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शुक्रवार, मई 20, 2022

'कुछ अनकहा सा'(चर्चा अंक-4436)

सादर अभिवादन। 

शुक्रवारीय प्रस्तुति में आपका हार्दिक स्वागत है।

शीर्षक व काव्यांश आदरणीया शुभा मेहता जी की रचना 'कुछ अनकहा' से -

कुछ अनकहा सा ...
 रह जाता है 
  जिंदगी यूँ ही 
   गुज़रती जाती है 
  उस अनकहे की टीस 
   सदा उठती रहती है 
    क्यों रह जाता है 
    कुछ अनकहा ...
     काश , कह दिया होता 

आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
--

दोहे "जीवन के हैं खेल"

अगर मनुज के हृदय कामर जाये शैतान।
फिर से जीवित धरा परहो जाये इंसान।।

कमी नहीं कुछ देश मेंभरे हुए गोदाम।
खास मुनाफा खा रहेपरेशान हैं आम।।
 ये दर्द तो ना मिलता 
           शायद मिला ही नहीं 
          कोई हमज़ुबाँ ..
           या कभी सोचा ही नहीं
           कि कह डालें .....
             ये अनकहा ....
              अब कहाँ......
              शायद ...साथ ही 
            ले जाएँगे ये अनकहा .....।
'तुमने रात में क्या खाया था?'
मरीज़ ने जवाब दिया -
'रात को दाल और जली रोटी खाई थी.
हकीम साहब ने उसको नुस्खा लिख कर दे दिया.
मरीज़ जब दवाखाने में दवा लेने गया तो दुकानदार ने उस से कहा -
'सोने से पहले अपनी दोनों आँखों में इसे लगा लेना.'
--
तन्वंगी सरिता रोती
नीर बहेगा क्या
वसुधा का आँचल जर्जर 
बचा रहेगा क्या
तर्पित मन मेरे।।
फिर एक गीत लिख तू।
सिलवट भरे पन्नों पर जो गीली-सी लिखावट है,
मन की स्याही से टपकते, ज़ज़्बात की मिलावट है।

पलकें टाँक रखी हैं तुमने भी तो,देहरी पर,
ख़ामोशियों की आँच पर,चटखती छटपटाहट है ।
शल्य होता अब जरूरी
धर्म अंधा आँख पाए
टोटके का मंत्र मारो
रात भी फिर मुस्कुराए
नींद से अब जागती सी 
ये सुबह नव रीत लाई।।
--
इन तन्हाइयों की अब कोई सहर नहीं l
साँझ सी डूबती धड़कनों में ख्वाब नहीं ll

काफिर की अनसुनी फ़रियाद थी जो कभी l
विलीन हो गयी पत्थरों के बीच आज कही ll
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम की आग को चाहे जैसे भी बुझा-दबा दिया गया हो पर उसकी तपन को अंग्रेज ताउम्र महसूस करते रहे ! भारतीय जांबाजों का हौसला, उनका रणकौतुक, देश के लिए कुछ भी कर गुजरने, किसी भी हद तक चले जाने का माद्दा, उनकी दिलेरी, उनकी निर्भीकता ने अंग्रेजों की नींद हराम कर उनके मन में एक डर सा स्थापित कर दिया था ! वे सदा किसी अनहोनी की वजह से आशंकित व भयभीत से रहने लगे थे ! इसी डर के चलते उनकी निर्दयता, नृशंसता, दमन, जुल्म ओ सितम दिन ब दिन बढ़ते ही जा रहे थे ! उनके अत्याचारों की बातें सुनकर आज भी रूह कांप जाती है। उनकी खब्त या झक्क का कोई पारावार नहीं था ! उसी सनक का एक उदाहरण अपनी दुर्दशा की गाथा का बखान करता, एक पेड़ आज भी जंजीरों में कैद खड़ा है ! बात बहुत ही अजीब है, पर सच है !
माली को कहते हुए आज उसने सुना है, कि अब वो पहले जैसी नहीं रह गई है, आज उसका आखिरी दिन है, क्योंकि ऋतु परिवर्तित हो चुकी है और उम्रदराज होने से उसकी रेशमी पत्तियाँ झड़ रही हैं, अतः उसे जड़ से उखाड़ कर खत्म किया जाएगा उसकी जगह कोई नई घास ले लेगी । दूब तो बस अपने माली को आखिरी स्नेह दे रही है 
--
आज का सफ़र यहीं तक 
@अनीता सैनी 'दीप्ति'

14 टिप्‍पणियां:

  1. समाचार मिला मंच पर प्रतिक्रिया नहीं हो रही।
    शायद कोई तकनीकी समस्या हो सकती है।
    अभी देखे।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति

    जवाब देंहटाएं
  3. प्रिय अनीता मेरी रचना से चर्चा का श्रीगणेश करने हेतु तहेदिल से आभार । बहुत ही उम्दा प्रस्तुति ।

    जवाब देंहटाएं
  4. कई रचनाएँ पढ़ आई ।बहुत सारगर्भित और वैविध्य अंक सजाया है अनीता जी । मेरी रचना को भी शामिल किया ।आपका बहुत आभार।

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत उपयोगी सूत्र मिले पढ़ने के लिए।
    आपका आभार @अनीता सैनी 'दीप्ति' जी!

    जवाब देंहटाएं
  6. शानदार शीर्षक, शानदार लिंक्स।
    सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
    सभी लिंक बेहतरीन।
    सभी रचनाकारों को बधाई।
    मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
    सादर सस्नेह।

    जवाब देंहटाएं
  7. अत्यंत सराहनीय एवं पठनीय सूत्रों से सजी सुंदर प्रस्तुति। मेरी रचना शामिल करने के लिए अत्यंत आभार एवं शुक्रिया अनु।

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति एक से बढ़कर एक लिंक आपने देने का प्रयास किया है बहुत-बहुत आभार

    जवाब देंहटाएं
  9. रोचक एवं सुन्दर प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत खूबसूरत चर्चा संकलन

    जवाब देंहटाएं

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