"निषेध "
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गालियों के बारे में सोचोमैं भी गालियाँ नहीं दे पाता, मगर मैं गालियाँ देने वाले को बुरा और गालियाँ न देने वाले संस्कारवान व्यक्ति मानने के लिए तैयार नहीं हूँ. इससे बुरा सामान्यीकरण शायद कोई दूसरा नहीं है. |
सदियों से गालियाँ सर्वव्यापी हैं, मुंगेर
से लेकर मैनहैटन तक कमोबेश एक जैसे भाव लिए हवा में तैरती हैं. सिर्फ़
आरामदेह सत्य का संधान करने की सभ्य समाज की आदत ने गालियों को हमेशा दायरे
से बाहर रखा. गालियाँ सुनना किसी को अच्छा नहीं लगता इसलिए एक आम सहमति है
कि कोई उनकी बात न करे. इसी आम सहमति के कारण गालियों की भूमिका और उनकी
आवश्यकता स्थापित नहीं हो सकी, मगर देखिए कि उनका सहज प्रवाह भी किसी के
रोके नहीं रुका.
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अच्छी-अच्छी किताबों और अच्छे घरों से झाड़-पोंछकर
गालियों को निकाल दिया गया हो लेकिन म्युनिसापालिटी के नल पर गालियाँ देने
से एक कनस्तर पानी ज्यादा मिलता है, फुटपाथ पर एक फुट जगह निकल आती है, नहर
का पानी अपने खेत की ओर मोड़ा जा सकता है... अनंत रूप, गुण, आकार-प्रकार,
उपयोग-दुरुपयोग हैं गालियों के. आपको नहीं लगता कि सोचने की ज़रूरत है उनके
बारे में.
हम और आप सभ्य लोग हैं, हम चाहते हैं कि हमारे आसपास कोई गंदगी न हो लेकिन चाय की दुकान पर काम करने वाले लौंडे का पूरा जीवन ही गाली है. सभ्य लोग न तो उस लौंडे के बारे में बात करते हैं और न ही उन गालियों के बारे में जो उस पर अनवरत बरसती रहती हैं. |
गालियाँ कौन दे
रहा है, किसे दे रहा है, क्यों दे रहा है...इन सवालों पर गालियों का गाली
होना छा जाता है. यहीं गाली देने वाला हार जाता है, अपना केस ख़राब कर
बैठता है, भले मुद्दा कितना भी जायज़ क्यों न हो. होशमंद लोगों को क्या एक
पल ठहरकर देश-काल-परिस्थिति पर विचार नहीं करना चाहिए? इस बारिश में कोई
कारवाला किसी को कीचड़ से सराबोर करके चला जाए तो नहाने वाला क्या देगा?
दुरुपयोग धर्मग्रंथों का होता है तो गालियों का क्यों नहीं होगा, आख़िर उनमें दम है. जिस चीज़ में दम है उसका उपयोग-दुरुपयोग दोनों होता है. मार्क ट्वेन ने कहा था--'कई बार गालियाँ देकर आत्मा को जो सुकून मिलता है वह प्रार्थना से भी नहीं मिलता.' मैं गालियों के दुरुपयोग के उतना ही ख़िलाफ़ हूँ जितना धर्मग्रंथों के दुरुपयोग के. मैं न धर्मग्रंथों के ख़िलाफ़ हूँ, न गालियों के, सारा सवाल संदर्भ का है. |
रेत पर महल कब तक टिकेगा?...डॉ. माधवी सिंह
yashoda agrawal
मध्यवर्गीय संस्कार कहते हैं गालियाँ हर हाल में बुरी हैं. ठीक वैसे ही जैसे कई बुरी चीज़ें हर हाल में अच्छी बताई जाती हैं.
जब एक तादाद में लोग एक गाली पर सहमत हो जाते हैं तो नारा बन जाता है. इस लिहाज से दुनिया में कोई परिवर्तन गालियों के बिना नहीं हुआ. किसी आदमी को कुत्ता कहना गाली है इसलिए नहीं कहना चाहिए, यह बात सभी बच्चों को बताई गई है. पाकिस्तान में आजकल एक बड़ा दिलचस्प नारा लग रहा है--'अमरीका ने कुत्ता पाला, वर्दी वाला, वर्दी वाला.' पाकिस्तान में बच्चा-बच्चा यह नारा लगा रहा है, कोई नहीं कह रहा कि 'बंद करो ये गाली है.' गालियों का समर्थक नहीं हूँ लेकिन अंधविरोधी भी नहीं. जो गालियाँ खाने का हक़दार है, वह खाएगा और उसे बचाना शायद अधर्म हो. |
सेहतनामा
Virendra Kumar Sharma
एक
गंभीर एतराज़ ज़रूर है, माँ-बहन की गालियों को लेकर. ग़ौर से देखिए तो समझ
में आएगा कि ये गालियाँ महिलाओं को नहीं बल्कि सभी पुरूषों को दी जा रही
हैं जिन्होंने महिलाओं को अपनी दौलत समझा और उनके शरीर को अपनी जायदाद.
औरतों के नाम से दी जाने वाली सभी गालियाँ पुरुषवादी समाज पर पड़ रही हैं,
एक ऐसे समाज पर जिसने महिलाओं का सम्मान नहीं किया बल्कि उसे अपने सम्मान
का सामान बनाया. गाली देने वाले का उद्देश्य आपके सम्मान को ही तो आहत करना
है तो वह किसे गाली देगा?
मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसा करने वालों के
ख़िलाफ़ न्यूनतम हिंसा है गालियाँ. गालियों में
आह-कराह-हेठी-हिकारत-हिमाकत-साहस-दुस्साहस सब है. गालियों में
टुच्चापन-लुच्चापन-बेहूदगी-बेहयाई-बदतमीज़ी भी है. गालियों के बारे में
सोचिए, आप-हम नहीं रहेंगे लेकिन गालियाँ रहेंगी, तब तक जब तक दुनिया में
दर्द, बेचैनी, अन्याय, शोषण, अनाचार, कदाचार, ग़ैरबराबरी...रहेगी.
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कुछ
ऐसे भी होते हैं जो कारक की तरह वाक्य को पूरा करने के लिए गालियाँ देते
हैं, शहर, धूप साइकिल और बिल्डिंग से लेकर अपने आप तक को. ऐसे निर्गुन
संतों की बात और है, आप संयोगवश उनकी ज़द मे आ जाते हैं तो बुरा न मानिए.
उनकी गारी, गारी नहीं तरकारी होती है. भावशून्य गाली में धार कहाँ.
भूलिए मत, गालियाँ प्यार और अपनापे के इज़हार के लिए भी होती हैं, शादी के शुभ अवसर पर भी गाई जाती हैं. गालियाँ अच्छी-बुरी नहीं होंतीं, परिस्थिति और पात्र पर ग़ौर करके ही उचित-अनुचित का निर्णय संभव है. |
जो फिल्मों में गालियां नहीं पचा सकते, वे कल के दर्शक थे!यह पूरी बहस दरअसल फेसबुक पर सिनेमा और दर्शकों को समर्पित समूह हिंदी टॉकीज की कारगुजारी है। कुछ लोगों को लगता है कि सिनेमा में गली के गुंडों को भी गालियों से इतर कोई जबान बोलनी चाहिए … और यह भी कि जो भाषा हमारे घरों में इस्तेमाल होती है, वही फिल्म में भी होनी चाहिए ताकि घरवालों के साथ फिल्म देखी जा सके। इस पूरी बहस में हिंदी के वरिष्ठ कवि निलय उपाध्याय की बातों को आप देखिए तो हमारी समकालीन कविता का सत्व भी समझ में आता है। हमारा मौजूदा काव्य समय बहुत ही साकांक्ष, संपादित और सुचिंतित नैतिकता के गंगाजल में डूबा हुआ है। पर कविता का कर्म सिनेमा के व्यवहार में बदलने की मांग इसलिए भी सही नहीं है क्योंकि सिनेमा एक तरह से अपने समय का इतिहास भी होता है। यहां अगर झूठ बोलेंगे, आवरण से काम चलाएंगे, तो बहुत कुछ दर्ज नहीं कर पाएंगे। अच्छी बात ये है कि बहस में फिल्मकार अनुराग कश्यप ने भी अपनी बात रखी। उनकी टिप्पणी से निकाली गयी एक पंक्ति को ही इस पोस्ट का शीर्षक बनाया गया है : |
अविनाश
पता नहीं लोग गालियों के बिना एक सहज-स्वाभाविक फिल्म की कल्पना कैसे कर लेते हैं? तब जबकि फिल्म के किरदार उस वर्ग समूह से आते हों, जहां शिक्षा और संस्कार का वर्ण-विशुद्ध आधार मौजूद नहीं हो! ऐसी बात करने वाले, ऐसी कल्पना करने वाले लेखकों-पत्रकारों-फिल्मकारों की गतिविधियों से भारतीय सिनेमा को बचाये रखना एक बेहद जरूरी मांग है, सुखद सिनेमाई भविष्य के लिए। अभी इतना ही। बात बढ़ी, तो आगे और। वरना अल्ला हाफिज। ♦ नबीन भोजपुरिया सहज स्वाभाविक फिल्म यानी की मां बहन की गालियां! बहुत खूब अविनाश जी! ♦ निलय उपाध्याय गालियों के बिना एक सहज-स्वाभाविक फिल्म की कल्पना कैसे कर लेते हैं? ये तुम कह रहे हो अविनाश? |
मां की कोख से नहीं गालियों से पैदा होती है पुलिस!
मां
मेरी हो या मायावती की, मुफलिस की हो या महाजन की। मां प्रत्येक दशा मे
पूज्य, सम्मानित और स्तुत्य है लेकिन उत्तर प्रदेश की परजीवी पुलिस के लिये
बिल्कुल नहीं। समझने वाली बात हो सकती है कि प्रत्येक जीव की पैदाइश मां
से होती है परन्तु पुलिस की पैदाइश ही शायद गालियों के बीच से गालियों के
द्वारा गालियों के लिये ही हुई है। कर्मवीर की कर्मठ पुलिस के द्वारा
प्रदेश की कानून-व्यवस्था को पटरी पर रखने संबंधी बृजलाल के दावे महिला
मुख्यमंत्री मायावती की सरकार में पानी के बुलबुलों से अधिक नहीं हैं।
सडकों पर वाहन दौड़ाने वाले ड्राइवर ठीक ही कहते हैं कि प्रदेश की पुलिस के
लिये वे अपनी एक मां साथ ले कर चलते हैं, जो इनकी गालियां ही खाने के लिये
होती है और असली मां बची रहती है।
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गंजे सिर पर बाल उगाए, लाज शर्म से मुक्ति पाऐं।
GYanesh Kumar
पुलिस में भर्ती होने के साथ ही यह भूल
जाने वाले कि उन्हें भी किसी मां ने जन्म दिया है, दूसरों की मांओं के साथ
अपमानजनक व्यवहार करने वाले पुलिसकर्मियों पर हजार बार लानत भेजना लाजमी तो
है, लेकिन इससे पहले यह भी जरूरी है कि प्रदेश पुलिस प्रमुख और प्रदेश की
मुखिया से इस बात का जवाब मांगा जाये कि प्रदेश मे हर प्रकार के कसूर और
कसूरवारों के लिये निर्दोष मांये ही क्यों पुलिस द्वारा अपमानित और गालियां
खाने को मजबूर होती हैं।
यशवन्त सिंह की मां ही नहीं हर मां को
उसकी ममता के कारण ही प्रदेश की मित्र पुलिस द्वारा किसी न किसी रूप में
अपमानित होना पड रहा है, कभी नियम विरूद्ध थाने ले जाकर बंधक बनाये रख कर
तो कभी परोक्ष रूप से गलती या बिना गलती के ही पुत्रों से अप्रसन्न पुलिस
द्वारा परोसी गयी गालियों के द्वारा। कुल मिला कर अंग्रेजों की निष्पक्ष
क्रूर पुलिस को अन्यायी, भ्रष्ट और इस मादरजात मित्र पुलिस से बेहतर बताने
वाले लोगों को गलत नही कहा जा सकता। यशवंत जी, हर मां के सम्मान को इन
मातृहीन कुपुत्रों से बचाने की मुहिम चलाने की जरूरत से मैं भी सहमत हूं।
लेखक सीबी सिंह त्यागी फतेहपुर में पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं.
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आतंकवादी
Roshiहिंदी को दी गालियाँ, उर्दू पर क्या ख्याल- रविकरहिंदी तो उनका कुत्ता भी लिख लेता है .,फ़ेसबुक .....चेहरों के अफ़साने
हिंदी को दी गालियाँ, उर्दू पर क्या ख्याल ।
लिपि का अंतर है मियाँ, करते अगर बवाल ।
करते अगर बवाल, भूल जाते मक्कारी ।
रहते ना महफूज, डूब जाती मुख्तारी ?
अंग्रेजी में छपो, हमेशा फेरो माला ।
तन-मन का ये मैल, निगल खुद बना निवाला ।। |
गालियों का प्रचलन समाज में
कब से प्रारम्भ हुआ और सबसे पहले किसने किसको गाली दी थी तथा सुनने वाले
पर उसकी प्रतिक्रिया किस रूप में प्रकट हुई थी– यह एक मजेदार शोध का विषय हो सकता है। अनेक पूर्ववर्ती विद्वानों ने गालियों के उद्भव और विकास पर युगों-युगों से माथा-पच्ची की है, किन्तु इस अथाह रहस्य को आज तक शायद कोई नहीं जान पाया। तथापि इस लेख के पाठकों के समक्ष बिना कोई गाली-गलौज किये यह ‘शिष्ट’लेखक
अशिष्ट मानी जाने वाली गालियों के परम्परागत मूल्यों की विवेचना करने की
चेष्टा कर रहा है। हमारे विचार से गालियों का प्रादुर्भाव भाषा के विकास के
साथ-साथ ही हुआ होगा। तीक्ष्ण, अप्रिय और अपमानित करने वाले शब्दों को ‘गाली’ माना
गया है। दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि शब्दों के निर्मम
प्रहार जब विद्रूप हो उठें और जिन्हें सुनकर मनुष्य क्रोधित और अनियंत्रित
हो उठे, वह गाली माना जाता है। शब्द-प्रहार, शस्त्र-प्रहार से कहीं अधिक घातक और मर्मभेदी हो सकता है, और प्राय: होता भी है। स्मरण कीजिए, महाभारत का वह प्रसंग जब द्रोपदी ने दुर्योधन का उपहास ‘अंधे का अंधा’ कहकर किया था। इस उपहास का ही परिणाम राष्ट्र के सामने ‘महाभारत’ के रूप में उपस्थित हुआ, जिसमें भारी नरसंहार और रक्तपात हुआ।
गालियों का प्रचलन सदियों से
समाज में रहा है। गालियाँ निर्बल का शस्त्र मानी गयी हैं। बलवान व्यक्ति
अपनी शारीरिक और शस्त्रगत ताकत से जब निर्बलों पर आक्रमण करते हैं, तो अशक्त और निर्बल जन गालियों के प्रहार से ही उनका प्रतिकार कर पाते हैं। वीर और साहसी व्याqक्तयों को गाली देने की आवश्यकता ही क्या है? वे तो अपनी शक्ति के बल पर ही प्रतिद्वंद्वी का मानमर्दन कर सकते हैं। गाली देना उनके गौरव के अनुवूâल भी नहीं माना जायेगा। श्रीरामचरित मानस में लक्ष्मण जी ने परशुरामजी को नसीहत देते हुए कहा है–
वीर व्रती तुम धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा।।
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हाईकू
रेखा श्रीवास्तव
किन्तु अंगद-रावण संवाद मे गालियों का उन्मुक्त आदान-प्रदान हुआ है। रावण व अंगद दोनों ही लगभग समान रूप से बली थे। दूसरे, अंगद शांति-दूत बनकर गये थे। उन्हें शस्त्र-प्रहार की अनुमति नहीं थी, अत:
उन्होंने शब्द-प्रहार का सहारा लिया। इसी प्रकार रावण भी राजनीति के
नियमों के अनुसार शांति-दूत पर शस्त्र-प्रहार नहीं कर सकता था, अत:
उसने भी शब्द-प्रहार यानी कि गालियों का ही अवलंबन लिया। गालियाँ मानव-मन
के भले-बुरे उद्वेगों को व्यक्त करती हैं। गालियाँ देने और गालियाँ सुनने
वाले– दोनों ही पक्ष
भावनात्मक रूप से उत्तेजित हो जाते हैं। इससे दोनों की असली औकात खुलकर
सामने आ जाती है। किसी ने कहा भी है कि यदि किसी की औकात आँकनी हो तो उसे
क्रोध दिला दो।
गालियों का एक दूसरा पहलू यह
भी है कि वे मानव-जाति के परस्पर सम्बन्धों को अनायास उद्घाटित करती हैं।
यूँ तो गालियाँ विश्व की लगभग सभी भाषाओं और बोलियों में कही-सुनी जाती हैं, किन्तु
भारत में गालियों का अपना अलग ही अन्दा़ज है। भारत में गायी हुई गालियों
का बुरा नहीं माना जाता। कदाचित् इसीलिए हमारे यहाँ विवाह-शादियों में तथा
होली जैसे त्यौहारों पर गालियों को गाने की पुरातन प्रथा चली आ रही है।
विवाह मेंं महिलाओं के द्वारा और होली पर पुरुषों के द्वारा गायी जाने वाली
और उमंगमय गालियों का कोई बुरा नहीं मानता–
जेंवत देहिं मधुर धुनि गारी।
ले ले नाम पुरुष अरु नारी।।
समय सुहावनि गारि विराजा।
हँसत राउ सुनि सहित समाजा।।
श्रीराम के विवाह-समय पर
जनकपुर की महिलाओं के द्वारा गायी हुई गालियाँ आज भी विवाह-बारातों में हम
अपने-अपने संदर्भ में अपनी पारिवारिक महिला-सखियों-सहेलियों से सुनते हैं
और प्रसन्न होते हैं। जबकि अन्य किसी अवसर पर दी हुई किसी की भी गाली हमें
गोली की तरह बींध कर रख देती है और क्षणभर में खून-खराबे की नौबत आ जाती
है।
गालियों के अनेक प्रकार हैं। कुछ गालियाँ जाति-बोधक होती हैं, तो कुछ संबंध बोधक। कुछ गालियाँ मानव की विकलांगता से जुड़ी होती हैं, तो कुछ उसके स्वभाव से। कई गालियाँ मानव का जानवरों से तादात्म्य स्थापित करती हैं, तो कई गालियों में उसके बौद्धिक स्तर की धज्जियाँ उधेड़ दी जाती हैं।
|
क्रोध में दी गई गालियों में प्रतिद्वंद्वी को नीचा दिखाने का भाव निहित होता है, जबकि
उमंग और अनुराग में दी गई गालियाँ घनिष्टतम प्रेम की प्रतीक मानी जाती
हैं। कुछ विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि गालियों का उच्चारण मानव की दमित
कामेच्छाओं को शमित करता है। गालियों से परहेज करने वाले कितने ही तथाकथित
शिष्ट लोग एकांत में अशिष्ट और अश्लील हरकतों में लिप्त देखे जा सकते हैं।
ऐसा माना जा सकता है कि गालियों का प्रचलन मानव के आदिम विकास-काल से आज
तक यथावत् बना हुआ है। गालियों से मनुष्य के काम और क्रोध– इन
दो विकारों का निस्तारण काफी हद तक हो जाता है। होली का त्यौहार गालियों
के आदान-प्रदान का उन्मुक्त त्यौहार है। इसे शास्त्रकारों ने मदनोत्सव की
संज्ञा दी है। मदन का अर्थ काम से है। भारतीय जन अपने काम-गत विकारों का
निस्सरण करने के लिए होली पर गोली छान कर गाली बकते हुए देखे जाते हैं। यह
परिपाटी सदियों से चली आयी है। शास्त्रकारों-विद्वानों ने इसका अनुमोदन भी
किया है और इसे हमारी धार्मिक आस्थाओं से जोड़े रखने की चेष्टा भी की है।
उन्होंने हिरण्यकश्यपु की बहन ढुंढा (होली) को जलाते समय गालियाँ बकने का
शास्त्रीय विधान निर्धारित किया है, जिससे कि वह राक्षसी तृप्त और प्रसन्न होकर अपनी दाह-शक्ति को प्रचण्ड बनाये रखे–
तमग्नित्र्रिपरिक्रम्य शब्दै लिंग-भगांकितै,
तेन शब्देन सा पापा राक्षसी तृप्तिमाप्नुयात्।
जो भी हो, गालियों
का अपना एक अलग समाज-शास्त्र है जिसे मानव की भावनात्मक-वैचारिक और
संवेदनात्मक ऊर्जा के संचयन तथा उसमें उत्पन्न हुए अनावश्यक विकारों के
निस्तारण के लिए हमारे पूर्वजों ने निर्धारित किया है। इसमें तथाकथित
सभ्यतावादियों के अरण्य-रोदन से कुछ भी होने जाने वाला नहीं है। यह सृष्टि
गाली से ही शुरू हुई थी और गाली पर ही समाप्त होगी–यह एक शाश्वत सत्य है।
क्योंकि मानव-देह एक गाली ही
है जो गलीज जगह से जन्म लेकर गलियों-गलियों भटकती अन्त में गलकर रह जाती
है। अत: इस देह के गलने से पहले गालियों के मर्म को समझ लेना बहुत आवश्यक
है।
|
लव कुमार |
सुहरवर्दी सिलसिला-3
मनोज कुमार
कभी लड़ाई हो जाये तो इन गालियों का तो इतना ढेर
लग जाता है कि समझ नहीं आता उसका उपयोग करने वाला इतना पढ़ा लिखा होकर
ऐसी भदी भाषा बोल रहा है. इसका असर इतना गन्दा हो चुका है कि हमारी फिल्मो
में भी इनको तोड़ मरोड़ कर आजकल पेश किया जा रहा है. शर्म नाम की तो कोई
चीज़ नहीं रही. बच्चे तभी रुकेंगे अगर माँ बाप रुकेंगे. लड़के तो लड़के अब
तो लड़कियों ने भी इनका उपयोग ज़ोर शोर से शुरू कर दिया है, जैसे तेरी माँ
की ., तेरी बहन की.. समझ नहीं आता हम जा किस तरफ जा रहे है, हमारी मर्यादा
क्या है. गाली देने का इतना ही शोंक है तो माँ बहन को ही उसमे क्यों घसीटे
हो, बाप भी तो है. पंजाबियों की तो इन गालियों के बिना रोटी ही हज़म नहीं
होती और उसकी देखा देखी और लोग भी बहुत तेज़ी से इसको अपना रहे हैं. हम गलत
चीज़ को झट से अपना लेते हैं, लेकिन कोई अच्छी चीज़ हो उससे दूर भागते
हैं. दूसरों को गाली देने से तो हम नहीं कतराते, लेकिन जब कोई हमें गाली
देता है तो हमारे तन बदन में आग लग ज़ाती है. खुद को इतना संभालें कि दूसरा
चाहे कितना ही भदा क्यों ना बोले, आप अपनी जुबान पे कण्ट्रोल रखिये. यह
जुबान आपको ज़मीं से ऊपर उठा भी
सुहरवर्दी सिलसिला-3
मनोज कुमार
कभी लड़ाई हो जाये तो इन गालियों का तो इतना ढेर
लग जाता है कि समझ नहीं आता उसका उपयोग करने वाला इतना पढ़ा लिखा होकर
ऐसी भदी भाषा बोल रहा है. इसका असर इतना गन्दा हो चुका है कि हमारी फिल्मो
में भी इनको तोड़ मरोड़ कर आजकल पेश किया जा रहा है. शर्म नाम की तो कोई
चीज़ नहीं रही. बच्चे तभी रुकेंगे अगर माँ बाप रुकेंगे. लड़के तो लड़के अब
तो लड़कियों ने भी इनका उपयोग ज़ोर शोर से शुरू कर दिया है, जैसे तेरी माँ
की ., तेरी बहन की.. समझ नहीं आता हम जा किस तरफ जा रहे है, हमारी मर्यादा
क्या है. गाली देने का इतना ही शोंक है तो माँ बहन को ही उसमे क्यों घसीटे
हो, बाप भी तो है. पंजाबियों की तो इन गालियों के बिना रोटी ही हज़म नहीं
होती और उसकी देखा देखी और लोग भी बहुत तेज़ी से इसको अपना रहे हैं. हम गलत
चीज़ को झट से अपना लेते हैं, लेकिन कोई अच्छी चीज़ हो उससे दूर भागते
हैं. दूसरों को गाली देने से तो हम नहीं कतराते, लेकिन जब कोई हमें गाली
देता है तो हमारे तन बदन में आग लग ज़ाती है. खुद को इतना संभालें कि दूसरा
चाहे कितना ही भदा क्यों ना बोले, आप अपनी जुबान पे कण्ट्रोल रखिये. यह
जुबान आपको ज़मीं से ऊपर उठा भी
कोरल-ड्रा में कैसे किसी फाइल के
सभी पैजेस की एक साथ
जेपीजी या अन्य फार्मेट में फाइल बनायें
Bhagat Singh Panthi
bhagat bhopal
सकती है और ज़मीं पे गिरा भी सकती है. इसे
हरदम केंची की तरह मत चलाइये. गालियों से आपकी बनी बनाई इज्ज़त मिट्टी में
मिल ज़ाती है. कभी अकेले में जब आप सोचते हैं अरे यह मैंने क्या किया, तो
खुद को खुद पे घिन्न आनी शुरू हो ज़ाती है. माफ़ी मांगते भी डर सा लगता है.
अपने आप को इतना मत गिराइए कि उठना ही मुश्किल हो जाये. आपको तो दूसरों को
अच्छी शिक्षा और अच्छी भाषा की मिसाल देनी चाहिए, और आप हैं खुद ही अपनी
जुबान को गन्दा कर रहे हैं. गुस्सा कीजिये, पर अपनी तहज़ीब को मत भूलिए.
कभी लखनऊ जाएँ तो वहां की तोहीन में भी आपको कोई रंजिश नहीं होगी. वो इतना
कहेंगे, " हुज़ुरेआल्ला अपनी जुबान को लगाम दीजिये, कहीं ऐसा ना हो आपके
अब्बा हुजुर की शान में हमसे कोई गुस्ताखी हो जाये", "हुजुर यहाँ से तशरीफ़
ले जाइये, अगर हमने गलती से आपको चांटा रसीद कर दिया तो आपके दन्दाने
मुबारक टूट कर ज़मीं में खाक हो जायेंगे". इन गालियों को दफा कीजिये और
जाकर किसी से वफ़ा कीजिये.
सकती है और ज़मीं पे गिरा भी सकती है. इसे
हरदम केंची की तरह मत चलाइये. गालियों से आपकी बनी बनाई इज्ज़त मिट्टी में
मिल ज़ाती है. कभी अकेले में जब आप सोचते हैं अरे यह मैंने क्या किया, तो
खुद को खुद पे घिन्न आनी शुरू हो ज़ाती है. माफ़ी मांगते भी डर सा लगता है.
अपने आप को इतना मत गिराइए कि उठना ही मुश्किल हो जाये. आपको तो दूसरों को
अच्छी शिक्षा और अच्छी भाषा की मिसाल देनी चाहिए, और आप हैं खुद ही अपनी
जुबान को गन्दा कर रहे हैं. गुस्सा कीजिये, पर अपनी तहज़ीब को मत भूलिए.
कभी लखनऊ जाएँ तो वहां की तोहीन में भी आपको कोई रंजिश नहीं होगी. वो इतना
कहेंगे, " हुज़ुरेआल्ला अपनी जुबान को लगाम दीजिये, कहीं ऐसा ना हो आपके
अब्बा हुजुर की शान में हमसे कोई गुस्ताखी हो जाये", "हुजुर यहाँ से तशरीफ़
ले जाइये, अगर हमने गलती से आपको चांटा रसीद कर दिया तो आपके दन्दाने
मुबारक टूट कर ज़मीं में खाक हो जायेंगे". इन गालियों को दफा कीजिये और
जाकर किसी से वफ़ा कीजिये.
क्षणिकाएँ
nilesh mathurगालियाँ मजेदार होतीं हैं??गालियों की उपरोक्त खासियत तो तब हैं जब गालियाँ खाने वाले के दुखी होने के कीमत पर हम तनावमुक्त होते हैं। दूसरी स्थिति मे हम गालियों के श्रोता तो होते हैं, लेकिन गालियाँ हमे लक्ष्य करके नही दी जाती। मसलन मोहल्ले मे चल रही पति-पत्नी के बीच मे गाली-गलौज॥ कुछ्लोगो का यह काम ही दुसरे लोगों को लड़वाना होता हैं जिससे कि उन्हें कुछ गालियाँ सुनने को मिल जाएँ। इन सब से बिपरीत कभी कभी गालियाँ खाने का भी १ अलग ही मज़ा होता हैं। जैसे कि गांवों मे युवाओं का मुख्य मनोरंजन ब्रिद्ध लोगों की गालियाँ सुनकर होता हैं। बारातियों को अगर ढंग से गालियाँ न पड़े तो १ शिक़ायत सी बनी रहती हैं। पर उनका क्या जिन्हें लक्ष्य करके गालियाँ दी जाती हैं? शायद वे लोग भी अपनी कुंठा या चिढ किसी अन्य को गालियाँ देकर निकल लेते हों। भारतीय जातीय समाज बहुत ही ईमानदारी से सबको शोषण करने का मौका देता हैं। बड़ी ही आसानी से उच्च वर्ण निम्न जातियों को और निम्न वर्ण अपने से निम्न वर्ण के जातियों को गाली देकर कुंठा मुक्त हो सकते हैं॥ स्त्रियों का भी इस कुंठा मुक्त समाज के निर्वाण मे महत्ती भूमिका हैं। सद्जनो की पीडा इस बात से कम हो सकती हैं कि आज तक ढोल, गंवार, क्षुद्र, पशु, नारी गालियाँ खाकर भी समाज का नींव बने हुए हैं॥ |
दोस्ती हो या दुश्मनी
बिना MC, BC के गालीबाज पत्रकारों का काम नहीं चलता. चैनल के बॉस को
गरियाना है तो MC, BC . फ्रस्ट्रेशन निकालनी है तो MC, BC. हल्का होना है,
दिमाग को तरोताजा करना है , सारे मर्ज की एक दवा MC, BC . कई बार तो दोस्ती
में भी MC, BC. यानी गालीबाज पत्रकारों के लिए MC, BC के बिना एकदम से काम
नहीं चलता. जब तक दो – चार MC, BC नहीं दे देते तबतक दिल को न सुकून मिलता
है और न चैन.
|
आखिर ये राम-नाम है क्या ?..........!! ( DR. PUNIT AGRWAL )
PD
SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN
and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of
PUNJABI WELFARE SOCIETY,Suratgarh (RAJ.)
पिछले दिनों जब फिल्म सिटी गया
था तो एक ऐसे ही गालीबाज पत्रकार से मुलाकात हुई. ये गालीबाज पत्रकार महोदय
हमारे एक मित्र के मित्र हैं. माँ – बहन की गालियां देने में धुरंधर.
छूटते ही शुरू हो जाते हैं और एक बार शुरू हो गए तो फिर इनकी जुबान पर लगाम
लगाना किसी इंसान के वश की बात नहीं. ऊपर वाला ही कुछ कर सकता है या फिर
वो भी एक बार गाली के इन वाणों से घबड़ा जाए. न्यूज़24 के चाय के ठीये से
फिल्म सिटी के चायनीज फ़ूड वाले की गाड़ी तक पहुँचते – पहुँचते तक उन्होंने
हजारों गालियाँ बक दी. बॉस समेत अपने साथ काम करने वालों पर माँ – बहन के
गालियों की बौछार कर दी. तब जाकर उन्हें कुछ राहत मिली.
आखिर ये राम-नाम है क्या ?..........!! ( DR. PUNIT AGRWAL )
PD
SHARMA, 09414657511 (EX. . VICE PRESIDENT OF B. J. P. CHUNAV VISHLESHAN
and SANKHYKI PRKOSHTH (RAJASTHAN )SOCIAL WORKER,Distt. Organiser of
PUNJABI WELFARE SOCIETY,Suratgarh (RAJ.)
पिछले दिनों जब फिल्म सिटी गया
था तो एक ऐसे ही गालीबाज पत्रकार से मुलाकात हुई. ये गालीबाज पत्रकार महोदय
हमारे एक मित्र के मित्र हैं. माँ – बहन की गालियां देने में धुरंधर.
छूटते ही शुरू हो जाते हैं और एक बार शुरू हो गए तो फिर इनकी जुबान पर लगाम
लगाना किसी इंसान के वश की बात नहीं. ऊपर वाला ही कुछ कर सकता है या फिर
वो भी एक बार गाली के इन वाणों से घबड़ा जाए. न्यूज़24 के चाय के ठीये से
फिल्म सिटी के चायनीज फ़ूड वाले की गाड़ी तक पहुँचते – पहुँचते तक उन्होंने
हजारों गालियाँ बक दी. बॉस समेत अपने साथ काम करने वालों पर माँ – बहन के
गालियों की बौछार कर दी. तब जाकर उन्हें कुछ राहत मिली.
ठाकरे संकीर्ण राजनीती के पुरोधा
रणधीर सिंह सुमन
लो क सं घ र्ष !
पिछले साल एक किताब के
विमोचन के मौके पर गया था. उस किताब में जमकर गालियों का प्रयोग किया गया
था. एकदम हरी -हरी, तेज -तीखी देशी गालियाँ. वहाँ पर हिंदी की संवेदनशील
कवयित्री 'अनामिका' जी भी थी. उन्होंने किताब के बारे में
बोलते हुए कहा कि ये गालियाँ नहीं फूलगेंदवां हैं . मुझे उनकी सिर्फ यही
बात याद रह गयी . यह गाली नहीं फूलगेंदवां है. लेकिन क्या वाकई गालियाँ
फूलगेंदवां जैसी लग सकती है ?खासकर माँ - बहन की गालियाँ MC, BC ?
ओ रे घटवारे, ओ रे मछवारे, ओ रे महुवारे.
पिछले साल एक किताब के
विमोचन के मौके पर गया था. उस किताब में जमकर गालियों का प्रयोग किया गया
था. एकदम हरी -हरी, तेज -तीखी देशी गालियाँ. वहाँ पर हिंदी की संवेदनशील
कवयित्री 'अनामिका' जी भी थी. उन्होंने किताब के बारे में
बोलते हुए कहा कि ये गालियाँ नहीं फूलगेंदवां हैं . मुझे उनकी सिर्फ यही
बात याद रह गयी . यह गाली नहीं फूलगेंदवां है. लेकिन क्या वाकई गालियाँ
फूलगेंदवां जैसी लग सकती है ?खासकर माँ - बहन की गालियाँ MC, BC ?
DR. PAWAN K. MISHRA
जनसत्ता
14 मई, 2012: गालियों के विरूद्ध
भारतीय समाज में गलियों का जिस प्रकार प्रयोग होता है, वह
निहायत शर्मनाक है। लगभग सारी गालियां स्त्रियों के अंगों को लेकर हैं और
जिनमें स्त्री-पुरुष के पवित्रतम रिश्ते का मजाक उड़ाया गया है।
मां और बहन की गाली में यह भाव है कि मैं तुम्हारी बेइज्जती करूंगा
तुम्हारी मां और बहन से संबंध बना कर। सबसे साधारण लगने वाली एक गाली, जिसे
सामान्य भी मान लिया गया है, यह बताती है कि तुम्हारी बहन से मेरे संबंध
हैं। आश्चर्य तब होता है जब इस महान देश के महान सपूतों का अपनी
मां-बहन-बेटी के बारे में इतनी गर्हित टिप्पणी सुन कर भी खून नहीं खौलता।
बल्कि कभी-कभी तो मजाक में गाली देकर स्त्री देह का अपमान किया जाता है। यह
बात पढ़े-लिखे और अनपढ़ सभी पुरुषों पर समान रूप से लागू होती है। विडंबना
यह है कि पुरुषों की देखादेखी स्त्रियां भी ‘बोल्ड’ होने के चक्कर में इन
शब्दों का धड़ल्ले से प्रयोग करने लगती हैं। साहित्य में अतियथार्थवादी होने
के फेर में अक्सर साहित्यकार इनकी वकालत करने लगते हैं।
मैंने अपने दोनों बेटों को यथासंभव गालियों का प्रयोग करने से बचाया है। लेकिन एक दिन मैं अचानक सदमे में आ गई, जब अपने बेटे को किसी को गाली देते सुना। बाद में उससे पूछा कि गाली क्यों दी तो वह कहने लगा कि कभी-कभी ऐसा करना जरूरी हो जाता है। आपको क्या पता, बाहर लोग कैसे हैं? |
मैंने समझाया
कि क्या तुम्हारी कक्षा के किसी और बच्चे को पालन-पोषण में ऐसा माहौल मिला
है। उसने अपनी गलती समझी और तत्काल मुझसे माफी मांग ली। लेकिन क्या वह ऐसा
आजीवन कर पाएगा? मुझे लगता है कि इसकी कोई गारंटी नहीं है।
जिस देश में
स्त्री का इतना अपमान हो, वहां दहेज, बलात्कार, छेड़खानी जैसी घटनाएं होंगी
ही। पुरुष के मुकाबले स्त्री का अनुपात कम रहेगा और बेटियों की हत्या,
कन्या भ्रूणहत्या जैसी घटनाएं शर्मनाक तरीके से जारी रहेंगी। अगर स्त्री
देह के प्रति सम्मान नहीं जगेगा तो सभाएं-संगोष्ठियां नारेबाजी का रूप भर
बन कर रह जाएंगी। आमिर खान के कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ की पहली कड़ी कन्या
भ्रूणहत्या पर थी। लोगों पर उसका तात्कालिक प्रभाव तो था, लेकिन कहीं यह
श्मशान वैराग्य जैसा ही कुछ होकर न रह जाए। यह ध्यान रखना चाहिए कि ये वही
आमिर खान हैं जिनकी
मैंने समझाया
कि क्या तुम्हारी कक्षा के किसी और बच्चे को पालन-पोषण में ऐसा माहौल मिला
है। उसने अपनी गलती समझी और तत्काल मुझसे माफी मांग ली। लेकिन क्या वह ऐसा
आजीवन कर पाएगा? मुझे लगता है कि इसकी कोई गारंटी नहीं है।
जिस देश में स्त्री का इतना अपमान हो, वहां दहेज, बलात्कार, छेड़खानी जैसी घटनाएं होंगी ही। पुरुष के मुकाबले स्त्री का अनुपात कम रहेगा और बेटियों की हत्या, कन्या भ्रूणहत्या जैसी घटनाएं शर्मनाक तरीके से जारी रहेंगी। अगर स्त्री देह के प्रति सम्मान नहीं जगेगा तो सभाएं-संगोष्ठियां नारेबाजी का रूप भर बन कर रह जाएंगी। आमिर खान के कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ की पहली कड़ी कन्या भ्रूणहत्या पर थी। लोगों पर उसका तात्कालिक प्रभाव तो था, लेकिन कहीं यह श्मशान वैराग्य जैसा ही कुछ होकर न रह जाए। यह ध्यान रखना चाहिए कि ये वही आमिर खान हैं जिनकी
जिस देश में स्त्री का इतना अपमान हो, वहां दहेज, बलात्कार, छेड़खानी जैसी घटनाएं होंगी ही। पुरुष के मुकाबले स्त्री का अनुपात कम रहेगा और बेटियों की हत्या, कन्या भ्रूणहत्या जैसी घटनाएं शर्मनाक तरीके से जारी रहेंगी। अगर स्त्री देह के प्रति सम्मान नहीं जगेगा तो सभाएं-संगोष्ठियां नारेबाजी का रूप भर बन कर रह जाएंगी। आमिर खान के कार्यक्रम ‘सत्यमेव जयते’ की पहली कड़ी कन्या भ्रूणहत्या पर थी। लोगों पर उसका तात्कालिक प्रभाव तो था, लेकिन कहीं यह श्मशान वैराग्य जैसा ही कुछ होकर न रह जाए। यह ध्यान रखना चाहिए कि ये वही आमिर खान हैं जिनकी
खुशबुओं की बस्ती
Madan Saxena
कुछ समय पहले आई एक फिल्म ‘देल्ही बेली’ में गालियों का
वीभत्स प्रयोग और स्त्री को अपमानित करने वाले कई प्रसंग जबरन ठूंसे गए
थे। हमें अपनी भाषा के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है। आश्चर्य है कि अब तक
कहीं पर भी गालियों को लेकर कोई निंदा प्रस्ताव तक पास नहीं किया गया!
गालियों का प्रयोग निश्चित रूप से निंदनीय है। इसलिए भी कि यह किसी भी समाज
के मानसिक रूप से पिछड़े और सामंती होने का सबूत है जिसमें स्त्री को हर
कदम पर अपमानित किया जाता है।
’अर्चना त्रिपाठी, आरके पुरम, नई दिल्ली
आदरेया - सूचना पोस्ट नहीं कर पा रहा हूँ कई कोशिशें फेल हो गईं - आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के <a href="http://charchamanch.
blogspot.in/">चर्चा मंच</a> पर ।।
अन्त में देखिए!
कुछ समय पहले आई एक फिल्म ‘देल्ही बेली’ में गालियों का
वीभत्स प्रयोग और स्त्री को अपमानित करने वाले कई प्रसंग जबरन ठूंसे गए
थे। हमें अपनी भाषा के प्रति सजग रहने की आवश्यकता है। आश्चर्य है कि अब तक
कहीं पर भी गालियों को लेकर कोई निंदा प्रस्ताव तक पास नहीं किया गया!
गालियों का प्रयोग निश्चित रूप से निंदनीय है। इसलिए भी कि यह किसी भी समाज
के मानसिक रूप से पिछड़े और सामंती होने का सबूत है जिसमें स्त्री को हर
कदम पर अपमानित किया जाता है।
’अर्चना त्रिपाठी, आरके पुरम, नई दिल्ली
आदरेया - सूचना पोस्ट नहीं कर पा रहा हूँ कई कोशिशें फेल हो गईं - आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के <a href="http://charchamanch.
blogspot.in/">चर्चा मंच</a> पर ।।
’अर्चना त्रिपाठी, आरके पुरम, नई दिल्ली
आदरेया - सूचना पोस्ट नहीं कर पा रहा हूँ कई कोशिशें फेल हो गईं - आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के <a href="http://charchamanch.
blogspot.in/">चर्चा मंच</a> पर ।।
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक') की
कूची का कमाल!
"कार्टून-मेरी कूची से"
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)
क्या बात है अब गालियों पर शोध किये जा रहे हैं |इस चर्चा को तो बहुत ध्यान से पढना होगा
जवाब देंहटाएंपोस्टों में गालियों का इतिहास!
जवाब देंहटाएंरविकर जी बहुत परिश्रम किया है आपने आज की चर्चा में!
आभार!
जवाब देंहटाएं"कार्टून-लालबत्ती" (कार्टूनिस्ट-मयंक खटीमा)
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)
उच्चारण
खाली करवाए तुरत, सही चुकावो दाम ।
फ़ार्म हाउस बंगला बड़ा, घर जमीन का काम ।
घर जमीन का काम, नाम धारी है बडका ।
मुर्ग-मुसल्लम खाय, भाय नहिं इसको तड़का ।
तड़के पॉन्टी मौत, चुकाए दाम मवाली ।
जलती बत्ती लाल, करे खुद गाड़ी खाली ।।
आज कहाँ से ढूंढ कर लाये हो रविकर भाई इतनी गालियाँ स्स्स्स सारी इतनी अलग पोस्ट आपका अथक परिश्रम दिखाई दे रहा है सबको ध्यान से पढना पड़ेगा बधाई आपको
जवाब देंहटाएंअथक परिश्रम सुन्दर लिंकों के लिए रविकर जी बधाई,
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को शामिल करने के लिए आभार,,,,
बहुत सुन्दर चर्चा रविकर जी! आभार!
जवाब देंहटाएंरविकर सर आज की चर्चा तो नयी-2 तरीके की गलियों के पोस्ट से भरा हुआ है, कहाँ-2 से एकत्रित किया है आपका भी जवाब नहीं जय हो, एक पढ़कर ख़तम करता ही हूँ की दूसरी गाली फिर तीसरी लाइन लगी पड़ी है।
जवाब देंहटाएंआज तो पूरा "गाली शास्त्र" पढने को मिला । बहुत मेहनत से आपने सोशल साइट्स और ब्लॉग की दुनिया से खोज खोज कर पोस्ट इकठ्ठा किये हैं । आपका कोई जोड़ नहीं । बहुत सहेज कर रखना पड़ेगा आज का ये पोस्ट । बहुत खूब ।
जवाब देंहटाएंपहला लिंक!
जवाब देंहटाएंकैसी-कैसी गालियाँ, कैसी-कैसी सोच।
दिल में सभी पचाइए, बाल रहे क्यों नोच!!
लिंक-2
जवाब देंहटाएंचर्चा के आगोश में, रचा एक इतिहास।
गाली खाकर भाइयों, होना नहीं उदास।।
लिंक-3
जवाब देंहटाएंगुस्सा बड़ा खराब है, कर देता हलकान।
ठण्डे डल का पान कर, मेटों सकल थकान!!
लिंक-4
जवाब देंहटाएंमद के प्याले देखकर, बन जाते हैं गीत।
जो इनकी भाषा पढ़े, वो ही है मनमीत।।