फ़ॉलोअर



यह ब्लॉग खोजें

शनिवार, सितंबर 10, 2016

"शाब्दिक हिंसा मत करो " (चर्चा अंक-2461)

मित्रों 
शनिवार की चर्चा में आपका स्वागत है। 
देखिए मेरी पसन्द के कुछ लिंक।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 

--
--

ग़ज़ल 

"लक्ष्यहीन संधान न कर" 

(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’) 

भौंहें वक्र-कमान न कर
लक्ष्यहीन संधान न कर
ओछी हरक़त करके बन्दे
दुनिया को हैरान न कर
दीन-धर्म पर करके दंगे
ईश्वर का अपमान न कर... 
उच्चारण पर poet kavi 
--
--

तुम्हें देखना है 

सुकवि कोई पहचाना नहीं जाये- 
कोई बात नहीं, 
चारण का अभिनन्दन हो नहीं जाये- 
तुम्हें देखना है। 
साधु कोई पूजा नहीं जाये- 
कोई बात नहीं, 
असाधु का वंदन हो न जाये... 
Jayanti Prasad Sharma 
--

अमावस की रात में सितारे न ढूंढिए 

जले घर की राख़ में अंगारे  न ढूढ़िए 
अमावस की रात में सितारे न ढूढ़िए -
प्रतीक्षा ही अच्छी है घावों को भरने की 
कभी उजड़े दयारों में, बहारें न ढूंढिए ... 
udaya veer singh 
--
--

ऐ दिल है मुश्किल !! 

अपनी ख़ामोशी से आकर,मेरी ख़ामोशी सिल 
कहते नहीं बनता अब ऐ दिल है मुश्किल... 
Rhythm of words...परParul Kanani 
--

कुछ पागलपन भी जरुरी था....!!! 

कुछ पागलपन भी जरुरी था....  
मैं भी तुम्हारे साथ, 
कुछ नादानियाँ करना चाहती थी, 
बारिश में छाते को फेंक को कर, 
तुम्हारे साथ भीगना चाहती थी... 
महकती भीगी हवाओं में, 
तुम्हे महसूस करना चाहती थी... 
'आहुति' पर Sushma Verma 
--
--

बहेलिया 

Sunehra Ehsaas पर 
Nivedita Dinkar 
--

राहुल@2.0 की खाट चर्चा 

कहावत है कि सियासत में जब कुछ नया हो तो उसकी पहल करने वाले नेता के बारे में एक बार ज़रूर सोचना चाहिए। राजनीति के अभिनव प्रयोग की शुरूआत हमेशा नेता करते हैं, और अमूमन जनता उस पहल पर अपनी मुहर लगाकर उसे पॉप्युलर बनाती है या खारिज़ कर देती है... 
गुस्ताख़ पर Manjit Thakur 
--
--

दिल है छोटा -सा 

मेरे मन की पर अर्चना चावजी  
Archana Chaoji 
--
--
--
--
कातिल को कातिल कहो, रवायत नहीं है। 
फ़क़त मुर्दों से ज़माने को शिकायत नहीं है!! 
मुर्दों के शहर में रहकर भी शोर क्यों करते हो, 
यह कब्र में सोये हुए बंदों से अदावत नहीं है... 
--
शरारती बन्दर : 
संसद के अन्दर  
समाचार पढ़ा- संसद की लाइब्रेरी में बन्दर घुसा, वहाँ उसने आधा घंटा बिताया | 
बन्दर वास्तव में बहुत खुराफाती जीव होता है | तभी कहा गया है- बन्दर की बला तबेले के सिर | करे कोई भरे कोई |और फिर यह भी कहा गया है कि बन्दर के हाथ में उस्तरा | पता नहीं क्या कर बैठे ? आजकल तो लोकतंत्र है और बंदरों के हाथ में उस्तरा ही क्या, देश आ गया है | पता नहीं, क्या कर बैठेंगे | भगवान ही मालिक है...
झूठा सच - Jhootha Sach 
--
अपना-अपना आकाश ...  
धारणा, कांच की पारदर्शी दीवार जैसी होती है ! जब तक उससे खुद टकरा नहीं जाते तब तक पता ही नहीं चलता कि दीवार है ! सबकी अपनी-अपनी कांच की दीवारे है ... 
" भ्रष्टाचार का वायरस " 
--
--
--
याद  
खुद को भूला
तुझको याद किया
कब जी पाया ।

याद जो आती
आँसुओं की बारिश
थम न पाती ।

कभी हंसाती
कभी खूब रुलाती
याद कमाल ।

दिलबाग विर्क 
साहित्य सुरभि 

5 टिप्‍पणियां:

"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर

केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।