कोई ललित छंद मैं सुनाऊ कैसे?
प्रीत,मीत,रीत के गीत गाऊँ कैसे?
प्रेम रंग गुलाल है,उड़ाऊँ कैसे?
रंगों में बँटे देश को संग लाऊँ कैसे?
कोई ललित छंद मैं सुनाऊँ कैसे?
- आँचल
सादर प्रणाम
हार्दिक अभिवादन
रंगोत्सव बीत गया और होली मिलन का कार्यक्रम आरंभ हो चुका है। आज महाराष्ट्र संग कई राज्यों में रंग पंचमी की धूम है।सभी को ढेरों शुभकामनाएँ।
होली के इन कार्यक्रमों से फुर्सत मिलेगी तो नवरात्री की तैयारी आरंभ हो जायेंगी। मतलब यह कि कोई ना कोई उत्सव अपने शुभ संदेशों के संग इस देश में बना रहता है।किंतु क्या हम इन पर्वों में निहित संदेशों को आत्मसात कर पाते हैं या बस इन उत्सवों के उत्साह में ही डूबे रहते हैं? यदि नही कर पाते हैं तब तो हर वर्ष इन उत्सवों का हमारे देश में, हमारे जीवन में आना व्यर्थ जाता है।
अभी होली आयी थी प्रेम,एकता,भाईचारे और सौहार्द का संदेश लेकर। तमाम रंग लेकर आयी थी यह बताने कि हमें इन रंगों में बँटना नही है अपितु इन अलग अलग रंगों को धारण करना है,इन रंगों को अपनाना है इन सभी रंगों में रंग जाना है और एक हो जाना है। पर शायद हम सब इन रंगों के मूल उद्देश्य को धारण करने में सदा ही चूकते रहे हैं और यही कारण है जो आज हमारे देश में रंगों ( मज़हबी रंगों ) को लेकर हिंसा होती है।
मेरी बस ईश्वर से यही प्रर्थना है कि वो स्वयं ही विश्वभर को अतिशीघ्र एकता के रंग में रंग दें। क्योंकि यह कार्य हम मनुष्यों द्वारा संभव हो पाना....इसकी तो कल्पना भी असंभव सी प्रतीत हो रही है।
खैर...आइए आगे बढ़ते हैं और पढ़ते हैं विविध रंगों से सजी कुछ सुंदर रचनाएँ।
शासक बने आज व्यापारी,
प्रीत-रीत में है मक्कारी,
छिपे हुए उजले लिबास में, काले दाग़ बहुत गहरे हैं।
कीचड़ वाले तालाबों में, खिलते हुए कमल पसरे हैं।।
लिख दिये होंगे
अब तक तो
सारी अंधेरी रात के
सारे कालेपन
सोच कर
कुछ नयापन
कुछ पुराना
बदलना चाह कर
हर रंग सार लूँ इस होली में
खुशरंग उतार लूँ इस होली में
सन्नाटों के महफिल गंवारा नहीं-
एक फाग गा लूँ इस होली में।
श्वेत -श्याम एक हुए
ना ऊंच- नीच का भेद रहा
रंग एक रंगे सभी देखो
एक दूजे के संग -संग गलियों में
टेसू फूले ,गुलाब महके .
उडी भीनी पुष्पगंध गलियों में !!
वे अक्सर जला दिये जाते हैं
"अरे भाई! कुछ बूँदें पानी की डाल दो देह पर।"
धधकती आग में कराहते हुए कुछ वृद्ध वृक्षों की आवाज़ थी यह।
"थोड़ी प्रतीक्षा और करें।आदेश आता ही होगा।"
यह भालू की आवाज़ थी। जो हाथों में पानी का पाइप लिये खड़ा था।
ऊषा लालिमा~
ब्रह्मपुत्र में जाल
डालता मांझी ।
कानन पथ~
अहेरी के कंधे पे
अन्न व जाल ।
पड़ोसी की भी खुशहाली देखना सीखिए,
घी नहीं आग पर पानी फेकना सीखिए -
जब से ईमान बेचे-ख़रीदे जाने लगे हैं वीर
पत्थरों की बरसात में दिल सहेजना सीखिए -
अंग-अंग, घुल चुके अनेक रंग,
लग रहे हैं, एक से,
क्या पीत रंग, क्या लाल रंग?
गौर वर्ण या श्याम वर्ण!
रंग चुके एक से,
हुए हैं आज हल, कई सवाल!
कहाँ गया सद्भभाव और
आपस में भाईचारा
अजब सा सन्नाटा
पसरा है गली में
कोई त्यौहार मने कैसे
रक्षाबंधन दिवाली ईद और होली
मिठाई में मिठास पहले सी नहीं है
मन में उत्साह नहीं है
रंग सभी बेरंग हो गए
प्रिय
जब मैं तुमसे दूर रहूँ
तुम मन-ही-मन में
मन-से-मन की
कह लेना
मैं सुन लूँगा ..
मैं सहेजता हूँ
मेरी रोटी पोटलियों में,
तू फेंक आता है,
कचरे की बाल्टियों मेँ ,
मेरी रोटी ओढ़े,
भूख और ग़रीबी,
तेरी में चुपड़ा घी,
फ़र्क़ ये रोटियों में किसने पैदा किया...?
थोड़ा उसकी मानी
थोड़ा उसने मानी
थोड़ी जगह दी
थोड़ा जगह मिली
ताकि ले सकें साँस
दोनों ही
और चलते चलते आदरणीय रवीन्द्र सर द्वारा रचित यह रचना जो किसानों की व्यथा कथा को कहती है और मुझे यह रचना खासतौर पर प्रिय है
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अब आज्ञा दें
सादर प्रणाम
जय हिंद
विविधताओं से परिपूर्ण अत्यंत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति । चर्चा में मेरे सृजन को सम्मिलित करने के लिए हार्दिक आभार आँचल जी ।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आदरणीया मैम। सादर प्रणाम 🙏
हटाएंउम्दा लिंक्स|मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार सहित धन्यवाद आँचल जी |
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आदरणीया मैम। सादर प्रणाम 🙏
हटाएंआभार आँचल जी खूबसूरत चर्चा में देने के लिये।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏
हटाएंविचारणीय भूमिका के साथ सुंदर प्रस्तुति.. सही कहा तुमने त्योहारों का तो आना जाना लगा रहता है हमारे देश में इस त्यौहार से फुर्सत पाई नहीं कि दूसरे त्यौहार की दस्तक आनी शुरू हो जाती है परंतु अच्छा है यह आस-पड़ोस एवं घर में सुख एवं उन्नति का भाव बना रहता है यह किसी भी उन्नत समाज के लिए बहुत अच्छी बात है ...💐👌सभी चयनित लिंक्स अपने आप मे उम्दा एवं उपयोगी है...!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को भी शामिल करने के लिए बहुतबहुत आभार..!
आदरणीया दीदी जी उचित कहा आपने। उत्साहवर्धन हेतु आपका हार्दिक आभार। सादर प्रणाम 🙏
हटाएंहम लोग त्यौहार तो मनाते हैं लेकिन उनके मूल्यों को आत्मसात नहीं करते हैं। आपने काफी अच्छी बात कही है। इन रोचक लिंक्स के बीच मेरी कृति को जगह देने के लिए हार्दिक आभार।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आदरणीय सर। सादर प्रणाम 🙏
हटाएंविचारणीय भूमिका के साथ, रोचक लिंकों की प्रस्तुति, बहुत बढिया आंचल जी। मेरी रचना को साझा करने के लिए आभार।
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आदरणीया मैम। सादर प्रणाम 🙏
हटाएंहोली आई हैं- "यह बताने कि हमें इन रंगों में बँटना नही है अपितु इन अलग अलग रंगों को धारण करना है,इन रंगों को अपनाना है इन सभी रंगों में रंग जाना है और एक हो जाना है। "बहुत ही अच्छी बात कही आँचल आपने। प्रेरक भूमिका के साथ उन्दा लिंक्स ,बेहतरीन प्रस्तुति ,तुम्हे भी और सभी आदरणीय रचनाकारों को भी ढेरो शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंउत्साहवर्धन हेतु हार्दिक आभार आदरणीया मैम। सादर प्रणाम 🙏
हटाएंउपयोगी लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आँचल पाण्डेय जी।
अच्छा संयोजन .. आभार
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति. मुझे स्थान देने हेतु आभार आँचल जी
जवाब देंहटाएंसादर