सादर अभिवादन
मंगलवार की विशेष प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है
आज की विशेष प्रस्तुति उन्हें समर्पित है जिन पर माँ सरस्वती की अति कृपा रही है
जिन्हें "प्रज्ञा" उपनाम से भी सम्मानित किया गया है
जी हाँ, आप सभी समझ ही गए होंगे हमारी प्रिय आदरणीया कुसुम कोठारी "प्रज्ञा" जी
व्याकरण की दृष्टि से मुझे कविता के विषय में लेस मात्र भी ज्ञान नहीं है
उसके प्रकार और विधाओं से भी मैं अनजान हूँ
मेरा मन तो कविताओं में छुपे भाव ही मोह लेती है इसलिए मैं ये कह सकती हूँ कि
कुसुम जी की कविताएं अति मनमोहक, मनभावन होती है।
मेरी नजर में कुसुम जी
उनकी कविताओं में पुराने युगों की कावित्रीयो के कविताओं की सुगंध होती है
उनकी अधिकांशतः रचनाएँ हमें प्रकृति के करीब ले जाती है।
सागर-नदियाँ,पर्वत-बदल,बरखा-बिजली,सावन-झूले,सूरज चंदा
वन-उपवन,पुष्प-भौरे सभी को उन्होंने अपने शब्दों से बांध रखा है।
श्रृंगार रस में डूबकर गोरी के श्रृंगार का वर्णन करें तो, पायल-बिंदिया, झुमके-झांझर से
गोरी के रूप को ऐसे सजाती है कि मन मंत्रमुग्ध हो जाता है।
विरह वेदना लिखने बैठती है तो राधा,मीरा यशोधरा,द्रोपदी सभी की पीड़ा को चंद शब्दों में समेट लेती है।
मैं इतनी सबल नहीं हूँ कुसुम जी कि-आपकी कविताओं का विश्लेषण कर सकूँ
बस,अपनी नज़र से आपकी रचनाओं को देखने का प्रयास कर रही हूँ
और उसका आनंद भी उठा रही हूँ।
कोई त्रुटि हो तो क्षमा चाहती हूँ।
आपको और आपकी लेखनी को मेरा सत-सत नमन
माँ सरस्वती आप पर अपनी कृपा दृष्टि बनाएं रखें यही कामना करती हूँ।
-------------------------
हमेशा की तरह शुरू करते हैं एक हृदयस्पर्शी प्रार्थना से
मनुष्य सब कुछ करने मे है सक्षम ,
ये बताने आया प्रत्यक्ष मानव बन ।
बस हमें अपने समर्थ को पहचानने की जरुरत है
बड़े ही सुंदर और सहज शब्दों में वर्णन किया है आदरणीया कुसुम जी ने
वो है निर्लिप्त निरंकार वो प्रीत क्या जाने
ना राधा ना मीरा बस " रमा " रंग है राचे
आया था धरा को असुरो से देने मुक्ति
आया था आते कलियुग की देने चेतावनी
आया था देने कृष्ण बन गीता का वो ज्ञान
आया था समझाने कर्म की महत्ता
ना राधा ना मीरा बस " रमा " रंग है राचे
आया था धरा को असुरो से देने मुक्ति
आया था आते कलियुग की देने चेतावनी
आया था देने कृष्ण बन गीता का वो ज्ञान
आया था समझाने कर्म की महत्ता
---------------------------------------
परमात्मा कहे या प्रकृति
दोनों एक ही सिक्के के दो पहलु है
हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम
शब्दों मे वर्णन असम्भव।
शब्दों मे वर्णन असम्भव।
लेकिन आपके लिए असंभव नहीं है आपकी लेखनी तो प्रकृति के इर्द-गिर्द ही घुमती है
अप्रतिम सौन्दर्य
हिम से आच्छादित
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ
मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया
उस पर ओझल होते
भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ
जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका
कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ
मानो घूंघट में छुपाती निज को
धुएं सी उडती धुँध
----------------------------
हां मै पागल हूं
मां हूं ना!!
मां हूं ना!!
माँ पागल ही तो होती है,अपनी लहू से सींचती है और उफ्फ भी नहीं करती....
रचना कार हूं मैं ।
खिला रहे शाश्वत वो
मेरी बगिया मे
बागबां हूं मै ।
सम्मान देता भगवान
सम, मूझ से कहता
पालन हार हूं मैं।
----------------------------
सपने सुहाने लड़कपन के मेरे नैनों में डोले बहार बनके
ऐसा कोई नहीं जिनकी आँखों में बचपन बुढ़ापे तक नहीं बसा हो
ख्वाबों के दयार पर एक झुरमुट है यादों का
एक मासूम परिंदा फुदकता यहाँ वहाँ यादों का ।
सतरंगी धागों का रेशमी इंद्रधनुषी शामियाना
जिसके तले मस्ती मे झुमता एक भोला बचपन ।
--------------------------
प्रेम राधा का हो या मीरा का विरह वेदना तो दोनों को सहनी पड़ी है
बस,राधा श्रृंगार कर श्याम की राह तकती थी
और मीरा जोगन बन मूरत निरखती थी
राधा और मीरा के प्रेम और विरह को बहुत ही सुंदर शब्दों में पिरोया है आपने
ये दोनों कविताएं मुझे बेहद प्रिय है
राधा हरी की अनुराग कथा
विश्व युगों-युगों तक गावे गाथा
विश्व युगों-युगों तक गावे गाथा
अकुलाहट के पौध उग आये
दाने जो विरहा के बोये
गुंचा-गुंचा "विरह"जगाये
हिय में आतुरता भर आये।
विरह वेदना सही न जावे
कैसे हरी राधा समझावे
स्वयं भी तो समझ न पावे
उर " वेदना "से है अघावे।
-----------------------------------
मीरा जैसी प्रीत निभाए
एक मृदा की मूरत से
दाने जो विरहा के बोये
गुंचा-गुंचा "विरह"जगाये
हिय में आतुरता भर आये।
विरह वेदना सही न जावे
कैसे हरी राधा समझावे
स्वयं भी तो समझ न पावे
उर " वेदना "से है अघावे।
एक मृदा की मूरत से
मांगी नेह निशानी निष्ठुर
पाहन प्रतिमा कब चाही ।
उड़ते पाखी नील गगन के
बिन जल तड़पे हिय माही ।।
पाहन प्रतिमा कब चाही ।
उड़ते पाखी नील गगन के
बिन जल तड़पे हिय माही ।।
प्रभु मुझ मे ज्वाला भर दीजे
अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे
अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजे
------------------------------------
हां, ऐसी बेटी जो मां लक्ष्मी का स्वरूप तो हो मगर,
उसमें मां काली की शक्ति भी हो
आंख उठे जो ले बेशर्मी
उन आंखों से ज्योति छीन लूं
बन अम्बे दानव मन का
शोणित नाश करू कंसो का
अबला, निर्बल, निस्सहाय नारी का
संबल बनु दम हो जब तक
उन आंखों से ज्योति छीन लूं
बन अम्बे दानव मन का
शोणित नाश करू कंसो का
अबला, निर्बल, निस्सहाय नारी का
संबल बनु दम हो जब तक
----------------------------------
जीवन कभी नहीं थकता
धनधोर अंधेरी रात भी हो तब भी सूर्योदय का होना अटल है
थके मन में ओज का संचार करती बहुत ही सुन्दर सृजन
नव सूर्योदय नव गतिबोध
ज्यों चल देता राहगीर
अविचल अविराम
पाने मंजिल फिर
यूंही सदा आती है सुबहो
फिर ढल जाने को
यूं ही सदा ढलता सूर्य
नित नई गति पाने को।
--------------
एक पेड काटने वालों पहले दस पेड़ लगाओ फिर हाथ मे आरी उठाओ
प्रकृति प्रिया वृक्षों के दर्द को कैसे अनदेखा करें
मां को काट दोगे
माना जन्म दाता नही है
पर पाला तुम्हे प्यार से
ठंडी छांव दी प्राण वायु दी
फल दिये
पंछीओं को बसेरा दिया
कलरव उनका सुन खुश होते सदा
ठंडी बयार का झोंका
जो लिपटकर उस से आता
अंदर तक एक शीतलता भरता
तेरे पास के सभी प्रदुषण को
----------------------
शायद ही ऐसा कोई रचनाकार हो जिस की कलम ने शहिदों को नमन ना किया हो
और यदि नहीं किया है तो यकीनन वो सच्चा रचनाकार क्या इन्सान भी नहीं है...
शहिदों को नमन करती बहुत ही सुन्दर रचना
नमन करें उनको जो आजादी की नीव का पत्थर बने
मातृभूमि की बलिवेदी पे शीश लिये, हाथ जो चलते थे
हाथों मे अंगारे ले के ज्वाला में जो जलते थे
अग्नि ही पथ था जिनका, अलख जगाये चलते थे
जंजीरों मे जकड़ी मां को आजाद कराना था
हाथों मे अंगारे ले के ज्वाला में जो जलते थे
अग्नि ही पथ था जिनका, अलख जगाये चलते थे
जंजीरों मे जकड़ी मां को आजाद कराना था
-----------------------------
और चलते-चलते एक लाजवाब ग़ज़ल
वैसे बेहद मुश्किल काम है अंधों को आईना बेचना
और घाटे का सौदा भी है
मगर,हमारी सखी ने इस काम को बाखूबी अंजाम दिया है
फिर से आज एक कमाल करने आया हूं
अंधो के शहर मे आईना बेचने आया हूं।
संवर कर सुरत तो देखी कितनी मर्तबा शीशे मे
आज बीमार सीरत का जलवा दिखाने आया हूं।
अंधो के शहर मे आईना बेचने आया हूं।
संवर कर सुरत तो देखी कितनी मर्तबा शीशे मे
आज बीमार सीरत का जलवा दिखाने आया हूं।
--------------------------
आज का सफर यही तक
अगली फुर्सत में मिलते है किसी और प्रिय रचनाकार से
तब तक आज्ञा दे
आपका दिन मंगलमय हो
कामिनी सिन्हा
चर्चा की विशेष प्रस्तुति में बहन कुसुम कोठारी जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ और बधाइयाँ|
जवाब देंहटाएंसाहित्यकार विशेष के व्यक्तित्व और कृतित्व को पाठकों तक पहुंचाने का कामिनी सिन्हा जी का प्रयोग बहुत अच्छा लगा|
सहृदय धन्यवाद सर, आप का आशीर्वाद पाकर प्रयास सार्थक हुआ 🙏
हटाएंहृदय से आभार आपका आदरणीय।
हटाएंकुसुम जी के साहित्य सृजन की समीक्षा करती बहुत सुंदर, सटीक भूमिका प्रस्तुत की है आपने प्रिय कामिनी जी।
जवाब देंहटाएंआज का अंक एक से बढ़कर एक रचनाओं, जिसमें आदरणीय कुसुम जी की लेखनी ने जीवन के सभी रंगों का समावेश किया है, से सुशोभित है, इतना सुंदर अंक लाने के लिए आपका आभार।
कुसुम जी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई 💐💐❤️❤️
हृदय को आलोडित करते आपके उद्गारों से लेखन यात्रा सार्थक हुई, प्रिय जिज्ञासा जी।
हटाएंसस्नेह।
बहुत सुंदर और सटीक समीक्षा।
जवाब देंहटाएंकुसुम जी बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं 💐💐
हृदय से आभार आपका सखी।
हटाएंसस्नेह।
कामिनी जी बधाई स्वीकारें ,बहुत मेहनत से आपने आज की चर्चा सजाई है | कुसुम जी की कविताओं का विश्लेषण बहुत पसंद आया |
जवाब देंहटाएंजी सचमुच कामिनी जी बधाई की पात्र हैं श्रमसाध्य कार्य के लिए।
हटाएंआपका बहुत बहुत आभार अनुपमा जी।
सस्नेह।
बहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति कामिनी जी । आ.कुसुम जी लेखनी से निःसृत रचनाएँ एक से बढ़ कर एक हैं उनकी जितनी सराहना करें कम होगी । उनकी रचनाओं पर आधारित आज की विशेष प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर लगी ।
मीना जी आपका हृदय तल से आभार, आपकी उपस्थिति हर पोस्ट पर देख कर मन अभिभूत हुआ।
हटाएंआपका स्नेह और सराहना दोनों ही मेरे लेखन के लिए नव उर्जा है।
सस्नेह।
सराहना सम्पन्न प्रतिक्रिया से मेहनत सार्थक हुआ,आप सभी को हृदयतल से धन्यवाद एवं नमन 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार आपका भारती जी।
हटाएंसस्नेह आभार आपका।
हटाएंमैं निशब्द हूँ कामिनी जी, पर साथ ही अभिभूत भी आपने जो मेरे बारे में लिखा है वो ऐसा है जैसे माँ शारदा आपकी लेखनी के माध्यम से आशीर्वाद के पुष्प बरसा रही है, आपने स्नेह अतिरेक में अतिश्योक्तिपूर्ण महिमा मंडन किया है जितना नहीं हूँ उससे कहीं ज्यादा आपने सम्मान ,स्नेह और प्रशंसा दी है, जिसे मैं कभी नहीं भुला सकती।
जवाब देंहटाएंआपकी श्रमसाध्य श्र्लाघ्य प्रस्तुति के लिए मैं सदा आपकी और चर्चा मंच की आभारी रहूंगी आप नहीं जानती आपके अतुल्य शब्दों ने मुझे आसमान का एक चमकता कोना दे दिया है। मैं लिख जरूर रही हूँ पर सच शब्द खो गये हैं, आपकी ये प्रस्तुति मेरे साहित्य जीवन का ध्रुव तारा है।
आपको आभार कहना बहुत कम होगा बस स्नेह, स्नेह और स्नेह।
आपकी हर रचना पर भाव टीका बहुत सटीक और हृदय को छूने वाला है।
सभी रचनाकारों पाठक वर्ग को हार्दिक और आत्मीय आभार।।
वाह!बहुत बढ़िया संकलन।
जवाब देंहटाएंकुसुम दी का लेखन साहित्य को एक सौगात है।
इनकी लेखनी पर लिखना इतना आसान कहा?प्रकृति को ज्यों सीने में बैठा रखा हो और बुदबूदा रहे हों भाव। यथार्थ के कशीदे भी कम नहीं काढ़ते।
समाज की उद्दंडता पर लिखी गजले स्वतः बोलती है। अनेकानेक बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ आदरणीय कुसुम दी जी।
सादर