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सोमवार, अप्रैल 11, 2022

'संसद के दरवाज़े लाखों चेहरे खड़े उदास' (चर्चा अंक 4397)

 शीर्षक: आदरणीया 

डॉ.(सुश्री)शरद सिंह जी की रचना से। 

सादर अभिवादन।  

चर्चा मंच की सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।  

आइए पढ़ते हैं चंद चुनिंदा रचनाएँ- 

आरती 

"माँ दुर्गा जी की वन्दना" 

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

महागौरी का है आराधन,

कर देता सबका निर्मल मन,
जयकारे को रोज लगाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।

*****

नए ट्विस्ट के साथ एक प्राचीन नीति-कथा 

ऐ पागल नवयुवक ! तू इस तपती दोपहरी में अपने शरीर के केवल मध्य-भाग को केले के पत्तों से ढक कर ये केलारोपण क्यों कर रहा है?’

उस नवयुवक ने जिज्ञासु पथिक के दो पंक्ति के प्रश्न का उत्तर देते हुए अपने खानदान का पिछले ढाई हज़ार साल से भी पुराना इतिहास सुनाना प्रारंभ कर दिया.  

नवयुवक ने पथिक को बताया कि उसके 111 वें दादा जी श्री संतोषानंद, भगवान बुद्ध के और पाप नगरी के राजा हवस सिंह के, समकालीन थे.

*****

ऐसे सिखाएँ हिंदी 

हिमाँशु या हिमांशु - इसे अनुस्वार बिना कैसे लिखें हिमान्शु या हिमाम्शु तय नहीं है। सारा दारोमदार निर्भर करता है कि आप शब्द को कैसे उच्चरित करते है। अब यह तो वैयक्तिक समस्या हो गई न कि व्याकरणिक। इसीलिए शायद वर्गेतर वर्ण वाले शब्दों  में अनुस्वार को पंचमाक्षर से विस्थापित करने का प्रावधान नहीं है। यदि इसी मान लिया जाए तो हिमांशु के अन्य दोनों रूप ही गलत हैं.

*****

" पत्नी वियोग में विक्षिप्त एक पति की व्यथा "

हँसी,ख़ुशी सब ग़ायब व्यर्थ लगे जीवन
यादों की तपिश में तेरे निश-दिन जलता तन

किस कुसूर की सजा में दे गईं आँसू औ तड़पन
नींद न आये सारी-सारी रात आँखें रहतीं नम हरदम ।

*****

पालना झूल रहे रघुराई 

रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नझूल रहे इठलाई । 

कोई चले घुटनेकोई बकइयाँकोई भागि लुकाई ॥ 

राजा दशरथ चुमकारि बोलावेंतबहूँ  आवें भाई । 

हारि गए राजन जब पकरतमातु लियो बुलवाई ॥ 

*****

 एक गीतिका-रामनवमी पर

वेद भी करते रहे जिसका सदा गुणगान

सत्य,शाश्वतऔर सनातन रूप वह अभिराम

राम विनयी और विजयी ,रहे अपराजेय

मन्थराओं का सियासत में नहीं अब काम

*****

ग़ज़ल | हमको जीने की आदत है | 

डॉ (सुश्रीशरद सिंह | नवभारत 

बोरी  भर के  प्रश्न उठाए,  कुली  सरीखे  आज
संसद के  दरवाज़े  लाखों  चेहरे  खड़े  उदास।

जलता  चूल्हा  अधहन  मांगेउदर पुकारे  कौर
तंग  ज़िन्दगी कहती अकसर-‘तेरा काम खलास!’

*****

.. कोंचती है अंतर्मना अंतर्मन... 

साहिब ! .. सोच रहे होंगे आप भी .. 

कर दिया खराब हमने छुट्टी के दिन भी, 

आपका दिन, आपका मन, आपका सारा दिनमान। 

अब .. हम भी भला अभी से क्यों हों परेशान !? 

है ना !? .. हम तो हैं सुरक्षित (?) .. शायद ... 

*****

दौड़ आंचल तेरे जब मैं छुप जाता था 

फूल खिल जाते थे कूजते थे बिहग 

माथ मेरे फिराती थी तू तेरा कर 

लौट आता था सपनों से  मां मेरी 

मिलती जन्नत खुशी तेरी आंखों भरी 

दौड़ आंचल तेरे जब मै छुप जाता था 

क्या कहूं कितना सारा मै सुख पाता था 

*****

फिर मिलेंगे। 

रवीन्द्र सिंह यादव 

5 टिप्‍पणियां:

  1. जी ! सुप्रभातम् सह नमन संग आभार आपका अपने मंच पर आज की अपनी अतुल्य प्रस्तुति में मेरी बतकही को भी अवसर देने के लिए ...

    जवाब देंहटाएं
  2. वैविध्यतापूर्ण रचनाओं से सज्जित बहुत सुंदर, रोचक अंक ।
    मेरी रचना को स्थान देने के लिए आभार और अभिनंदन आदरणीय ।
    सभी को हार्दिक शुभकामनाएं 💐💐

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छी चर्चा प्रस्तुति।
    आपका बहुत बहुत आभार,
    आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।

    जवाब देंहटाएं

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