सादर अभिवादन।
आज की प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
शीर्षक व काव्यांश आ.सरिता सैल जी की रचना 'समर्पण का गणित' से -
समर्पण का गणित हमेशामेरे हिस्से ही क्यों ?क्यों तुम्हें लगा बच्चों के नाम की बेडियांमेरे पैरों में डालकरस्वच्छंदता से तुम विचरते रहोगे बाजार समझ मकान में लौटोगेजिसे घर बनाया मैंनेसंघर्ष की तपती रेत पर चलकरनहीं वे दिन कब के बीत गएमंगलसूत्र का एक धागामांग में मौजूद थोड़ा सा सिंदूर गर्भ में रचा तुम्हारा अंश प्रमाण नहीं बनेंगे अब तुम्हारे स्वामित्व का
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
समर्पण का गणित हमेशा
मेरे हिस्से ही क्यों ?
क्यों तुम्हें लगा
बच्चों के नाम की बेडियां
मेरे पैरों में डालकर
स्वच्छंदता से तुम विचरते रहोगे
बाजार समझ मकान में लौटोगे
जिसे घर बनाया मैंने
संघर्ष की तपती रेत पर चलकर
नहीं वे दिन कब के बीत गए
मंगलसूत्र का एक धागा
मांग में मौजूद थोड़ा सा सिंदूर
गर्भ में रचा तुम्हारा अंश
प्रमाण नहीं बनेंगे अब
तुम्हारे स्वामित्व का
आइए अब पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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दुर्गा जी की वन्दना "नवदुर्गा के नवम् रूप हैं"
द्वितीय दिवस पर ब्रह्मचारिणी,
देवी तुम हो मंगलकारिणी,
देवी तुम हो मंगलकारिणी,
निर्मल रूप आपका भाता।
दया करो हे दुर्गा माता।।
मंगलसूत्र का एक धागा
मांग में मौजूद थोड़ा सा सिंदूर
गर्भ में रचा तुम्हारा अंश
प्रमाण नहीं बनेंगे अब
तुम्हारे स्वामित्व का
तुम बेफिक्र घूमते रहे
समाज ने दी सिख लेकर
वास चंदन की सुकोमल
तूलिका में ड़ाल लेता
रंग धनुषी सात लेकर
टाट को भी रंग देता
शब्द धारण कर वसन नव
ठाठ से नभ भाल महके।।
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आज मनुज की गलती सारी
मौत बनी अब डोल रही।
अनजाने ही क्रोध सहे फिर
ज्ञान चक्षु को खोल रही।
हतप्रभ हो सब जगती बैठी
दोष आज हर ले तारण।
कर्म भूलता...
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अधरों पर स्मित जागा
अंतर चैन बहा,
किस भ्रम में खोया मन
क्यों यह खेल सहा !
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सदियों से गुलामी रही है
किस्मत भारत की !
एक बार विदेशी आक्रान्ताओं के सामने
पराजय का विष पीकर
युगों तक गुलामी के जुए के नीचे
गर्दन डाले रखने को विवश रहा है भारत !
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टेलीफोन नंबर उनका नहीं मेरे मोबाइल में l
अष्टम तिथि की दिव्यता,पूज्य शिवा में ध्यान हो।
मातु महागौरी सदा,भक्तों का कल्याण हो।।
जन्म हिमावन के यहाँ, मातु पार्वती ने लिया।
शंकर हों पति रूप में,बाल काल से तप किया।।
अब बखिया काहे को उधेड़नी वह तो उधड़ती ही चली जाएगी ! सूइयां मिलती रहेंगी भूसा कम पड़ जाएगा ! सो बाल को खाल में ही रहने दें ! देश-खेल-समाज तरक्की कर ही रहे हैं ना ! फिर काहे की सर-फोड़ी ! क्यूँ यह सब बेकार की बहस ! क्यूँ फिजूल की बातों का जिक्र ! भगवान है ना ! चला ही रहा है न ! फिर काहे की चिंता !
इतने बड़े ब्रह्मांड की व्यवस्था, संचालन, रख-रखाव कोई हंसी-खेल तो है नहीं ! थोड़ी-बहुत चूक, विलंब, अनदेखी हो ही जाती है ! परिमार्जन भी तो होता है ! जेलें यूं ही तो नहीं भरी हुईं ! इसलिए मस्त हो, झरोखे पर बैठें और तमाशा देखें ! किसी भी चीज/बात को बहुत गंभीरता से ना लें ! दिल बहुत नाजुक होता है, हो सकता है, भगवान को आने में समय ही लग जाए.......!
उन छतरियों का वास्तुशिल्प देखने लायक था ৷ स्तंभों में पत्थर एक के ऊपर एक बहुत कुशलता के साथ जोड़े गए थे ৷ मैं उन पत्थरों को बहुत ध्यान से देखता था और उनमे उन्हें जोड़ने वाले कारीगर की उँगलियों का स्पर्श महसूस करता था ৷ उसके आसपास कुछ पुराने ढहे हुए मकान भी थे ৷ बरसात के दिनों में पुराने मकानों की ढही हुई मिट्टी की दीवारों पर उगी हुई काई से अजीब सी गंध आती ৷ वह गंध मुझे उस दीवार के इतिहास से आती हुई मालूम होती थी ৷
आज का सफ़र यहीं तक
फिर मिलेंगे
आगामी अंक में
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंउम्दा अंक आज का |
सुप्रभात आदरणीय धन्यवाद
जवाब देंहटाएंबढ़िया संकलन
हमेशा की तरह बहुत ही उम्दा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंविचारणीय भूमिका के साथ सुंदर सूत्रों का चयन, आभार मुझे भी आज की प्रस्तुति में शामिल करने हेतु।
जवाब देंहटाएंसुंदर, सराहनीय अंक ।
जवाब देंहटाएंश्रम साध्य प्रशंसनीय अंक , शीर्षक पंक्ति बहुत कुछ कहती।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को बधाई।
सभी की प्रस्तुति पठनीय आकर्षक।
मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय से आभार।
सादर सस्नेह।
कल बहुत व्यस्तता रही ! चाह कर भी आ न सकी ! विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ अनीता जी ! इतने सुन्दर सूत्रों के साथ मेरी रचना को भी आज की चर्चा में स्थान दिया आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार ! सप्रेम वन्दे !
जवाब देंहटाएंदेरी से आने के लिए क्षमा।
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को मंच पर स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार अनीता जी।