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शनिवार, मई 14, 2022

'रिश्ते कपड़े नहीं '(चर्चा अंक-4430)

सादर अभिवादन। 

शनिवारीय प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। 

शीर्षक व काव्यांश आदरणीय दिगम्बर नासवा जी की रचना 'रिश्ते ' से 

रिश्ते कपड़े नहीं जो काम चल जाए
निशान रह जाते हैं रफू के बाद
 
मिट्टी बंज़र हो जाए तो कंटीले झाड़ उग आते हैं
मरहम लगाने की नौबत से पहले
बहुत कुछ रिस जाता है
 
हालांकि दवा एक ही है
 
वक़्त की कच्ची सुतली से जख्म की तुरपाई
जिसे सहेजना होता है तलवार की धार पे चल कर

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
--

गीत "क्यों राम और रहमान मरा?" 

ऐसा कोई शख्श नहीं,
जो आसमान से आया है।
ऐसा कोई नक्श नहीं,
जो नहीं किसी को भाया है।।
--

संभालना होता है कांपते विश्वास को
निकालना होता है शरीर में उतरे पीलिये को 
 
रात के घने अन्धकार से 
सूरज की पहली किरण का पनपना आसान नही होता
 सांप तुम अब तक सभ्य नहीं हुए
शहर में बसना तो दूर की बात
आस्तीनों में छिपना तक तुम्हें नहीं आया
केंचुली बदलके भी जो थे वही के वही रह गए
केंचुली छोड़ बहरूपिया बनना भी तुम्हें नहीं आया
तुम्हें नहीं आया फुफकार से एक क़दम आगे
यह समय है गुलगुली जमीन पर 
न्याय के प्रश्नों के बीज बोने का 
जब भविष्य के कान तैयार हो रहे हैं 
तब हम जायज़ प्रश्नों की 
हत्या में क्यों लगे हैं 
--

अकर्मण्यता की आदत से, है कितना लाचार आदमी !
जकड़े घुटने पकड़ के बैठा , ढूंढ रहा उपचार आदमी !
पलकें उठाती है
और सोये हुए  खाब मेरे
फिर जी उठते हैं ... !!
हवा का इक झोंखा
सहलाकर माथे को
दूर कर देता है
माथे की शिकन
--
जब-जब छाये अँधेरा,
बिजली की तरह कौंधना 
गहरे ताल में पड़े उतरना 
तो कमल की तरह खिलना 
बहुत कुछ बनना ।
भुलावे में मत रहना ।
चौकस रहना ।
आज लिखेंगे बचपन पर 
थोड़ा यादों से लेंगे, थोड़ा शायद खुद बुनकर 
जो भी होगा , सादा होगा 
जैसा वो था, वैसे सीधा
टेढ़ेपन में तक भोले थे 
ना साज़िश, ना रंजिश लेके
छोटापन पर सपने बड़े थे 
कोयलरि उड़ि बैठी गौआ की सिंगिया, 
खुसुर फुसुर करे बाति ।
सुनो मोरी गुइयाँ बगिया दुआरे, 
आई कुआँ की बराति ॥
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‘झर गए पात..
बिसर गयी टहनी
करुण कथा जग से क्या कहनी।’

लेकिन बाबा मैं आज करुण कथा जग से कहूँगा। कहूँ भी क्यों नहीं? कितना रुलाया था आपने हम सबको! सन 2006 की बात है। नवभारत में सम्पादक रहने के दौरान कोसोवो (पूर्व युगोस्लाविया) गया था। यूएन मिशन की रिपोर्टिंग करने बाद मैं नईदुनिया में सम्पादक बना तब इस यात्रा पर किताब छपी

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इंसानियत की कीमत (लघुकथा)

      शाम का वक्त था। मनसुख बैसाखी एक तरफ रख कर सड़क के किनारे दूब पर बैठ गया। उसे यहाँ सुकून तो मिला ही, साथ ही उसे यह उम्मीद भी थी कि शाम को यहाँ आने वाले लोगों से कुछ न कुछ मिल भी जायगा। दिन भर वह समीपस्थ भीड़-भाड़ वाले बाज़ार में था, लेकिन उसे अब तक भीख में मात्र तीन-चार रुपये मिले थे। यहाँ दूसरी तरफ सड़क थी तो इस तरफ चार-पांच फीट मुलायम दूब वाले भाग के बाद चार फीट का फुटपाथ व उससे लगी हुई छोटी-बड़ी दुकानें थीं। इन दुकानों पर आने वाले ग्राहक सामान्यतया सम्पन्न वर्ग के लोग हुआ करते थे। यह छोटा-सा बाज़ार शहर के सबसे पॉश इलाके के पास स्थित था। नगरपालिका ने विशेष रूप से इस बाज़ार की रूपरेखा तैयार की थी। 
आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति' 

11 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्दर रचनाओं से सजा सुन्दर अंक! मेरी लघुकथा 'इंसानियत की कीमत' को इस सुन्दर अंक का हिस्सा बनाने के लिए आ. अनीता जी का हार्दिक आभार!

    जवाब देंहटाएं
  2. आभार आपका रचना पसंद करने के लिए !

    जवाब देंहटाएं
  3. हार्दिक धन्यवाद अनीता जी मेरी कृति को यहॉँ स्थान दिया |लिंक संयोजन बहुत बढ़िया है |

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुन्दर गुलदस्ते जैसी चर्चा प्रस्तुति।
    आपका आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुंदर सूत्रों का चयन ।
    मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका आभार अनीता जी ।

    जवाब देंहटाएं
  6. भावभीनी चर्चा आज की ... आभार मेरी रचना को शामिल करने के लिए ...

    जवाब देंहटाएं
  7. आभार मेरी रचना शामिल करने के लिए बढिया सकलन

    जवाब देंहटाएं
  8. Bhaai Please Mere Ko Ek Backlink de de. Comment me maine apna Blog Publish kiya hain.

    जवाब देंहटाएं

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