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रविवार, अक्तूबर 10, 2021

"पढ़ गीता के श्लोक"(चर्चा अंक 4213)

 सादर अभिवादन 

आज की प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है 

(शीर्षक और भूमिका आदरणीय शास्त्री सर की रचना से)

"ओम नाम का जाप कर, पढ़ गीता के श्लोक।

इश्क-मुश्क से तो नहीं, सुधरेगा परलोक।।"


गीता के ज्ञान को यदि जीवन में धारण कर लिया तो जीवन की सारी उलझने सुलझ जायेगी। 

माँ कूष्माण्डा को नमन करते हुए चलते हैं आज की रचनाओं की ओर....

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दोहे "पढ़ गीता के श्लोक"

 (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मालिक कोई और है, जीव किरायेदार।

सब उसके ही हाथ में, कितना दे अधिकार।।

 

माता के नवरात्र की, महिमा बड़ी अपार।

मानव चोला है मिला, लो परलोक सुधार।।

 ******

माँ चंद्रघंटा


नवरातों त्योहार में, दिवस तीसरा ख़ास।

चंद्र घंट को पूज के, लगी मोक्ष की आस ।।


सौम्य रूप में शाम्भवी, माँ दुर्गा अवतार ।

घण्टा शोभित शीश पर ,अर्ध चंद्र आकार ।।


*******

ओ दिनकरों के वंशधर


********

चलो बूँदा-बाँदी को बरसात कर लें

कहीं दिन गुजारें, कहीं रात कर लें. 

कभी खुद भी खुद से मुलाक़ात कर लें. 

बुढ़ापा है यूँ भी तिरस्कार होगा, 

चलो साथ बच्चों के उत्पात कर लें. 


*********************

तलाश

दिन पर दिन बढ़ती जा रही है

दिनभर की भाग दौड़,

कुछ उम्र, कुछ जिम्मेदारियों 

और कुछ सेहत के

तकाजों का जवाब देते-देते,

पस्त हो जाता है शरीर और मन,

दिन भर !!!

*******ताखा रो दिवलो

ताखा माही धधके दिवलो 

पछुआ छेड़ मन का तार।

प्रीत लपट्या जळे पतंगा 

निरख विधना रा संसार।।

*********


क्या हम लार्वा से कोकून हो गए हैं
एक समय था जब हम अपने सर्व धर्म समभाव, विविधता में एकता, अपने भाईचारे इत्यादि का बड़े गर्व से बखान किया करते थे ! जरा सी हिंसा-विद्वेष होता तो पूरे देश में चिंता की लहर दौड़ जाया करती थी ! अमन-चैन के लिए प्रार्थनाएं होने लगती थीं। पर धीरे-धीरे (कारण कुछ भी हो) वही विशेषताएं हमारी कमजोरियां बनती चली गईं ! समभाव-एकता-भाईचारा सब तिरोहित होते चले गए !

********

रिक्त स्थान की पूर्ति - -


******
बहुत कठिन है ....

इतना आसान कहाँ था

गृहिणी हो जाना

ईंट गारे की दीवारों को

घर में बदलना

नए परिवेश में 

स्वयं की पहचान बनाना

शब्दों से परे व्यवहार से

विश्वास जमाना


******************


रजत पुलिनदिवसावसान के पश्चात , 

जब आई 
पूर्णिमा की रात! 
चांदनी रात को , 
निरवता लगा रही थी,
चार चांद! 
लोल लहरें मंद स्वर 
के साथ कर रहीं थीं! 
नृत्य का अभ्यास! 
निरवता को तोड़ते हुए, 
जा रही थी जिसकी 

************नवंबर का अंक- ‘प्रकृति और संस्कृति’ विषय पर...आलेख आमंत्रितराष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘प्रकृति दर्शन’ नवंबर का अंक- प्रकृति और संस्कृति विषय पर केंद्रित है, इसके लिए आप सभी सुधी लेखक साथियों से आलेख और रचनाएं आमंत्रित हैं। रचनाएं आप हमें 16 अक्टूबर तक ईमेल के माध्यम से प्रेषित कर सकते हैं। दोस्तों महापर्व आने को है ऐसे में उल्लास, उत्साह के बीच कुछ गहन और बेहद जरुरी मंथन हो जाए ताकि सदियों तक उत्सव का उल्लास भी कायम रहे और प्रकृति भी बेहतर रह सके...*********************माता रानी हम सब पर अपनी कृपा बनाये रखें 

इसी कामना के साथ 
आज का सफर यही तक,अब आज्ञा दें 

कामिनी सिन्हा 

9 टिप्‍पणियां:

  1. सुन्‍दर चयन। शास्‍त्रीजी 'मयंकजी' के दोहे बहुत ही जीवन्‍त लगे। फेस बुक पर साझा किए हैं।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आदरणीय विष्णु बैरागी जी!
      आपको मेरे दोहे पसंद आए, इसके लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!

      हटाएं
    2. आपके दोहे, जीवन संजीवनी की तरह तो हैं ही, मेरी एक भावना और रहती है - अच्‍छी बातें खूब प्रसारित, खूब व्‍यापक की जाऍं ताकि बुरी बातों को कम से कम जगह मिले।

      हटाएं
  2. सुप्रभात🙏🙏🙏🙏🙏
    बहुत ही उम्दा व सरहानीय प्रस्तुति!
    मेरी रचना को सामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद🙏💕🙏💕

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर और उपयोगी चर्चा!
    आपका आभार आदरणीया कामिनी सिन्हा जी!

    जवाब देंहटाएं
  4. जी बहुत बहुत आभारी हूं आपका कामिनी जी। सभी रचनाएं श्रेष्ठ हैं...सभी रचनाकारों को भी खूब बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  5. सादर, सस्नेह आभार प्रिय कामिनी। चर्चामंच पर मेरी इस साधारण रचना को देखना सुखद लगा।

    जवाब देंहटाएं
  6. सुंदर सारगर्भित सूत्रो का चयन किया है आपने कामिनी जी ।

    जवाब देंहटाएं

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