सादर अभिवादन ।
शुक्रवार की प्रस्तुति में आप सभी विद्वजनों का हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन । आज की चर्चा का आगाज़ कुंवर नारायण जी की लेखनी से निसृत 'कविता के बहाने' कवितांश से -
कविता एक उड़ान है चिड़िया के बहाने
कविता की उड़ान भला चिड़िया क्या जाने!
बाहर भीतर, इस घर, उस घर
कविता के पंख लगा उड़ने के माने
चिड़िया क्या जाने?
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आज की चयनित रचनाएँ. ...
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लोकतन्त्र से है बँधा, जन-जन का अनुबन्ध।
राजतन्त्र की क्यों यहाँ, फैलाते दुर्गन्ध।।
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देशभक्ति के रंग में, बनकर रहो शरीफ।
पाक-चीन की छोड़ दो, करना अब तारीफ।।
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खाते हो जिस देश का, उससे करो न घात।
नहीं करो विष वमन को, करो नेह की बात।।
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जटिलताएँ जीवन कीं
सापेक्ष आलोकित हैं
अस्तित्त्व-वेदना का
पराभवपरायण होना
अनंत और विस्तृत है
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कैसे तय कर दी तुमने
उसकी नियति अकेले-अकेले?
कैसे भूल गए तुम
कि वह मेरी भी संतान है?
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कामना शुभता की
ह्रदय में संजोये
अभिनन्दन है
आदिशक्ति का,
कर कमल
पग धरो दिव्यता !!
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जब हो आचरण ऐसा कि
पद चिन्हों पर चल कर जिसके
गर्व होने लगे श्रद्धा में सर झुके
सब कहें किसके अनुयाई हो |
बात यही आकर्षित करती सब को
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अंंधेरे का खौफ बढ़ गया इतना
रात को दिन बना रहा आदमी।
दिये का चलन खत्म हो चला समझो
बल्ब को सूरज बना रहा आदमी।
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ख़ेमे में बँटा इंसान
मोम-सा पिंघलने लगा
मुँह पर बँधा है मास्क तभी
कुछ लोग
आँखों पर सफ़ेद पट्टी बाँधने लगे
और कहने लगे
देखना हम इतिहास रचेंगे
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"बस दो सौ- तीन सौ रुपये का जुगाड़ और हो जाए तो हम लोग अपने गाँव के लिए निकल चलेंगे। पता नहीं, हालत कब तक सुधरेगी और कब काम-धंधे शुरू होंगे! कब तक लोगों से दान-दक्षिणा लेते रहेंगे! मेहनत से जो मिलता है, मुझे तो उसी में सुख मिलता है संतोषी!" -गणेश ने अपनी पत्नी से कहा।
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न शिकवा न मुस्कान
न गीत न संवाद,
सालों से उसके शुष्क अधरों के
रिक्त सम्पुट
यूँ ही मौन पड़े हैं !
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काले ,घुंघराले बादलों
के बीच सूर्योदय और सूर्यास्त !
उनकी रिमझिम बरसती
जल बूंदों की सरसराहट से भरा
एक भीगा हुआ दिन !
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मेरी खुशकिस्मती है कि अरविन्द कुमार ने मुझे भी इस चाय के लायक समझा और आज शाम को अपने साथ चाय पर आमंत्रित किया है उनके साथ मुख्य विषय शारीरिक फिटनेस होगा साथ में एक दो गीत भी उनके अनुरोध पर प्रस्तुत किये जाएंगे !
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भीषण ताप सहे वसुधा ने
पतझड़ जबसे आया था
खोकर अपना रूप सलोना
मन उसका मुरझाया था।
फिर बसंत आया चुपके से
बिगड़ी थी जो बात बनी
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माथे पर तिलक-चंदन लगाये बिल्कुल प्रथम पूज्य गणेश देवता जैसे लंबोदर विश्वनाथ साव दुकान के दूसरे छोर पर गद्दी संभाले ग्राहकों से पैसा बंटोरने में व्यस्त दिखते। वे अपने इस कार्य में ऐसे निपुण थे कि दुकानदारी के वक़्त सगे-संबधी भी सामने आ खड़े हों तो उसे न पहचान पाए, किन्तु साव की काक दृष्टि इतनी पैनी थी कि कोई भी ग्राहक बिना पैसा दिये भीड़ का लाभ उठा यहाँ से खिसक नहीं सकता था।
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उदियांचल से सूर्य झांकता,
पनिहारिन सह चिड़िया चहकी।
कुहकी कोयल डाल-डाल पर,
ताल-ताल पर कुमुदिनी महकी।
निरभ्र आसमां खिला-खिला सा,
ज्यों स्वागत करता हो रवि का
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सरहदों से तुम्हारा आना
पलाश के फूल की तरह
वहीँ तो खिलते हैं
उमीदों की तपती दोपहर में
तुम आओगे तो न…
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आपका दिन मंगलमय हो..
फिर मिलेंगे…
🙏🙏
"मीना भारद्वाज"
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