स्नेहिल अभिवादन।
जीवन की गतिविधियों को सीमित करने आ गयी सुहानी सर्दी की ऋतु सिमट जाने को घर के अंदर। ऊपर से बेमौसम बरसात भी आ गयी ओलावृष्टि का क़हर लिये।
दादी-नानी कहतीं थीं-
"सर्दियों में चोट अपना असर कुछ ज़्यादा ही दिखाती है।"
किसान को डराता है पाला / तुषार का डर सर्दियों में अक्सर। प्रकृति का सौंदर्य अनुपम छटाओं के साथ उमड़ पड़ता है अनमोल उपहार बनकर। बर्फ़बारी के अनूठे दृश्य वादियों में प्राकृतिक सुषमा के मनोहारी चित्र उभारते हैं। आइये सर्दियों का स्वागत एहतियात के साथ करें।
अब पढ़िए मेरी पसंद की कुछ रचनाएँ-
-अनीता सैनी
**
गीत
जीवन की गतिविधियों को सीमित करने आ गयी सुहानी सर्दी की ऋतु सिमट जाने को घर के अंदर। ऊपर से बेमौसम बरसात भी आ गयी ओलावृष्टि का क़हर लिये।
दादी-नानी कहतीं थीं-
"सर्दियों में चोट अपना असर कुछ ज़्यादा ही दिखाती है।"
किसान को डराता है पाला / तुषार का डर सर्दियों में अक्सर। प्रकृति का सौंदर्य अनुपम छटाओं के साथ उमड़ पड़ता है अनमोल उपहार बनकर। बर्फ़बारी के अनूठे दृश्य वादियों में प्राकृतिक सुषमा के मनोहारी चित्र उभारते हैं। आइये सर्दियों का स्वागत एहतियात के साथ करें।
अब पढ़िए मेरी पसंद की कुछ रचनाएँ-
-अनीता सैनी
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गीत
"कंस आज घनश्याम हो गये"
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक)
उच्चारण
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एक महीना, चार तारीख़ें
मेरे हाथ से बजरंग बली का परसाद भी खाएगा.
रजनी बिटिया ! ये क्या हो गया?
तेरी तपस्या क्या अकारथ चली गयी?
मेरा बबुआ ! मेरा लाल ! मेरा छौना !
मुझे छोड़ कर मत जा बेटा !
लौट आ बेटा ! लौट आ ----- !
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एक महीना, चार तारीख़ें
मेरे हाथ से बजरंग बली का परसाद भी खाएगा.
रजनी बिटिया ! ये क्या हो गया?
तेरी तपस्या क्या अकारथ चली गयी?
मेरा बबुआ ! मेरा लाल ! मेरा छौना !
मुझे छोड़ कर मत जा बेटा !
लौट आ बेटा ! लौट आ ----- !
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एन.आर.सी है कि बवाल !
(लघुकथा)
"अरे, कइसे निकाल देंगे हमको!"
"हमरे बाप-दादा यहीं रहे हमेशा और हमें कइसे निकाल देंगे!"
"का कउनो हलुआ है का!"
"अउर सभही का यही रहेंगे ?"
कहती हुई फूलन अपना विरोध दर्ज़ कराती है।
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दो असंगत लोग
एक लाचार कंधा
एक बेपरवाह सर.
दो मिथ्या तर्क
एक स्त्री की श्रेष्ठता
एक पुरुष की पूर्णता.
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भूलता ही नहीं
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क्या साथ लेकर आए,
साथ क्या ले जाएंगे जी,
बेकार है मोहमाया,
उलझ न जाइए।1।
श्रद्धा से ही श्राद्ध की उत्पत्ति हुई है।
श्रद्धा के बिना कैसा श्राद्ध ?
श्रद्धा के बिना कैसा श्राद्ध ?
लेकिन यह हमारे समाज
की एक कुरीति है
जिसका जीते जी कभी सम्मान नहीं किया जाता ,
उसका श्राद्ध बड़े धूमधाम से किया जाता है ,
ऐसा दिखावा किस काम का?
ऐसा दिखावा किस काम का?
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पूस की ठिठुरती रात में
बैठ जाते अलाव जलाकर
जिनका न कोई ,ठौर -ठिकाना
ना बिस्तर ,ना कंबल
आग सेकते..
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क्यों आश्चर्य हो जब आपके तार्किक होने
और यह पूछने को कि 'क्या यह कोई न्यायिक प्रक्रिया है'
गुनाह मान लिया जाय. शिक्षकों के आन्दोलन को,
दरकिनार किया जाय और छात्रों के फीसवृद्धि की
हरियाणा तूफान के नाम से पहचाने जाने वाले
इस क्रिकेटर को क्रिकेट पिच पर कभी भी
रन आउट होते हुए नहीं देखा गया।
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कुहासे का स्वेटर
इस क्रिकेटर को क्रिकेट पिच पर कभी भी
रन आउट होते हुए नहीं देखा गया।
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कुहासे का स्वेटर
ठंड गरीबों के लिए सबसे बड़ी मुसीबत है , भिक्षुओं को तो कंबल मिल जा रहे हैं। सामाजिक संस्थाएंँ अपने मंच से उन्हें गर्म वस्त्र दे स्वयं को संवेदनशील कहलाने का प्रमाण पत्र समाचार पत्रों के माध्यम से ले ही लेती हैं, परंतु वे लोग जो श्रम के पुजारी हैं और किसी के समक्ष हाथ नहीं फैलाते हैं, यह ठंड उनके स्वाभिमान की परीक्षा ले रही है । मैं अपने साथी पत्रकार के साथ पिछले दिनों एक गांव में गया जहाँ बांसफोर लोगों का परिवार था। ये सभी गाजीपुर से रोजी-रोटी की तलाश में यहाँ आये हैं । इनके पास यहाँ न जमीन है, ना ही घर। ये सभी झोपड़ी में रहते हैं। सभी सरकारी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। हमने देखा गरम वस्त्र के नाम पर उनके पास कुछ भी नहीं है । बारिश में पुआल , जो इनका बिछावन था, वह भी भीग गया था । क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि छोटे बच्चों के साथ महिलाएँ इन झोपड़ियों में ठंड भरी रातें किस तरह से काट रही हैं ?
जवाब देंहटाएंजीवकोपार्जन के लिए कर्म तो वे भी करते हैं प्रतिदिन, परंतु उनके श्रम का यह आधुनिक सभ्य समाज उपहास उड़ा रहा है। मंचों से कंबल वितरण कर फोटोग्राफी करवाने वाले रहनुमाओं की संवेदनाएँ यहाँ परखी जा सकती हैं और उन जनप्रतिनिधियों की भी जो अपनी वाह-वाह करवाया करते हैं।
वहीं हम में से अनेक लोग इसी ठंड और बर्फबारी का आनंद लेते हैं , तो कवि इसपर खूबसूरत रचनाएँ भी लिखा करते हैं।
क्या ऐसे साहित्यिक इन बांसफोर लोगों का मनोरंजन कर सकते हैं ?
अतः हमें " पूस की रात लिखने" वाले उस महान लेखक को नमन करना चाहिए और रचनाओं में कुछ ऐसा होना ही चाहिए जिससे सामाजिक सरोकार जुड़े हो।
समसामयिक भूमिका और प्रस्तुति केलिए आपको धन्यवाद अनीता बहन और सभी रचनाकारों को भी प्रणाम।
क्या ऐसे साहित्य पढ़ा जाए
हटाएंसुन्दर सार्थक और सामयिक चर्चा।
जवाब देंहटाएंअनीता सैनी जी धन्यवाद। आपका दिन मंगलमय हो।
बहुत सुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत चर्चा अंक प्रिय सखी । मेरी रचना को स्थान देने हेतु हृदयतल से आभार ।
जवाब देंहटाएंपूस की रात जहाँ बहुत से अमीरों के लिए बॉनफ़ायर कर के स्वादिष्ट पकवानों के खाने की और साथ में महंगी से महंगी शराब पीने की रुत होती है., वहां वह गरीबों के लिए क़यामत की रात बन कर आती है. 90 साल पुरानी प्रेमचन्द की कहानी 'पूस की रात' में पूस की रात में गरीबों की जिस बेबसी का चित्रण किया गया है, वैसी ही बेबसी, कमोबेश आज भी है.
जवाब देंहटाएंसुंदर चर्चा सूत्र ...
जवाब देंहटाएंआभार मेरी पोस्ट को जगह देने के लिए ...
बहुत सुंदर प्रस्तुति। मेरी रचना को जगह देने के लिए आपका हार्दिक आभार अनिता जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सराहनीय प्रस्तुति अनीता जी ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा अंक एवं प्रस्तुति,पूस की रात में आज भी ऐसे दृश्य दिखते हैं, कितने समय बाद भी यह विषमता मुंह बाए खड़ी है।।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएं उत्तम रचनाकारों को हार्दिक बधाई मेरी रचना को स्थान देने के लिए सहृदय आभार सखी सादर 🙏🌷
बहुत सुंदर सार्थक भुमिका के साथ शानदार प्रस्तुति । सुंदर लिकों का चयन।सभी रचनाकारों को बधाई।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।