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सोमवार, अक्तूबर 12, 2020

'नफ़रतों की दीवार गहरी हुई' (चर्चा अंक 3852 )

शीर्षक पंक्ति: डॉ. जेन्नी शबनम जी की रचना से।
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सादर अभिवादन। 
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 
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करोना काल में दुनिया
कभी ख़ुद से कभी औरों से
लड़ते बहुत बीमार हुई,
पढ़ेंगे बच्चे आगे-आगे 
आर्मेनिया-अज़रबैजान में 
किसकी करारी हार हुई। 
#रवीन्द्र_सिंह-यादव 
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 आइए पढ़ते हैं आज की कुछ पसंदीदा रचनाएँ-
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सम्बन्धों का है यहाँ, अजब-गजब संसार।
घरवाली से भी अधिक, साली से है प्यार।।
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अपनी बहनों से नहीं, भाई करते प्यार।
किन्तु सालियों से करें, प्यारभरी मनुहार।।
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फैला अपने मृदु स्वप्न पंख
नीद उड़ी क्षतिज के पार।
अधखुले दृगों के मधु कोष-में
किसने  उड़ेल दिया खुमार।।
-- 

 

नैन में मोती समेटे
ऊपर से दृढ  दिखती
रात दिवस अन्यचित्तता
भाग्य लेखनी लिखती
कितने युगों तक करेगी
फटे हुए को कारी।।

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तस्वीर क्या बोले 

 

मन खुद  बेचैन हो उस ओर ही

झुक जाता हैं

सम्पुट कुछ कहना चाहते हैं

उसे प्रिय  की है तलाश

बहुत काल से |

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कुछ अल्फ़ाजों में बयां कर पाती हूँ सुकूं
कुछ क़ागजों पर लिख कर पाती हूँ सुकूं
कुछ परछाईयां रखी बसा दिल,आँखों में 
कुछ धड़कन,सांसों में छुपा पाती हूँ सुकूं ।
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नफ़रतों की दीवार गहरी हुई   
ढ़ह न सकी, उम्र भले ठिठकी रही   
हो सके तो एक सुराख़ करना   
जमाने की ख़ातिर लाज रखना!
--
 
मेघ सांवरे उमड़े, बरसेंगे
खुशियों से आंचल भर देंगे

कोपल-कोपल मुस्काई धरती
फिरसे अंखुआए अहसासों में
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अनमोल होते हैं वे पल जिनमें  तुम्हारे भावों की वीथियों में 
 अपने आपको तुम्हारे करीब महसूस किया ।  रोबोट सी 
यान्त्रिक बनी हमारी जि़दगी में भावनाओं का मोल कम है

या फिर उनके लिए वक्त की कमी लेकिन बहुत बार
यह कमी खलती भी है । 

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 जिद्दी जमीं
भला, वो बीज, सोता है कब!
वो गगण फिर, रक्ताभ होता है जब,
अंकुरित होते हैं, प्राण कितने!
फिर से, विहँस पड़ती है,
जिद्दी जमीं!
--


अगर एक बार लड़ाई 
शुरू हो जाय,
तो उसे बढ़ाते ही रहते हो,
ख़त्म ही नहीं करते.

--

 

दूर तक 
एक 
अंतहीन ख़ामोशी, न तुम हो 
खड़ी उस पार,
न मुझे 
किसी का अब 
रहा इंतज़ार, 
दोनों
पार सिर्फ़ सूखते जलधार।
--  

अवसाद

 कई बार यह दबी इच्छाओं का आकलन होता है तो कई बार एक भावुक मन का अपराधबोध..... यह किसी भी काम की अति हो सकता है....यह जीवन की एकरसता हो सकता है.......यह निहायत कंफर्ट जोन हो सकता है.....यह अत्यधिक खुशी भी हो सकता है......यह किसी पर निर्भरता हो सकता है ...यह आसक्ति हो सकता है....ऐसी ही अस्थायी मनस्थिति का नाम अवसाद है। यह स्थायी रुप से डेरा न जमाये, हमे यह प्रयास करना होता है। 
--
आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगली प्रस्तुति में।  
#रवीन्द्र_सिंह-यादव 
--

12 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर प्रस्तुति.मेरी कविता शामिल करने के लिए आभार.

    जवाब देंहटाएं
  2. धन्यवाद रवीन्द्र जी मेरी रचना शामिल करने के लिए |

    जवाब देंहटाएं
  3. सुन्दर सार्थक चर्चा प्रस्तुति ।चर्चा में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए सादर आभार ।

    जवाब देंहटाएं
  4. सभी पोस्ट एक से बढ़कर एक हैं रवींद्र जी ...बहुत खूबसूरत संकलन

    जवाब देंहटाएं
  5. उपयोगी और पठनीय लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
    आपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।

    जवाब देंहटाएं
  6. विविध रंगों को बिखेरता हुआ, ख़ूबसूरत प्रस्तुति एवं संकलन का अंक, मुझे जगह देने के लिए हार्दिक आभार - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं

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