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रविवार, मई 08, 2022

"पोषित करती मां संस्कार"(चर्चा अंक-4423)

सादर अभिवादन 

रविवार की प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है 

(शीर्षक आदरणीया उर्मिला जी की रचना से 

और भूमिका आदरणीय शास्त्री सर और उर्मिला जी दोनों की रचना से)


जो सन्तानों को दुनिया के

सारे मर्म सिखाती है। 

ममता जिसके भीतर होती

माता वही कहाती है।।

--

"मां" सृष्टिकर्ता की एक ऐसी रचना जिसमें समस्त सृष्टि ही समाहित है

पिता हमेशा साधन देता

मां ही देती संपूर्ण आकार

सद आचरण प्रेम सिखाती

देती दंड तो करती दुलार.

सही दिशा उत्कृष्ट गुणों से

पोषित करती मां संस्कार

माता यदि खुद संस्कारी नहीं होती तो परिवार की दशा और दिशा दोनों बिगड़ जाता है।

आप सभी को मातृत्व दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

माता का आशीर्वाद सब के जीवन में बना रहे इसी कामना के साथ चलते हैं आज की कुछ खास रचनाओं की ओर....


------------------------गीत "मातृ-दिवस पर विशेष" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)



वेदों और पुराणों ने,

माँ की महिमा को गाया है,

माता के ऋण से कोई भी,

उऋण नहीं हो पाया है,

माता ही वाणी को,

उच्चारण का भेद बताती है

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पोषित करती मां संस्कार


दशानन के पिता ऋषि थे

पर मिला नहीं शिक्षण उदार

आसुरी वृत्तियों से संपन्न

माता थी उनकी बेशुमार.

दारा शिकोह को भाई ने मारा

कितना कलंकित था वो प्यार

शाहजहां को कैद किया था

ऐसा विकृत था परिवार.


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“किताबें” [हाइबन]



दिसम्बर की कड़ाके ठंड और उस पर ओस भरी हवाओं के साथ रुकती थमती बारिश…पिछले एक हफ़्ते  से बिछोह की कल्पना मात्र से ही आसमां के साथ मानो बादल भी ग़मगीन हैं ।       

                              जीवन का एक अध्याय पूरा हुआ । दूसरे चरण के आरम्भ के लिए बहुत कुछ छोड़ना है । जिसकी कल्पना 

हर पल छाया की तरह मेरे साथ रही । गृहस्थी के गोरखधंधे भी अजीब हैं  पिछले पाँच सालों से कम से कम सामान रखने के


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संकेत




यों ही अकारण, अकस्मात 

चैत्र-बैसाख महीने के अंबर में

दौड़ती बिजली का कौंधना

गरजते बादलों का झुंड में बैठ

बेतुकी बातों को तुक देते हुए

भेद-भाव भरी तुकबंदियाँ गढ़ना 

यही खोखलापन लीलता है


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 हँसना है मजबूरी।


सच कहते हो, मैं हँसता हूँ ,

हँसना  है  मजबूरी।

धुक-धुक दिल की मेरी सुध लो,

इसकी साध अधूरी।


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सतसंग


चित्रांगदा की दोस्तों का एक ग्रुप बन गया है ।महिने में एक बार किटी- पार्टी होती है और हर इतवार को वे सब किसी न किसी के घर पर सतसंग के लिए एकत्रित होती हैं और वहाँ पर किसी एक ग्रंथ पर आध्यात्मिक चर्चा होती है।

 फ़िलहाल उसी कड़ी में आज का सतसंग चित्रांगदा के घर पर है और श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय का अध्ययन करते हुए मीना जी ने जिनको संस्कृत का व शास्त्रों का बहुत ज्ञान है, सधे व शुद्ध उच्चारण से पढ़ा-

"भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च । अहंकार इत्तीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।।

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शब्द वही होते हैं




शब्द वही होते हैं 
जुड़ते हैं तो वाक्य से वाक्या भी बनते हैं 
बुन लिए जाते हैं 
तो गर्माहट देते हैं 
गुन  लिए जाते हैं 
तो ज्ञान का अथाह सागर

------------------          भावों की गलियाँ - नीतू ठाकुर 'विदुषी'


 लिखना बैठी छोड़ कलम जब 
मौन साधना लीन हुई भावों की गलियाँ तब बहकी दीन हुई फिर दीन हुई।। ----------------------------------                      अस्तित्व की तलाश..

अनस्तित्व कोई स्थिति नहीं 

यह मात्र शब्द भी नहीं 

बल्कि कहानी है अनवरत अजस्र 

अंतहीन शृंखला की

जिसमें कड़ियों की तरह जुड़ते-टूटते हैं असंख्य अस्तित्व 

 विस्मृति और स्मृति के अथाह सागर में 


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लिखना नही छोड़ा है।



तुमसे ये किसने कहा 
कि मैंने लिखना छोड़ दिया?
प्रयास करने का ढिंढोरा पीट कर प्रयास करना छोड़ दिया!
अरे! ये अफ़वाह किसने उड़ाई 
कि मैंने लिखना छोड़ दिया?
अब ये जज़्बात यूँ ही कहीं आवारो
कि भाँति फिरा थोड़ी किया करते हैं,
ये तो समय के साथी हैं 
बदलते स्वरूप के साथ 
आया-जाया करते हैं।


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भीषण गर्मी और पानी चोर
दो दिन से नल से पानी की एक बूँद भी नहीं टपकी है।  ये पानी पिलाने वाला विभाग भी बोलता कुछ और है और करता कुछ और ही है।  इधर हमको कहा एक दिन की परीक्षा है और उधर दो दिन तक बिठा के रख दिया।  कहाँ तो एक दिन परीक्षा देने में ही हालत ख़राब हो जाती है और यहाँ दो दिन तक परीक्षा में बिठाये रखा। अब जब घर में पानी नहीं होगा तो इस भीषण गर्मी में पियेंगे क्या, भांडे-बर्तन धोना और नहाना-धोना कैसे होगा? पेड़-पौधों को पानी देने की बात तो भूल ही जाइये। आजकल शादी-ब्याह भी खूब हो रहे हैं और कोरोना से मुक्ति क्या मिली कि भीड़-भाड़ भी जमकर हो रही है।------------------------------चलते- चलते मातृत्व दिवस पर "धरती मां" को समर्पित मेरी एक रचना

 धरती माँ"


एक शिशु के माँ के गर्भ में आने के पहले से ही  माँ का तन-मन दोनों उसके पालन-पोषण  के लिए  तैयार होता है। वो अपने अंग के एक अंश से एक जीव को जन्म देती है और अपने लहू को दूध में परिवर्तित  कर उसका पोषण करती है, उसी प्रकार हमारी "धरती" ही वो गर्भगृह है जहाँ जीवन संभव है।इसीलिए तो हम पृथ्वी को भी "धरती माँ " ही कह कर बुलाते हैं। पृथ्वी और प्रकृति एक ही सिक्के के दो पहलू ही तो है,अगर प्रकृति जीवित है तो पृथ्वी पर जीवन संभव है। 

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आज का सफर यही तक,अब आज्ञा दे 
आपका सफर मंगलमय 
कामिनी सिन्हा 









9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति में मेरी ब्लॉग पोस्ट शामिल करने हेतु आभार।
    दिवस विशेष की सभी को हार्दिक शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत बेहतरीन चर्चा प्रस्तुति |
    आपका आभार कामिनी सिन्हा जी !
    सभी पाठकों और साहित्यकार मित्रों को मातृदिवस की शुभकामनाएँ|

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर सूत्रों की जानकारी देती चर्चा में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए सादर आभार कामिनी जी ! दिवस विशेष की सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ ।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुंदर भूमिका पर सज़ा आज का मोहक संकलन। समस्त रचनाकारों, पाठकों एवं इस संकलन के सूत्रधार को मातृ दिवस की बधाई और शुभकामनाएँ!!!!

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  5. सुंदर लिंक्स संयोजन !! मेरी कृति को यहाँ स्थान देने हेतु ह्रदय से धन्यवाद कामिनी सिन्हा जी | मातृत्व दिवस की हार्दिक शुभकामनायें !!

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  6. बहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति. मेरी रचना को शामिल करने का बहुत शुक्रिया कामिनी जी. लभी को मातृ- दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ 💐💐

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  7. बहुत सुंदर संकलन सभी रचनाएँ बहुत ही बढ़िया।
    मेरे सृजन को स्थान देने हेतु हृदय से आभार।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  8. बेहतरीन चर्चा संकलन
    समस्त मातृसत्ता को नमन

    जवाब देंहटाएं
  9. आप सभी स्नेहीजनों को हृदयतल से धन्यवाद एवं आभार 🙏

    जवाब देंहटाएं

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