सादर अभिवादन।
भाषा हमें पुकारती है बंद दरवाज़ों पर दस्तक देने के लिये।
वे दरवाज़े अनजाने,अनचाहे
जो सत्यता को अंदर-बाहर समेटे रहते हैं।
ये जब खुलते हैं तो मानवीयता अपनी परिभाषा के विभिन्न आयामों से परिचित होती है।
समकालीन साहित्य में भाषा का बदलता स्वरुप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के विकास के मानदंड तय करता यह दौर सृजन को विस्तार के लिये अनेक मंच उपलब्ध करा रहा है।
गाँव से लेकर महानगर तक की भौतिक सफलताओं से इतर अब साहित्यकार को बुनियादी लक्ष्य की ओर आकर्षित करता साहित्य आकाँक्षाओं और अनुराग को आत्मसंबोधित करते हुए माहौल के निर्माण का अवसर प्रदान करता है जो पूरी संवेदना के साथ खुरदरी हक़ीक़त और औरों की दुनिया के द्वंद्व को उकेरने में समाज का हित निहित स्वार्थ मूर्त-अमूर्त परिप्रेक्ष्य दर्ज़ करते हुए वक़्त की नब्ज़ टटोलना अपना परम लक्ष्य समझता है।
समाज की उथल-पुथल से द्रवित होना साहित्यकार को मिला ईश्वरीय वरदान है कमज़ोरी नहीं। साहित्य में वैचारिक पवित्रता को समझना आज के साहित्यकार को कालबोध से जोड़े रखता है। समाज में चेतना के स्तर को संवर्धित करना क़लम की प्रतिबद्धता है जिससे साहित्यकार पलायन नहीं कर सकता है वह तो उसे अंजुमन में ख़ुशबू बिखेरने की फनकारी सौंपती है।
-रवीन्द्र सिंह यादव
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आइए अब सोमवारीय अंक की विभिन्न रचनाओं पर अपनी निगाह डालें-
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परन्तु तुम तक आने का माध्यम
सिर्फ इंटरनेट है…
उसी से हो तुम,और तुम्हारा सबकुछ
कम्प्यूटर में सैट है…
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जब कहा हुआ
कहा जाएगा और फिर
कहा जाएगा और तब तक
के लिए छोड़ दिया जाएगा
कि फिर कहा जाए।
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एमे बड़ा बा दाँवपेंच
चाणक्या भी बानी फेल,
कलयुग के काल में
सभन के बा
ईमान ख़राब तमाम
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![My Photo](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEitxhjdTwO_T5fPepljeGq-Apf72whyphenhyphenz_BSeGfSiDMwhP8KtX9qqXldwZLR0pVfOwPFz1ty3XFxrfCWLI9zIcFSXczqQuaiFJroPPWlXN_bajvta4xWP4243OyZAkfqDjYcMwfwWw3LPKo/s200/FB_IMG_1531397228253.jpg)
अभिव्यक्ति
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मेरी अंजुरी
![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhgVk95bbRyBSU0-st6vGXNF3Wn0vK-hP6wDuk3H2EPMcjQC3Lq1rSgt5zhJm9LRtUpO32toXm44A_6mn006NgqUv70-Tq8HF3tsC_7oUISR_3fIQNZE07xswCOgpYWSviJub4OMPcpkcZy/s200/images+%25284%2529.jpg)
इस अंजुरी में समाई है
सारी दुनिया मेरी
माँ की ममता,
बाबूजी का दुलार,
दीदी का प्यार
भैया की स्नेहिल मनुहार
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मुझको भी तरकीब सिखा कोई यार जुलाहे
अक्सर तुझको देखा है कि ताना बुनते
जब कोई तागा टूट गया या ख़तम हुआ
फिर से बाँध के
और सिरा कोई जोड़ के उसमें
आगे बुनने लगते हो
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मौत आएगी तो कहना उससे,
अभी मैं सो रहा हूँ, बाद में आए।
ज़िन्दगी ठीक चल रही है,
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इस कृति से गुजरने के बाद हम पाते हैं
कि यह आज की महिलाओं की संवेदना,
टीस, तकलीफ और संभावना
का एक वृहद कोलॉज है।
भाषा स्वछंद और भावों को सही
संदर्भ में व्यक्त करने में सक्षम है।
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![My Photo](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpob5i0bGjOKPDQ1HufDhlJSzGN_22hVMzqxo4lMcNNpswmV18fb1uyA0hR-1fXjULE2w9SFVO63D9GyODhIqTfp1HzBuirrcD18mGEHILuQxeBqt2EmTFd_9xv7wVlmCYjriUhLJpfKQ/s200/FB_IMG_1557031242204.jpg)
क्या तेरे विधायक ने किया हाल देख लो,
जल रही है दिल्ली, केजरीवाल देख लो।
कानून का विरोध है, क्या दंगा करोगे?
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जब तुम्हें सोचती हूँ
तब सोचती हूँ आकाश
जो उदास मौसम में
झुक के आ जाता है
कन्धों के एकदम पास
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![](https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiT141TOPbFfqFPR98fuVPHFD-6JJw3MF-74gjlMCeG2qCsyYFLwL_hXKaVrgkceRO5s4-BDO7CWkWFWCQgOMhi1METv5wUhZSCgrtMaLump4gC96SsZDaJABIKdzv8gocpKQnsRclY1w7b/s320/Screenshot_20191214-104629_YourQuote.jpg)
हकीम बन इलाज को उतावला है ज़माना,
मर्ज़ क्या है माहौल से ज़रा पूछ तो लो,
ऐब नहीं है हवाओं में नमी का होना,
तर्ज़ क्या है आँखों में ज़रा झाँक तो लो |
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आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे अगले सोमवार।
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रवीन्द्र सिंह यादव--
रविन्द्र भईया, बहुत धन्यवाद आपका। मेरी रचना का चयन करके आपने सदैव ही मुझे प्रोत्साहित किया है।
जवाब देंहटाएंइस बार मुझे थोड़ा संदेह था कि इस बार मेरी रचना का चयन होगा या नहीं!!!
एक बार फिर धन्यवाद मेरी मातृभाषा भोजपुरी को बल देने के लिए।🙏
भाषा , साहित्य उसकी वैचारिक पवित्रता और कलम की प्रतिबद्धता आदि विषयों पर आप की आज की सशक्त भूमिका सराहनीय है-
जवाब देंहटाएंभाषा वही सशक्त कही जाती है जिसका अपना निज का साहित्य हो ,अन्यथा वह रूपवती भिखारिन की तरह है।
जिस तरह से शरीर का खाद्य भोज्य पदार्थ है, उसी तरह कहा गया है कि मस्तिष्क का खाद्य साहित्य है ।अतः साहित्यकारों का काम केवल पाठकों का मन बहलाव नहीं होना चाहिए। साहित्यकार विदूषक नहीं है, वह तो समाज का पथ प्रदर्शक होता है जो मनुष्यत्व को जगाता है। सद्भाव का संचार वह समाज में करता है।
परंतु यदि साहित्यकार अपनी कलम अपनी रचना शक्ति का दुरुपयोग करने लगता है , ऐसी कृतियों पर उसे खर्च करता है जिससे समाज विखंडित होने लगता है, तो वह निश्चित ही वह समाज का सबसे बड़ा शत्रु है जो समाज के संपूर्ण चरित्र को विषाक्त बना देता है। साहित्यकारों को यह बात समझनी चाहिए कि उसकी लेखनी का आम आदमी की सोच पर गहरा असर पड़ता है । अतः विकृत साहित्य का सृजन ना करें।
आज की प्रस्तुति और रचनाएँ निश्चित ही सराहनीय है।
सभी को प्रणाम।
बहुत सुंदर संकलन।सभी रचनाएँ सुंदर।सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंउपयोगी और अद्यतन लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीय रवीन्द सिंह यादव जी।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसार्थक सूत्र मनोरम प्रस्तुति ! मेरी रचना को आज के संकलन में स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार रवीन्द्र जी ! सादर वन्दे !
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसमाज में चेतना के स्तर को संवर्धित करना क़लम की प्रतिबद्धता है जिससे साहित्यकार पलायन नहीं कर सकता है वह तो उसे अंजुमन में ख़ुशबू बिखेरने की फनकारी सौंपती है।
जवाब देंहटाएंशानदार भूमिका के साथ लाजवाब चर्चा मंच
सभी उम्दा रचनाओं के साथ मेरी रचना को स्थान देने हेतु हृदयतल से धन्यवाद आपका।
सादर आभार...
शानदार भूमिका के साथ लाज़वाब प्रस्तुति सर.
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को स्थान देने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया आपका
सादर
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआदरणीय रवींद्र जी,
जवाब देंहटाएंभूमिका आज के साहित्यिक परिवेश की जीवंत तस्वीर है। इंटरनेट ब्लॉग आदि ने लिखना व पढ़ना दोनो ही सहज कर दिया है । संवेदनशील विचारधारा इसे पोषित व संवर्धित करने में सहायक सिद्ध होती है। आज की भूमिका विचारधारा के रूप में अपने मन की बात लगी ।सभी कृतियों का संयोजन भूमिका को पुष्ट करता दिखा । मेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार ।
सादर ।
बहुत शानदार प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
विविध विधाओं पर संकलित सुंदर सूत्र।
भुमिका बहुत ही शानदार और सटीक ।
जवाब देंहटाएंभाषा और अभिव्यक्ति के आयाम पहले से सहज हुवे हैं ।
पर कितना स्थायित्व है कह नहीं सकते ।
लाजवाब प्रस्तुति।