतल से स्वागत हैं।
जीवन अर्थात " प्रकृति " अगर प्रकृति है तो हम है। लेकिन सोचने वाली बात है कि क्या हम है ? क्या हम जिन्दा है? क्या हमने अपनी नदियों को , तालाबों को ,झरनो को ,समंदर को ,हवाओ को, यहाँ तक कि धरती माँ तक को जिन्दा छोड़ा है?
इन्ही से तो हमारा आस्तित्व है न।
अपनी भागती दोड़ती दिनचर्या को एक पल के लिए रोके और अपनी चारो तरफ एक नज़र डाले और दो घडी के लिए सोचे, हमने खुद अपने ही हाथो अपनी प्रकृति को यहाँ तक कि अपने चरित्र को भी कितना दूषित कर लिया हैं। पर्यावरण को शुद्ध करने वाले नीम ,पीपल ,बरगद जैसे देव वृक्षों का आस्तित्व मिटा चुके हैं हम यकीनन प्रकृति भी हमारी मनमानी से थक चुकी हैं
और हमारी सजा तय कर चुकी हैं।
मन मस्तिष्क है कुपोषित मानव का ,
तन को सबक़ सिखायेगा प्रदूषण,
प्रत्येक अंग में कीट बहुतेरे,
आवंतों के सुझाव की प्रतीक्षा करे धरा।
तन को सबक़ सिखायेगा प्रदूषण,
प्रत्येक अंग में कीट बहुतेरे,
आवंतों के सुझाव की प्रतीक्षा करे धरा।
आदरणीया अनीता जी के कलम से निकली इन चंद पंक्तियों पर चिंतन करते हुए आगे बढ़ते हैं।
और आनंद उठाते हैं आज की कुछ खास रचनाओं का
गीत "
मन को कभी उदास न करना"
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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मीन की आँख
"तब का तब क्या तुम सेवा करने योग्य रह जाओगे?
पिता का धन पुत्र को नहीं मिलता,
भविष्य का कुछ सोचकर यह कानून बना होगा।"
हिमेश की पत्नी गहरी तन्द्रा से जगी थी।
पिता का धन पुत्र को नहीं मिलता,
भविष्य का कुछ सोचकर यह कानून बना होगा।"
हिमेश की पत्नी गहरी तन्द्रा से जगी थी।
दो त्राण भी
आज दुष्कर है जीवन, औ प्राण भी।
क्षुब्ध मानव है विकल ,दो त्राण भी।।
क्षुब्ध मानव है विकल ,दो त्राण भी।।
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मधुमास की प्रतीक्षा में,
बसंती हवा की पहली
पगलाई छुअन से तृप्त
शाख़ से लचककर
सहजता से
विलग हो जाती है।
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आधा चाँद
बहुत दिनों बाद
आज फिर दिखा मुझे
अपनी खिड़की से
वो आधा चाँद
जिसे देख
आज फिर दिखा मुझे
अपनी खिड़की से
वो आधा चाँद
जिसे देख
मैं भाव विभोर हो गयी
...सच के आगे मैं इस तरह कभी सोच नहीं पाई,
परिस्थिति के आगे भी
सच को स्वीकार करते हुए बढ़ी
कभी घड़ियाली आँसू नहीं बहाए
न दुख का मज़ाक उड़ाने वालों के दुख से
विचलित हुई
परिस्थिति के आगे भी
सच को स्वीकार करते हुए बढ़ी
कभी घड़ियाली आँसू नहीं बहाए
न दुख का मज़ाक उड़ाने वालों के दुख से
विचलित हुई
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ऋचाओं-सी
मुझे याद ज़ुबा
तुम कर लेना
तराशुंगा मैं तुमको
अपने सोंचों की
कंदराओं में
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तुम कर लेना
तराशुंगा मैं तुमको
अपने सोंचों की
कंदराओं में
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"तब का तब क्या तुम सेवा करने योग्य रह जाओगे? पिता का धन पुत्र को नहीं मिलता,भविष्य का कुछ सोचकर यह कानून बजीते हैं, शायद वे कुंठाओं में,
या फिर सरस्वती, अवकुंठित हैं उनमें,
या फिर सरस्वती, अवकुंठित हैं उनमें,
दुनिया ने कितना समझाया
कौन है अपना कौन पराया
फिर भी दिल की चोट छुपा कर
हमने आपका दिल बहलाया
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प्रियजनों के साथ बिताया साल
महीनों से पहले ख़त्म हो जाता है
और इंतज़ार का एक घंटा
पूरे दिन से बड़ा होता है।
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प्रियजनों के साथ बिताया साल
महीनों से पहले ख़त्म हो जाता है
और इंतज़ार का एक घंटा
पूरे दिन से बड़ा होता है।
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महीनों से पहले ख़त्म हो जाता है
और इंतज़ार का एक घंटा
पूरे दिन से बड़ा होता है।
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नींद उसकी जागरण भी
चंचला मति आवरण भी
जाग देखें कैसी
भावना सँजोये हैं हम !
*******जीवन को जीएं, काटें नहीं
जब जो होना है, हो कर ही रहना है तो फिर नैराश्य क्यों ? जब भविष्य अपने वश में नहीं है
तो उसके लिए वर्तमान में चिंता क्यों ?
जरा सोचिए, मैं भी सोचता हूं ! कठिन जरूर है पर मुश्किल बिल्कुल नहीं !
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भले ही शरीर अपने साथ ना हो
भले ही मुख में दांत ना हो
मगर हँसते रहे ,हँसते रहे
जीवन इसी का नाम हैं
इसी के साथ आज्ञा दीजिए ,फिर मिलती हूँ अगले मंगलवार को
आप का दिन मंगलमय हो
कामिनी सिन्हा
सर्वप्रथम तो चर्चा में मंच पर मेरी लघुकथा विश्वास को स्थान देने के लिए आपका हृदय से आभार कामिनी जी।
जवाब देंहटाएंहर जगह आज विश्वास का संकट है। जहाँ स्वार्थ टकराया नहीं कि विश्वास समाप्त । इस सभ्य समाज में विश्वास सिर्फ भावुकता की पहचान बन कर रह गयी है। मानवोचित कर्तव्य के लिए कोई जगह नहीं है। हर बात को स्वार्थ के तराजू पर तौला जा रहा है।
जब मनुष्यता ही नहीं रह गयी , विश्वास उपहास का विषय बन गया हो , ऐसे में प्रकृति के रुदन को कौन सुनेगा .. ?
यह साहित्य जगत भी नहीं..
यहाँ भी गॉडफादर हैं और उनका स्वार्थ भरा तमाशा । किसी के सृजन को शीर्ष पर उठाना तो किसी को पाँव तले रखना ।
भूमिका पूर्व की तरह आज भी मानवीय संवेदनाओं को झकझोर रही है इसके लिए साधुवाद ..
प्रणाम।
इतनी सुंदर और विस्तृत प्रतिक्रिया देने के लिए हृदयतल से आभार आपका ,सादर नमन
हटाएंउपयोगी और सार्थक सन्देश के साथ सुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंआपका आभार कामिनी सिन्हा जी।
सहृदय धन्यवाद सर ,आपके आशीर्वाद के लिए हृदयतल से आभार आपका ,सादर नमस्कार
हटाएंहार्दिक आभार आपका
जवाब देंहटाएंअति सुंदर प्रस्तुतीकरण के लिए साधुवाद
सहृदय धन्यवाद दी ,आपके स्नेहिल प्रतिक्रिया र्के लिए हृदयतल से आभार दी ,सादर नमस्कार
हटाएंबहुत सुन्दर सूत्रों से सजी मनमोहक प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद मीना जी ,आपके इस बहुमूल्य प्रतिक्रिया र्के लिए हृदयतल से आभार ,सादर नमस्कार
हटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद कविता जी ,सादर नमस्कार
हटाएंवाह ! आदरणीया कामिनी दीदी आपने बहुत सुंदर सजायी है बरगद की सभा. प्रकृति से छिटक रहा मनुष्य अपनी दुर्दशा का ख़ुद ज़िम्मेदार है. आपने विस्तृत भूमिका में प्रकृति और मनुष्य के बीच बिगड़ते रिश्तों पर गहन चर्चा करते हुए पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया है. बहुत सुंदर प्रस्तुतीकरण जिसमें बेहतरीन रचनाओं को सजाया है.
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई.
मेरी रचना को इतना मान देने के लिये बहुत-बहुत आभार.
सादर स्नेह
सहृदय धन्यवाद अनीता जी ,ये बरगद की सभा आपके सहयोग से ही बुला पाई हूँ ,इस स्नेह और सहयोग के लिए दिल से आभार ,सादर स्नेह
हटाएंविचारणीय भूमिका... प्रकृति के साथ खिलवाड़ है वर्तमान में मानव जाति को आपदाओं के रूप में झेलनी पड़ रही है.. विकास के नाम पर रातों-रात हजारों पेड़ काटे जाते हैं नदियों का रुख मोड़ दिया जाता है प्रकृति आजाद मस्त मौला अपने हिसाब से चलने वाली एक उन्मुक्त बयार जैसी है है उसे अगर हम लोग अपने मनमर्जी से ढालनी डालने की कोशिश करेंगे तो वो उत्पाती बन जाएगी और नुकसान हमारा ही होगा..।
जवाब देंहटाएंबहुत ही महत्वपूर्ण एंव सराहनीय विषय रखा आपने भूमिका में...,
और रचनाओं का चयन तो आप बहुत ही बेहतरीन करती हैं पढ़कर यकीनन बहुत ही मजा आ रहा है इतनी अच्छी प्रस्तुति के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई एवं धन्यवाद अन्य चयनित रचनाकारों को बधाई...।।
सहृदय धन्यवाद अनीता जी ,आप सभी का स्नेह यूँ ही बना रहे यही कामना करती हूँ , सादर स्नेह
हटाएंप्रिय कामिनी , आज की प्रस्तुति में प्रकृति से खिलवाड़ पर सार्थक चर्चा बहुत सराहनीय है | बरगद के वृक्ष कभी गाँव , गली चौराहों की शान हुआ करते थे | पर मानव उनका अस्तित्व मिटाने पर उतारू है |पीपल भी मंदिरों के प्रांगन में ही बचे हैं | यदि कंक्रीट के जंगल के समानांतर ही इनका वजूद भी कायम रखा जाता तो ये हमारे हितकारी बनकर हमें प्रदुषण नाम के राक्षस से बचाकर रखते | आज समय ये आ गया है कि [ भले ये कवयित्री की कल्पना सही ] बरगद को नीम , पीपल के साथ इस चिंतन पर आपातकालीन बैठक बुलानी पढ़ रही है |हों भी क्यों ना ,आज इसका महत्व समझ में आ रहा है |आज के अंक के सभी लिंक अत्यंत सराहनीय | माँ की आंख लघुकथा सभी को पढनी चाहिए | सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई और तुम्हें हार्दिक शुभकामनाएं सखी |
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सखी, इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से आभार , सादर स्नेह
हटाएंदेर से आने के लिए खेद है, विचारणीय भूमिका के साथ पठनीय रचनाओं की सूचना देते सूत्र ! आभार मुझे भी शामिल करने हेतु !
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद अनीता जी ,इस स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए दिल से शुक्रिया , सादर नमस्कार
हटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति। विस्तृत व चिंतनीय भूमिका के साथ सरस एवं पठनीय रचनाओं का चयन। ध्यान आकृष्ट करता चर्चा अंक का शीर्षक। सभी चयनित रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंसहृदय धन्यवाद सर ,आपकी प्रतिक्रिया हमेशा मेरा मनोबल बढाती हैं , सादर नमस्कार
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