मैं मनोज कुमार एक बर पुनः प्रस्तुत हूं रविवार २६.०९.२०१० की चर्चा के साथ।
आज कल लोग बात-बात में अपना बल दिखाने लगते हैं। पर जहॉं बुद्धि प्रयोग करने की आवश्यकता है, वहॉं बल प्रयोग करने से कोई लाभ नहीं होता। एक और महत्वपूर्ण बात यह कि बुद्धि के प्रयोग पर आप उचित पुरस्कार से नवाज़े जाते हैं।
पुरस्कार की बात पर ध्यान दिलाते हैं कुमार राधारमण कि शहरयार को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है। उर्दू के नामचीन शायर और जाने-माने गीतकार अखलाक मुहम्मद खान शहरयार को 44वां ज्ञानपीठ पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। उन्हें यह पुरस्कार वर्ष 2008 के लिए दिया जाएगा। बॉलीवुड की कई हिट हिंदी फिल्मों के लिए गीत लिखने वाले शहरयार को सबसे ज्यादा लोकप्रियता 1981 में आई उमराव जान से मिली। इस वक्त की उर्दू शायरी को गढ़ने में अहम भूमिका निभाने वाले शहरयार को उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी पुरस्कार, साहित्य अकादमी पुरस्कार, दिल्ली उर्दू पुरस्कार और फिराक सम्मान सहित कई पुरस्कारों से नवाजा गया।
संदली खुशबू फिजाओं में यूँ ही बहने लगी
राणा जी का कहना है, “बस इतना ही.....अपनी धुन में रहता हूँ/मै भी तेरे जैसा हूँ|” कितना उम्दा ख़्यालात
पिरोया है उन्होंने इस ग़ज़ल में, बानगी देखिए
जो चली अंडे संजोती चींटियों की इक लड़ी
कोई बूढी अपने टूटे बाम को तकने लगी
या फिर
मेरे दिल से लाख बेहतर, उनके कुरते की सिलन
जब भी टूटी वो हमेशा बैठकर सिलने लगी
मैं तो इस ग़ज़ल को कई बार पढ चुका हूं। आप भी बार-बार पढे बिना न रह पाएंगे मेरा दावा है। मानवीय मूल्यों के अवमूल्यन को हवाओं के चलने के बिम्ब पर प्रवाहित यह ग़ज़ल मन को बहुत झकझोड़ती है।
दिवारात हो !
आशा की किरणों से
सजा रहे अम्बर
जीवन में नवप्रभात हो !
इस कविता में जीवन जीने के नज़रिए को पूरी आशा के साथ जोड़ा गया है। जब आप स्वयं से प्रेम करना सीख लेंगे तो दूसरे आपसे नफरत करना छोड़ देंगे। मुझे तो यही संदेश मिला। आप पढें और बताएं कि आपने क्या देखा इसे पढने के बाद।
पं. दीनदयाल उपाध्याय ने 1964 में कहा था कि हमें ” स्व ” का विचार करना आवश्यक है। बिना उसके स्वराज्य का कोई अर्थ नहीं। केवल स्वतन्त्रता ही हमारे विकास और सुख का साधन नहीं बन सकती । जब तक कि हमें अपनी असलियत का पता नहीं होगा तब तक हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान नहीं हो सकता और न उनका विकास ही संभव है। परतंत्रता में समाज का ” स्व ” दब जाता है।
और जब मैं ‘स्व’ का विचार करता हूं तो पाता हूं कि स्वराज्य का अर्थ है अपने पर राज्य, अपने मन के विकारों पर अंकुश , इन्द्रियों पर संयम, दुर्गुणों से दूर रहते हुए शरीर व मन को सुव्यवस्थित रखना। ऐसा होने पर सच्चे स्वराज्य की स्थापना निश्चित है।
कभी-कभी मेरे मन में एक प्रश्न आता है कि “जिस देश में हर व्यक्ति स्वयं को अपने पड़ोसी से श्रेष्ठ समझता हो, तो क्या ऐसे देश में एकता हो सकती है?” आज जब सुबह-सुबह ओशो रजनीश के विचार “क्यों बाँट रहे है ये छोटे शब्द हमारे समाज को ...” पढा तो मन को थोड़ा सुकून मिला। कहते हैं हमने न जाने कितने शब्द खड़े किये हुए है जो दीवार की तरह एक-दुसरे मनुष्य को अलग कर रहे है। और मनुष्य को अलग ही नहीं कर रहे है, हमारी आँखों को भी अँधा कर रहे है, हमारे प्राणों को भी बहरा कर रहे है, हमारी संवेदनशीलता को तोड़ रहे है। इन शब्दों की दीवारों में जो घिरा है वह आदमी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकता। आपके विचार अभिप्रेरित करने वाले हैं। मैं तो बस ईश्वर से यही चाहता हूं कि “हम मधुमक्खी की तरह गुणों रूपी मिठास एकत्र करते रहें।” और अगर शे’र में कहें तो “बस मौला ज्यादा नहीं, कर इतनी औकात, सर उँचा कर कह सकूं, मैं मानुष की जात!”
हम देश और समाज की भलाई में अपना जीवन समर्पित करें। क्योंकि “आप जितना प्रेम देंगे, उतना प्रेम पायेंगे। आपके पास प्रेम जितना अधिक होगा, इसे दान करना उतना ही सहज हो जाएगा।” आदरणीय महेन्द्र मिश्र बता रहे हैं “परहित सरिस धर्म नहिं भाई ...”। कहते हैं मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है मनुष्यता का होना है . व्यक्ति की धन्यता और पवित्रता सर्व जन हिताय कार्यों में संलग्न होने में ही होती है . दूसरों की भलाई करना ही सबसे बड़ा धर्म है .एक प्रेरक कथा के ज़रिए बताते हैं कि परोपकार करने से मनुष्य को चमत्कारी पुण्य लाभ अर्जित होते हैं . ईश्वर ने केवल मनुष्य को ही ऐसी बुद्धि प्रदान की है की वह अपना और दूसरों का दुःख संपादन कर सकता है अतएव मानव शरीर प्राप्त कर सबका हित साधन और हित चिंतन करना ही सबसे बड़ा धर्म है .
हर कोई दुनिया को बदलना चाहता है, लेकिन खुद को बदलने के बारे में कोई नहीं सोचता। हम ये भाव मन में लाएं कि “ये न सोचें मिला क्या है हमको, हम ये सोचें किया क्या है अर्पण, बांटें ख़ुशियां सभी को हम तो, सबका जीवन ही बन जाएं मधुवन!” आदरणीय मिश्र जी यह रचना हमें नवचेतना प्रदान करती है और नकारात्मक सोच से दूर सकारात्मक सोच के क़रीब ले जाती है।
एक बात तो तय है कि किसी भी वस्तु की सुन्दरता आपकी मूल्यांकन करने की योग्यता में छिपी हुई है। कुछ लोग हमारी छोटी भूल को भी हमारी चारित्रिक विशेषता मानकर हमारा अवमूल्यन कर देते हैं। संगीता स्वरुप ( गीत ) कहती हैंभीतर तक
कोई लकीर
जिसे पारखी नज़रें
छोड़ देती हैं
बिना ही कोई
मोल लगाये ....
संगीता जी आपने अपनी कविताओं में अपने समय को लेकर हमेशा जरूरी सवाल खड़े किए हैं। लोगों द्वारा दिए गए ठेस से आक्रांत मनस्थितियों का आपने प्रभावी चित्रण किया है। आपने यहां अन्योक्ति से एक गहरा संकेत किया है।
जीवन को आबाद करना है तो मैं कौन हूँ इस पहेली को हल कीजिये। मैं और मेरे-पन के भान से मुक्त हो जाइये। पर यहां तो मैं ही छाया रहता है, मैं शेर हूं तू गीदर है। काम के आधार पर समाज कभी चार वर्ण में बंटा था आज बेकाम के कई वर्गों में। प्रवीण पांडेय जी ऐसे लोगों से जो समाज को बांटते हैं पूछ रहे हैं, आपकी “"जाति क्या है?" मनवता, इंसानियत से बढकर कोई जाति नहीं है, पर इसे कोई अपनाना चहे तब ना! कहते हैं मेरा अनुभव भले ही कमलपत्रवत न रहा हो पर मुझे भी सदैव ही जाति के प्रसंग पर चुप रहना श्रेयस्कर लगा है। पता नहीं आज क्यों लिखने की ऊर्जा जुटा पा रहा हूँ?जो भी पैराणिक कारण हो पर हर समूह की अपनी स्वस्थ परम्परायें होती हैं और अपने हिस्से की दुर्बलतायें। विकासशील समूह अपनी दुर्बलताओं की निर्मम बलि देकर आगे बढ़ते जाते हैं और मानसिक, बौद्धिक व आर्थिक रूप से सुदृढ़ होते जाते हैं। जो उन्मत्त रहते हैं अपने इतिहास के महानाद से, उन्हे भविष्य की पदचाप नहीं सुनाई पड़ती है और समय के चक्र में उनके क्षरित शब्द ही गूँजते रहते हैं। हमें यदि आपस में लड़ने का बहाना चाहिये तो दसियों कारण उपस्थित हैं।
मानव तभी तक श्रेष्ठ है, जब तक उसे मनुष्यत्व का दर्जा प्राप्त है। परमात्मा से प्रेम करना समस्त मानव जाति से प्रेम करना है। क्या मेरे विचारों का स्तर ऐसा है कि मैं परमात्मा का बच्चा कहलाने का अधिकारी हूँ?
ऊपर हमने शहरयार के ज्ञानपीठ मिलने की बात की। अब उनकी एक रचना पढी जाए। यह मेरी आज की पसंद की कैटेगरी में है। Jakhira पर Devendra Gehlod सीने में जलन – शहरयार इस शहर में हर शख्श परेशां सा क्यू है
दिल है तो धडकने का बहाना कोई ढूंढे
पत्थर की तरह बेहिस-बेजान सा क्यू है
तन्हाई की ये कौन सी मंजिल है रफ़िक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यू है
हम ने तो कोई बात निकली नहीं ग़म की
वो जूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यू है
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यू है
- शहरयार
दोस्तों चर्चा के इस पड़ाव पर आकर मैं पहुंचा सम्वेदना के स्वर पर। यहां पर के पोस्ट को देख सदमें की स्थिति में पहुंच गया। पराग पढकर हम बड़े हुए। जो भी थोड़ी बहुत अच्छी सोच, और साहित्य लिखने की प्रवृत्ति मन में जमीं वहीं से आया। और उसके आगुआ थे नंदन जी।
आज इस दुखद समाचार से मन व्यथित है।
नंदन जी को कोटि-कोटि नमन।
आज इस दुखद समाचार से मन व्यथित है।
नंदन जी को कोटि-कोटि नमन।
डॉ. कन्हैया लाल नंदन – एक श्रद्धांजलि

(जन्मः 01 जुलाई 1933 निधनः 25.09.2010)
ज़िंदगी चाहिए मुझको मानी भरी
चाहे कितनी भी हो मुख़्तसर चाहिए.
वे आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन जो रिश्ता उन्होंने हमारे बचपन से जोड़ा था वो शायद एक पत्थर पर बनी लकीर है, जिसे हमारे दिल से मिटाना सम्भव नहीं.
एक कविताः
ज़िन्दगी की ये ज़िद है
ख़्वाब बन के
उतरेगी।
नींद अपनी ज़िद पर है
- इस जनम में न आएगी
दो ज़िदों के साहिल पर
मेरा आशियाना है
वो भी ज़िद पे आमादा
-ज़िन्दगी को
कैसे भी
अपने घर
बुलाना है।
-कन्हैया लाल नंदन
आज अब और चर्चा नहीं कर पाऊंगा।
रविवासरीय चर्चा बहुत बढ़िया रही!
जवाब देंहटाएं--
डॉ. कन्हैया लाल नंदन को मैं चर्चा-मंच की ओर से भाव-भीनी श्रद्धांजलि समर्पित करता हूँ!
हर ब्लॉग के लिए कही गई आपकी बातें सहेजने योग्य,अगर ब्लॉग तक न भी पहूँच पाये तो भी सीखने को बहुत कुछ मिला आज की चर्चा में अक्षरों में आभार...
जवाब देंहटाएंनंदन जी को सादर श्रद्धांजली...
बहुत सुन्दर चर्चा। दिवंगत हिन्दी मनीषी को हृदयोद्गारित श्रद्धांजलि।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंकहानी ऐसे बनी– 5, छोड़ झार मुझे डूबन दे !, राजभाषा हिन्दी पर करण समस्तीपुरी की प्रस्तुति, पधारें
अच्छी रही यह चर्चा.......सारी पोस्ट पढने का मन कर रहा है....
जवाब देंहटाएंनंदन जी को मेरा भी नमन
sundar charcha...
जवाब देंहटाएंsabhi rachna ka parichay itni sundarta se karane hetu aabhar!
Dr.kanhaiyalal nandan ji ko saadar shraddhanjali!
हमेशा की तरह सार्थक चर्चा।
जवाब देंहटाएंडॉ. कन्हैया लाल नंदन को भाव-भीनी श्रद्धांजलि ।
nandan ji ko hardik sradhanjali. bilkul viswas hi nahi ho raha ki aaj vo hamare beech nahi hai...........
जवाब देंहटाएंCharcha bahoort achchhi lagi. kafi achchhe link mile.....
सुन्दर चर्चा ! बधाई एवं आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा ..आभार !
जवाब देंहटाएंडॉ. कन्हैया लाल नंदन जी को भाव-भीनी श्रद्धांजलि ।
आज की चर्चा बहुत अच्छी लग रही है...सरे लिंक पढ़ने का मन हो रहा है.
जवाब देंहटाएंबहुत मेहनत की है आज तो.
हर प्रविष्टी के साथ आपके द्वारा की गयी चर्चा ने रचनाओं को विशेष महत्त्वपूर्ण अर्थ दे दिए हैं ..और आपके शब्दों ने सार्थकता प्रदान की है ...
जवाब देंहटाएंडा० कन्हैयालाल नन्दन जी भावभीनी श्रृद्धांजलि
डा० कन्हैयालाल नन्दन जी भावभीनी श्रृद्धांजलि- ईस्वर उनकी आत्मा को शांति दें॥
जवाब देंहटाएंसंक्षिप्त किन्तु सारगर्भित चर्चा... नंदन जी के निधन से हिंदी साहित्य की क्षति हुई है.. उन्हें हमारा नमन..
जवाब देंहटाएंआज की चर्चा का प्रस्तुतीकरण बहुत ही अच्छा रहा !
जवाब देंहटाएंनंदन जी को भाव भीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ
जवाब देंहटाएंअति सुंदर चर्चा, शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
डॉ. कन्हैया लाल जी को भाव-भीनी श्रद्धांजलि ।
जवाब देंहटाएंसार्थक ,सारगर्भित और दिल की गहराइयों तक सरलता से संप्रेषित होने वाली चर्चा। भागीदारों को मुबारक बाद।
जवाब देंहटाएंअच्छी चर्चा। उपयोगी लिंक। आभार।
जवाब देंहटाएंआदरणीय श्री कन्हैया लाल नंदन जी को मेरी भी भावभीनी श्रद्धांजली.. बड़ी मेहनत और कुशलता से गढ़ी गई ये चर्चा सर..
जवाब देंहटाएं