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शुक्रवार, दिसंबर 06, 2019

"पत्थर रहा तराश" (चर्चा अंक-3541)

मित्रों!
शुक्रवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
देखिए मेरी पसन्द के कुछ अद्यतन लिंक। 
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') 
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सबसे पहले उच्चारण पर देखिए 
मेरे कुछ  दोहे 

"पाकर शुभसन्देश" 

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हिन्दी-आभा*भारत  पर Ravindra Singh Yadav जी लिखते हैं- 
विस्तारवादी सोच का 
एक देश 
हमारा पड़ोसी है 
उसके यहाँ चलती तानाशाही  
कहते हैं साम्यवाद,
हमारे यहाँ 
लोकतांत्रिक समाजवाद के लबादे में 
लिपटा हुआ पूँजीवाद... 
--
Sahitya Surbhi पर dilbag virk  जी की 
एक उम्दा ग़ज़ल पढ़िए-  

थोड़ा ज़हर तो चाहिए ही ग़म भुलाने के लिए 

आख़िर वजह तो है, मय पीने-पिलाने के लिए 
थोड़ा ज़हर तो चाहिए ही, ग़म भुलाने के लिए। 

वक़्त ने मिट्टी में मिला दिया देखते-देखते
उम्र लगी थी हमें, जो आशियां बनाने के लिए... 
--
Anita Laguri "Anu"  जी ने  
अपने स्वप्न की बात को शब्द दिये हैं- 

स्वप्न में अलाव जलाए..! 

( यह तस्वीर हॉलीवुड के बहुत ही प्रसिद्ध अभिनेता आर्नोल्ड श्वार्जनेगर की है, वह अपने समय के बहुत ही प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और बॉडीबिल्डर रहे हैं, उनके पीछे जो होटल है उसके सामने यह जो सिल्वर  की  विशाल मूर्ति लगी है, ये इनकी खुद की मूर्ति  है, जिन का अनावरण वर्ष 2014 में इन्होंने खुद किया था, परंतु एक समय ऐसा आया जब वक्त और रसूख ने पलटा खाया और वह उसी होटल में गए तब उन्हें वहाँ पर रहने की अनुमति नहीं मिली, और उन्होंने विरोध स्वरूप उसी मूर्ति के नीचे जिन का अनावरण उन्होंने किया था सारी रात ठंड में ठिठुरते हुए बिताई.... इसे कहते हैं वक्त का पलट जाना.. इस घटना से एक यह भी सीख मिलती है कि अपने अच्छे समय में किए गए अच्छे कार्य करें कभी धोखा दे जाते हैं इसलिए हमेशा खुद पर भरोसा बनाए रखें दूसरों पर भरोसा करने की अपेक्षा ...आज जो मैंने कविता लिखी है उसका इस चित्र से या अर्नाल्ड श्वाजनेगर से कोई संबंध नहीं है हां ठंड से ठिठुरते हुए व्यक्ति की जो हालत होती है उसे सोचते हुए मैंने यह जानकारियां साझा की और अपनी कविता नीचे डाली है मैंने)
***************************** 
लल्लन हलवाई की दुकान तले
पौ फटे कोई ठिठुर रहा था,
  स्वप्न में अलाव जलाये
कोई ख़ुद को मोटे खद्दर में लिपटाये.... 
--
व्याकुल पथिकपर शशि गुप्ता जी ने 

( जीवन की पाठशाला ) पर  

अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा है-

बचत खाता 

मुझे लगा कि धन ऐसी वस्तु है कि कोई यह कहता नहीं दिखता कि बस- बस अब अधिक नहीं.. ? हाँ, सचमुच यह कैसा बचत बैंक है ..! और हमने ऐसा बचत खाता क्यों खोल रखा है ..? 
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   पिछले सप्ताह सुपरिचित न्यूरोलॉजिस्ट डॉ पोद्दार से उपचार करवाने वाराणसी गया था। मेरे मित्र इंस्पेक्टर अरविंद यादव के सहयोग से शीघ्र ही नंबर मिल गया और  अपरान्ह तीन बजे तक दवा लेकर खाली हो गया था।  एकाकी जीवन में जब जवानी का जोश ठंडा पड़ जाता है ,तब सबसे बड़ा भय यदि ऐसे व्यक्ति के समक्ष होता है,तो वह उसका बिगड़ता स्वास्थ्य है ।   पहले बायीं आँख और अब इसी तरफ के हाथ के अँगूठे एवं हथेली ने जिस तरह से असहयोग का बिगुल बजाया है। उससे अपाहिज होने के भय से मैं निश्चित ही सहमसहमा-सा हूँ।    सो, नियति के खेल पर चिंतन करते हुए ,पैदल ही समीप स्थित प्रसिद्ध दुर्गा जी मंदिर पर जा पहुँचा।जहाँ का दृश्य देख बचपन की स्मृतियों में खोता चला गया और रात्रि सवा आठ बजे तक मंदिर के इर्दगिर्द चहलकदमी करता रहा...  
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जिंदगी की राहें पर मुकेश कुमार सिन्हा  जी की  
एक आअतुकान्त रचना देखिए- 

खून का दबाव व मिठास 


जी रहे हैं या यूँ कहें कि जी रहे थे  
ढेरों परेशानियों संग थी  
कुछ खुशियाँ भी हमारे हिस्से   
जिनको सतरंगी नजरों के साथ  
हमने महसूस कर बिखेरी खिलखिलाहटें  
कुछ अहमियत रखते अपनों के लिए  
हम चमकती बिंदिया ही रहे... 
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मेरा मन पंछी सा पर पढ़िए यह अभिव्यक्ति- 

Aakhir kab ? आखिर कब ? 

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मन के वातायन पर जयन्ती प्रसाद शर्मा जी ने  

आदमियत को सुझाव देते हुए लिखा है- 

आदमियत 

तू एक जरूरी काम कर, 
आदमियत का तमगा- अपने नाम कर।  
बेतहाशा पैदा हो रहे इंसान,  
जनसंख्या में हो रही वृद्धि।  
होना भीड़ में खरा आदमी,  
है बड़ी उपलब्धि।  
तू बन कर दुखियों का मददगार,  
इंसानियत का एहतराम कर... 
--
मेरे विचार मेरी अनुभूति पर  
कालीपद "प्रसाद"  की प्रस्तुति है- 

ग़ज़ल 

कोई अगर कहे इक कटु सच, बुरा न माने  
अब आपके प्रशासन सब हो गए पुराने |  
संतो अभी कथा वाचन बंद कर दिए  
हैं विश्वास अब नहीं, झूठे हैं सभी फ़साने... 
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मेरी भावनायें...पर रश्मि प्रभा जी ने  
प्रतीकों के माध्य से अपनी अभिव्यक्ति  
कुछ इस प्रकार से दी है- 
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बिखरे हुए अक्षरों का संगठन पर  म
राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' जी की 
तकनीकी पोस्ट देखिए- 

वीडियो एडिटिंग (Video editing) 

डिजिटल (Digital) जिंदगी का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है। डिजिटल के बिना समय के साथ चलना मुश्किल सा लगने लगता है। हर तीसरा व्यक्ति डिजिटल प्लेटफॉर्म पर उतरना चाहता है। बहुत से संसाधन भी आज इसके लिए बाजार में उपलब्ध हैं। लेकिन हर किसी को इसके लिए समय निकालना संभव नही बन पाता है। कुछ लोग इस पद्धति को तकनीकी स्तर से देखते हैं। इसका मुख्य कारण हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था है... 
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कविता "जीवन कलश" पर  
पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा  जी लिखते हैं- 

लचकती शाखें 

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बंजारा बस्ती के बाशिंदे पर Subodh Sinha जी की  
(लघुकथा). का आनन्द लीजिए- 
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स्वप्न मेरे पर दिगंबर नासवा जी ने  
अपनी पुस्तक प्रकाशित होने की जानकारी दी है।  
एतदर्थ चर्चा मंच परिवार उनको बधाई प्रेषित करता है।

कोशिश माँ को समेटने की 

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अन्त में अग्निशिखा : पर   
Shantanu Sanyal जी की रचना देखिए- 
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4 टिप्‍पणियां:

  1. सदैव की तरह विविध विषयों.पर सुंदर रचनाओं का संगम और उसे बेहद खूबसूरती से सजा कर मंच पर रखना, आपके इस श्रमसाध्य कार्य को नमन गुरुजी । मेरी रचना को आपने स्थान दिया है ,जिसके लिये हृदय से आभार एवं सभी को प्रणाम।
    --
    कर्म करूँगा तब तलक, जब तक घट में प्राण।

    पा जाऊँगा तन नया, जब होगा निर्वाण।।

    आपके इस दोहे को पढ़ कर कर्म के संदर्भ में विचार कर रहा हूँ और यह कि हमें कर्महीन चिंतन नहीं करना चाहिए , क्योंकि ऐसे व्यक्ति को सफलता नहीं मिलती है, जो सिर्फ यह सोचा करते हैं कि अगर मैं इस मार्ग पर चलता, इन साधनों का प्रयोग करता, तो सफलता मेरे कदम चूमने को विवश होती।
    इससे इतर दुनिया तो सफल उसे ही मानती है , जो कृतकार्य हो कर उसे यह दिखला देता है कि इस भांति सफलता प्राप्त की जा सकती है।
    अतः दुखी ऐसे लोग रहते हैं, जिनके पास करने को कोई विशेष कर्म नहीं है, वास्तविक आनंद कर्म में लीन प्राणियों को ही आता है। ऐसी अनुभूति मुझे होती है।
    यह तन पुनः मिले न मिले , अतः हमें धन, संपदा, मान, बड़ाई और अतृप्त आकांक्षाओं से ऊपर उठ कर कर्मयोगी बनना चाहिए।

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  2. वाह बहुत ही सुंदर रचनाओं का संकलन तैयार किया है आपने... नासवा जी को उनकी प्रकाशित बुक के लिए मेरी ओर से भी बहुत-बहुत शुभकामनाएं
    मेरी रचना को भी मान देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद

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  3. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.
    सादर

    जवाब देंहटाएं

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