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गुरुवार, दिसंबर 17, 2020

चर्चा - 3918

 आज की चर्चा में आपका हार्दिक स्वागत है 

"क्या बोलना जोखिम भरा हो गया है? क्या आपको सरकार के बारे में बोलते वक्त डर लगता है? क्या आप हिसाब करने लगते हैं कि किस हद तक बोला जाए ताकि सरकार और सोशल मीडिया की नाराजगी न झेलनी पड़े? क्या आपको लगता है कि आपको टारगेट किया जाएगा?" - ये कुछ सवाल हैं जो रवीश कुमार ने अपनी पुस्तक 'बोलना ही है' में हम सबसे पूछे हैं, लेकिन हम जवाब देना नहीं चाहते। हम भी भीष्म पितामह से होते जा रहे हैं क्योंकि हमारी निष्ठाभी राष्ट्र की बजाए राष्ट्राध्यक्ष से है और जब निष्ठाएं राष्ट्र की बजाए राष्ट्राध्यक्ष से होंगी तब महाभारत के होने पर हैरानी नहीं होनी चाहिए । देश इस समय नाजुक दौर से गुजर रहा है जो हम सबके लिए चिंता का विषय होना चाहिए ।

चलते हैं चर्चा की ओर 

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 गीत

 " ठिठुर रही है सबकी काया"

 (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

सूरज को बादल ने घेरा,
शीतलता ने डाला डेरा,
ठिठुर रही है सबकी काया।
सितम बहुत सरदी ने ढाया।।
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आगमन ऋतु शीत का है ,शीलत बहे बयार।
तन-मन रोमांचित प्रिये! , करता तेरी पुकार।
कब तक विरहा विरह में , निरखे चंद चकोर।।०१।।
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 बहुत भिन्न हैं वे तुम लोगों से 
तुम्हारे लिए वाकचातुर्यता  शग़ल है 
तलाशते हैं वे संबल तुम्हारे कहे शब्दों में 
तुम षड्यंत्र की कोख  से
नित नए  पैदा करते हो शकुनी,
हुज़ूर!समय पर फेंके पासे कैसे छिपाओगे?
--

अपनी नैराश्य की तस्वीरें
चौराहों से उतारकर
अपनी दयनीय छवियों को
स्वयं तोड़ता,
अपने सपनों को ज़िदा रखने के लिए
अपनी बात ख़ुद फरियाने 
एकजुट हुआ किसान
  'अजूबा'
 क्यों नज़र आता है??
--
ब़ंद कबूतरखाने से जब, इक तोता निकला तो
सब के सब ने एक स्वर कहा, ये कैसे, ये कैंसे ?
एक ज्ञानी सज्जन, जो समीप ही खडे थे बोले,
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मन की किताबों पर, कोई लिख जाए कैसे!
मौन किस्सों का हिस्सा, बन जाए कैसे!
कपोल-कल्पित, सारगर्भित सा मेरा तराना,
आसां नहीं, किसी और का हो जाना!
--

प्रीत के अहसास मन को
सींचते हैं आस बनकर।
और अंकुर बन पनपते
भावना के बीज झरकर।
चित्र से आभास तेरा
स्पर्श आलिंगन कराता।
बंद पलकों में………
--
टूटे हुए डिम्ब खोल, कुछ - -
तिनके, धूसर रंगविहीन,
संपर्क भी क्रमशः
कपूर की तरह
हो जाते हैं
विलीन,
यही
--

दुःखों का अंबार बौना नज़र आता है

करती अकाट्य कष्टों का निदान है

प्रार्थना...

--

आम आदमी अब सिर्फ रोता है.....

हल छोड़ सड़क पर निकल किसान 
माँग रहा समर्थन और सम्मान 
लेकिन बहुतों की नज़रों में 
वो माओवादी होता है। 
--

सोईं फ़ूल पे 

ओढ़ मोती चूनर 

ओस की बूंदें 

बही शीतल हवा 

विदा हो ग  बूँदें। 

--

धन्यवाद 

दिलबागसिंह विर्क 

12 टिप्‍पणियां:

  1. सभी को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा ।
    मेरी रचनाओं को यहाँ स्थान देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
    रचना

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति, मेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।

    जवाब देंहटाएं
  3. मनोहारी चर्चा के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ।

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत-बहुत आभारी हूँ आदरणीय सर।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  6. बहुत सुन्दर और सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
    आपका आभार आदरणीय दिलबाग सिंह विर्क जी।

    जवाब देंहटाएं
  7. सराहनीय भूमिका के साथ बेहतरीन संकलन आदरणीय सर।मेरे सृजन को स्थान देने हेतु सादर आभार।

    जवाब देंहटाएं
  8. सुन्दर प्रस्तुति, आभार विर्क सहाब आपका और सभी स्नेही दोस्तों का।🙏

    जवाब देंहटाएं
  9. सभी कृतियाँ अद्वितीय हैं, हमेशा की तरह प्रभावशाली अंक, विभिन्न रंगों को बिखेरता हुआ, मुझे शामिल करने के लिए हार्दिक आभार - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं

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