नमस्कार , एक बार फिर हाज़िर हूँ मंगलवार की चर्चा ले कर ..चर्चा मंच ऐसी वाटिका है जहाँ जाने पहचाने चेहरों के साथ नए चेहरों का भी परिचय मिलता है … ब्लॉग जगत में ऐसे मोती छिपे हैं जिनकी चमक स्वत: ही दिखाई दे जाती है ..बस इस समंदर में गोता लगना पड़ता है ..खैर आप तो नए मोतियों की चमक से आनंदित होईये .. और बताइए कि मोती असली ही हैं न ? सबसे पहले वाटिका ब्लॉग से चलते हैं आज की चर्चा पर -- |
मृत शरीर कितने ही प्रिय व्यक्ति का क्यों न हो बदबू देने लगता है थोड़े समय बाद किसी टूटे हुए रिश्ते को अन्तिम सांस तक संभाल कर जीने की चाह से बड़ी नहीं होती कोई यातना । |
मनोज जी विचार ब्लॉग पर लाये हैं एक ऐसी रचना जो मजबूर करती है सोचने पर … “ काम करती माँ “ कविता के आगे की कड़ी है यह झींगुर दास .. झींगुर दास ने देख लिए तीन पुश्त उस मालिक की देहरी के मालिक भी परलोक गए बच्चे उनके परदेश में हैं अब झींगुर करेगा क्या, खाएगा क्या? |
यूँ ही कभी कभी ठन्डे पड़ जाते हैं मेरे हाथ तितलियाँ सी यूँ ही मडराने लगती हैं पेट में |
हरकीरत हीर जी की हर रचना ज़िंदगी का अनुभव होती है …एक एक लफ्ज़ महसूस होता हुआ स लगता है … न जाने खुदा कब लिबास उतार दे .. झूठ ..... कुछ यूँ टँगा रहता है लोगों की जुबाँ पर के हर रोज़ उतारती हूँ ज़िस्म के .... |
आज आपके समक्ष लायी हूँ कविताओं के धनी एस० एन० शुक्ला जी को , फिलहाल कई कविताएँ पढ़ डाली हैं मैंने और बाकी भी पढ़ने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही हूँ … जो अभी तक पढ़ी हैं उनमें से वीरवर कर्ण और प्रश्न ने बहुत प्रभावित किया है ..यहाँ उनकी एक और रचना लायी हूँ - कुछ लोग हवा के साथ चले, धारा के साथ बहे होंगें लोगों की नजरों में शायद वे ही तैराक रहे होंगे मैं सदा चला विपरीत धार, मझधार-पार से क्या लेना मैं विद्रोही बन जिया सदा, फिर जीत-हार से क्या लेना. |
जिंदगी से भरपूर इस लड़की की मृत्यु की खबर अखबार में पढ़ी ...किसी की नजर में फ़ूड पोइजनिंग का मामला था , तो कोई इसे जानबूझकर जहर खाना बता रहा था ...उस दिन अखबार में 4 लड़के -लड़कियों की आत्महत्या की खबर थी , भुलाये नहीं भूलता ...भरे-पूरे परिवार में किस तरह लोंग अकेले पड़ जाते हैं कि उनके पास आत्महत्या के सिवा चारा नहीं होता …. वाणी शर्मा जी अपने मन की बात इस रचना के माध्यम से कहना चाहती हैं -- जीने दो इन्हें अनन्य अद्भुत शांति सिमटी हो हमारी आँखों में अंतस तक भिगोती स्निग्धता जो देती रहे इन्हें साहस जीने का हौसला |
अतुल प्रकाश त्रिवेदी जी कॉल सेंटर में काम करने वाली लड़कियों की दिनचर्या को शब्द दे रहे हैं --गुड़ मॉर्निंग अभी अभी नभ में टूटा कोई तारा हमने नहीं देखा नदी के तट पर हर शाम की तरह खुद का प्रतिबिम्ब निहारता |
निवेदिता श्रीवास्तव जी दानवीर कर्ण के विषय में अपनी भावना व्यक्त कर रही हैं …सूर्य पुत्र या सूत पुत्र "कर्ण" आज सूर्य की , धरा पर झांकने को तत्पर,किरणों से मैं सूर्यपुत्र कुछ कहना चाहता हूँ मैंने तो कभी न पाली किसी के प्रति अपने मन में कोई दुर्भावना ,फिर - मुझे मिली किस अपराध की सजा ! |
कुश्वंश जी महाभारत के पत्रों को आज के युग में किस सन्दर्भ में देख रहे हैं ज़रा गौर करें --अंजाम नहीं मालूम महाभारत की द्रोपदी का प्राणांत कोई नहीं जानता, और जानता भी है तो पढने जैसा कुछ नहीं होगा उसमे, क्योकि द्रोपदी महाभारत समाप्त होने पर भी नहीं मरी, आज भी जिन्दा है, |
आशुतोष मौर्य जी कहते हैं “ मेरे मित्र सोमू दा की एसएमएस के जरिए भेजी गयी ये कुछ कविताएं बेहद प्यारी लगती हैं मुझे। इन कविताओं की सबसे खास बात यह है कि सोमू दा इन्हें अपनी मूल कविता संग्रह में कहीं नहीं रखते। ये कविताएं उन्होंने संदेश के निमित्त ही लिखी हैं। तो लीजिए पढ़िए उनके सोमू डा की रचनाएँ .. जो सच ही एक से बढ़ कर एक हैं ..सन्देश कविताएँ धरती और स्त्री में एक समानता है कि वह धरती की तरह है और एक अन्तर कि वह धरती नहीं वह एक समय में कई धुरी पर घूमती है कई बार तय करती है दूरी वहां तक जहां तरतीब में नहीं हैं चीजें घर जैसी छोटी दुनिया में कोई स्त्री कितने अद्भुत तरीके से धरती बनी रहती है |
देवेन्द्र गौतम जी की एक खूबसूरत गज़ल -- डूबने वाले को डूबने वाले को तिनके के सहारे थे बहुत. एक दरिया था यहां जिसके किनारे थे बहुत. एक तारा मैं भी रख लेता तो क्या जाता तेरा आस्मां वाले तेरे दामन में तारे थे बहुत. |
आनंद द्विवेदी जी बहुत से नज़ारे दिखा रहे हैं वेटिंग रूम से - प्रतीक्षालय में होना सुखद है, बनिस्बत होने के किसी प्रतीक्षा में .. हजारों चेहरे |
और इसके आगे की कड़ी पढ़िए ..वापसी .. प्रतीक्षा के बाद याद आ रहा है मुझे गुज़रते हुए इस अनिश्चितकालीन प्रतीक्षा से कहा था कभी |
मुझे नहीं पता कि देश का सबसे बड़ा लेबर बाज़ार कहाँ है लेबर बाज़ार कहाँ है लेकिन जब देखता हूं दिल्ली, नोएडा और गाज़ियाबाद के बीच नो मैन्स लैंड खोड़ा के चौक पर हर सुबह |
स्वराज्य करुण जी लाये हैं एक खूबसूरत गज़ल - ज़िंदगी की नदी में हमने जिसे अपने खून-पसीने से खूब सींचा है , नज़दीक उसके जा भी न सकें , ये कैसा बगीचा है ! कालीन जो तुमने बनायी, बिछी है उनके पाँव में , घर में तुम्हारे यहाँ महज काँटों का गलीचा है ! |
दिलबाग विर्क जी की हाईकू पढ़िए साहित्य सुरभि पर
|
अना जी बता रही हैं कि आज बचपन कैसे बस्तों के बोझ तले दब रहा है - ये बचपन बस्तों के बोझ तले दबा हुआ बचपन बसंत में भी खिल न पाया ये बुझा हुआ बचपन बचपन वरदान था जो कभी अति सुन्दर पर अब क्यों लगता है ये जनम - जला बचपन |
ये जिंदगी, पता है क्या ? न खत्म हो, सज़ा है क्या ? है आँख क्यूँ भरी भरी ? किसी ने कुछ कहा है क्या ? |
सौरभ चौधरी “सुमन “ अपनी रचना के माध्यम से उस नन्हे शिशु के मन की बात बता रहे हैं जिसने अभी इस दुनिया में प्रवेश किया है … वो नन्हा क्या सोच सकता है .. ज़रा आप भी पढ़िए --- " माँ "...!!! कितना खुश था मैं माँ जब मैं तेरे अन्दर था माँ इस दुनिया से बचाकर कर रखा था तुमने कितने प्यार से पाला था तुमने |
क्या कहूँ तेरी आँखों के बारे मे जब भी इन्हें देखता हूँ तो लगता है इन आँखों मे झील की गहराई है इन आँखों मोती की सच्चाई है |
डा० कविता किरण जी अपनी गज़ल में कह रही हैं ---अमृत पी कर भी है मानव मरा हुआ अमृत पीकर भी है मानव मरा हुआ बरसातों में ठूंठ कहीं है हरा हुआ करके गंगा-स्नान धो लिए सारे पाप सोच रहे फिर सौदा कितना खरा हुआ |
चादर सी ,चूनर सी- चैत की चंदनिया झांझर सी,झूमर सी - चैत की चंदनिया महुआ की मधुता सी, मनभाती-मदमाती छिटके गुलमोहर सी - चैत की चंदनिया अनपढ़ - अनाड़ी सी ,सल्फी सी-ताड़ी-सी मादक-सी,मनहर सी - चैत की चंदनिया |
सामने तालाब पर भोरे-भोर आया था वह झलफल होने तक इंतजार करता रहा न जाने किसका न जाने क्यों |
रेखा श्रीवास्तव जी उम्र के उस पड़ाव पर आकर दर्द महसूस कर रही हैं जब शरीर थकने लगता है …बच्चे सब घोंसलों से निकल अपने आकाश में उड़ने लगते हैं ..अपना नया आशियाना बना लेते हैं -- दर्द किसी सूने घर का तेरी आवाज सुनी तो सुकून आया दिल को, वर्ना तुझे देखे हुए तो जमाना गुजर गया। कभी गूंजती थी किलकारियां इस आँगन में, वर्षों गुजर चुके है इसमें अब पसर गया। |
इस तरह अंतर जगत में साथ में मिलकर चले हम , दूर भी तो रह न पाए , पास आ पाए नहीं . |
मृदुला हर्षवर्धन जी न जाने क्यों कुछ चुप चुप सी हैं और कह रही हैं कि -आज मन बहुत उदास है ... तो चलिए कुछ उदासी दूर कर दी जाये .. आज मन बहुत उदास है सब कुछ तो है, जाने फिर किस की प्यास है भीड़ में अकेलेपन का अजीब सा एहसास है शुष्क आँखों के किसी कोने में, टूटी हुई आस है |
मेरी छाती में लोटती रहती है धूप दिन के दूसरे पहर तक; और फिर - सरकते हुए धरती के सुदूर कोने में चली जाती है ! |
गोपाल तिवारी जी एक बता रहे हैं कि राजनीति में अपने आकाओं के चक्कर लगाने से कुछ न कुछ तो हासिल हो ही जायेगा --- हास्य कविता राजनीति में जो अपने आका का परिक्रमा लगाएगा कभी नही तो कभी पूजा जाएगा और जो अकडन दिखलाएगा अवसर को गंवाएगा |
तुम्हारी ख्वाबों की दुनिया का कैनवस कितना विस्तृत है है ना ........... उसमे प्रेम के कितने अगणित रंग बिखरे पड़े हैं |
वर्षा सिंह खूबसूरत रचना से बता रही हैं कि मीठे बोल मन में कैसे अपार सुख को भर देते हैं ---बोल प्यार के कितना तरसा है मन मीठे बोल तुम्हारे सुन कर मेरी बोल तुम्हारे मिल जाएँ मन कि कलियाँ खिल जाएँ |
वटवृक्ष पर रश्मि प्रभा जी प्रस्तुत कर रही हैं आनंद द्विवेदी जी को -- उनकी एक गज़ल खत लिख रहा हूँ तुमको-- न दर्द, ... न दुनिया के सरोकार लिखूंगा, ख़त लिख रहा हूँ तुमको, सिर्फ प्यार लिखूंगा ! तुम गुनगुना सको जिसे , वो गीत लिखूंगा , हर ख्वाब लिखूंगा, .. हर ऐतबार लिखूंगा ! |
कुर्सी मुकुट और दरबार रोटी पेटों की सरकार कुर्सी भरे पेट का राज रोटी भूखों की आवाज़ कुर्सी सपनों का संसार रोटी मजबूरी-बेगार |
चन्द्र भूषण मिश्रा “ गाफिल “ जी की खूबसूरत गज़ल …चर्चामंच पर पहली बार पेश है बस वही दूर हुआ जा रहा मंजिल की तरह मैँने चाहा है बहुत जिसको जानो-दिल की तरह। बस वही दूर हुआ जा रहा मंजिल की तरह॥ जुल्फ़-ज़िन्दाँ में हूँ मैं कैद एक मुद्दत से, कोई आ जाये मेरे वास्ते काफ़िल की तरह। |
ममता माँ की निःस्वार्थ सतत ही है अनमोल ****************** गोद समेटे धरा और जननी यही शाश्वत |
सर्वप्रथम कृष्ण मनुष्य फिर भगवान् कभी कुशल राजनेता कभी सारथी , ..... कभी सार कभी सत्य |
मनोज ब्लॉग पर श्यामनारायण मिश्र जी का खूबसूरत नवगीत गूंजता होगा नाम तुम्हारा घाटियों में गूंजता होगा तुम्हारा नाम। दूर प्राची के अधर से सारसों की दुधिया ध्वनि चू रही होगी। |
यौवन जैसा “रूप” कहाँ है, खुली हुई वो धूप कहाँ है, प्यास लगी है, कूप कहाँ है, खरपतवार उगी उपवन में। पंछी उड़ता नीलगगन में। |
और इस सीख के साथ ही देखिये क्या हाल है गर्मी का ? पढ़िए कुछ दोहे --दोहे - दो गंजे गर्मी के कारण हुए, हाल बहुत बेहाल। बाल वाङ्मय लिख रहे, मुँडवा करके बाल।। सिर घुटवा गंजे हुए, दोनों ब्लॉगर साथ। रवि जी ने रक्खा हुआ, कन्धे पर है हाथ।। |
चर्चा के समापन तक बहुत से लिंक्स दिए पर अभी भी लगता है … अभी कुछ और ....बाकी है .. समीर लाल जी की एक खूबसूरत गज़ल .. इन्हीं राहों से गुज़रे हैं मगर हर बार लगता है अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है हमेशा ज़ख़्मी दिल को दोस्तो ये खौफ रहता है अभी कुछ और,अभी कुछ और ,अभी कुछ और बाक़ी है |
लीजिए मैंने तो सारे मोती रख दिए आपके सामने … आपको कौन कितना आकर्षित करता है , यह आप ही बताएँगे … आपके सुझाव और प्रतिक्रिया का हमेशा इंतज़ार रहता है … आप जाँचिये – परखिये और मैं चली नए मोती इक्कठा करने … अरे अगले मंगलवार को भी तो लाने हैं न कुछ नए चेहरे …चलते चलते एक हास्य रचना यहाँ भी -- संगीता स्वरुप |