सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में
आपका
स्वागत
है।
चर्चामंच साहित्य-चर्चा का मंच है न कि व्यक्तिगत चर्चा का।
व्यक्तिगत चर्चा
में
भी
भाषा
की
मर्यादा को
नज़रअंदाज़ करना
स्वयं
को
साहित्यकार की
श्रेणी
से
नीचे
गिराना
ही
है
भले
ही
बात
समझने
में
कितना
भी
वक़्त
लगे।
इस सामूहिक ब्लॉग
का
उद्देश्य रचनाकारों का
परिचय
उनकी
रचना
के
लिंक
के
साथ
ब्लॉग
जगत
के
विस्तारित पाठक
वर्ग
से
कराने
का
रहा
है।
विभिन्न चर्चाकारों द्वारा
प्रतिदिन प्रस्तुत की
जानेवाली प्रस्तुतियों में
सम्मिलित रचनाओं
के
लिंक
सद्भावना पर
आधारित
होते
हैं
न
कि
किसी
व्यावसायिक उद्देश्य से
इस
मंच
पर
सम्मिलित करते
हुए
प्रस्तुत किए
जाते
हैं।
सामूहिक ब्लॉग की धारणा
और
सहूलियत ने
साहित्य-सृजन
में
अमूल्य
योगदान
दिया
है।
चिंता
की
बात
यह
कि
सामूहिक ब्लॉग
राजनीतिक प्रभाव
से
ग्रस्त
हो
गए
जो
साहित्य को
साहित्य न
मानने
के
लिए
कारण
उत्पन्न करते
चले
गए।
साहित्य स्वयं
के
लिए
स्वयं
के
द्वारा
ही
रचा
जाता
है,
जब
उसमें
लक्षित
विचार
समाहित
हो
जाते
हैं
तो
निस्संदेह उसमें
राजनीति की
गंध
आने
लगती
है
जो
धीरे-धीरे दुर्गंध में
परिवर्तित हो
जाती
है
जिससे
विचलित
होकर
विशुद्ध साहित्य की
खोज
करने
वाला
पाठक
स्वयं
दिग्भ्रमित होकर
साहित्यकार के
प्रति
पूर्वाग्रह पालता
है। राजनीति वह अँधेरा है जिसे जीभर के आलोचा गया,कोसा गया...काश! कोई दीपक भी जलाता!
मैं स्वयं को
राजनीति से
भिन्न
नहीं
पाता
हूँ
क्योंकि मैं
सत्ता
समर्थक
कभी
नहीं
रहा।
लोकहित
के
विपरीत
सत्ता की नीतियों और
गतिविधियों की
बेझिझक
आलोचना
करता
रहा
हूँ।
कहने का उद्देश्य है
चर्चामंच किसी
राजनीतिक विचारधारा को
प्रश्रय देने
का
मंच
नहीं
है
बल्कि साहित्य जगत में सर्वोदय के
विचार
को
आगे
ले
जाने
का
प्रयास
करता
रहा
है।
कभी-कभी यहाँ भी
आपको
राजनीतिक रुझान
स्पष्ट
समझ
आ
सकता
है
तो यह चर्चाकार की व्यक्तिगत पसंद
का
ही
मसअला
हो
सकता
है।
साहित्यकार होने
के
लिए
आपको
आलोचना
सहने
की
क्षमता
का
विकास
करना
निहायत
ज़रूरी
है
बाक़ी
सब
बाद
की
बातें
हैं।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
प्रस्तुत हैं
विभिन्न ब्लॉग्स पर
प्रकाशित कुछ
रचनाएँ-
गीत "ऋतुराज प्रेम के अंकुर को उपजाता" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
पतझड़
के
पश्चात
वृक्ष
नव
पल्लव
को
पा
जाता।
विध्वंसों के बाद नया निर्माण सामने आता।।
*****
सुलझा लेना था, संशय,
दोराहों को, दे देना था आशय,
एक पथ, पहुँचा देती मंजिल तक,
सहज, दूर होता असमंजस,
राहों में, ठहर-ठहर!
*****
वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।
लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई॥
लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।
तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी॥
दिल में एक चुभन-सी भी थी यह दुनिया अलबेली थी।
मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र के सागर ज़िले के सानौधा थाना क्षेत्र के प्रागैतिहासिक काल के गुफा चित्रों के लिए प्रसिद्ध आबचंद क्षेत्र के समीपस्थ स्थित आबचंद गांव में रहने वाली 50 वर्षीय श्रीबाई धानक खेती करती हैं। उनके परिवार में दो बेटा, दो बहू हैं। चार बेटियां हैं। दो ननद हैं। मां-बाप हैं। जो सब गांव में खेती-किसानी करते हैं। श्रीबाई ने 27 सितंबर 2020 को गैंगरेप पीड़ित एक महिला को चार दरिंदों से बचाया था।
*****
हमारी वैचारिक धरा पर पलाश बिखरा है
भाव और शब्दों
में
पलाश की रंगत है
पलाश
में
हमारी कविता
हर
मौसम महकती है
जैसे तुम और मैं
महक उठते हैं पलाश को पाकर।
हम
उसके बिखराव और सृजन
दोनों का हिस्सा हैं।
*****
क़ब्ल सुबह कुछ भी नहीं रहता -
सूखे पत्तों के सिवा, कौन
किस के
लिए है
वफ़ादार
कहना नहीं
आसान,
नज़र से
दूर
होते ही,
सभी
रिश्ते हैं
सहरा की
सदा।
*****
जब उनके पंख काट दिये गए हों और छती में भरा हो गहरे जख्म, -
कि वह सलाखों को पीटता है बार बार और कि वह मुक्त हो जाएगा;
यह किसी आनंद या उल्लास का गीत नहीं होता
बल्कि होती है प्रार्थना जो निकलती है उसके हृदय की अतल गहराइयों से बल्कि होती है जिरह ईश्वर से जो वह करता है बार बार -
मुझे पता है कि पिंजरे में बंद पक्षी क्यों गाता है!
*****
मन सबका है एक सा, सुखद यही है सार।।
मंदिर में हैं घण्टियाँ, पड़ता कहीं अजान।
धर्म मज़हब कभी कहाँ, बना यहाँ दीवार।।
*****
ताऊ जी का संन्यास (सत्य घटना पर आधारित)
टूटे और थके मन की है व्यथा अकेलेपन की
।
बूढ़ी जर्जर काया चाहे आश्रय अपनेपन की ।।
अंत समय आया ताऊ का सबने हाथ सिकोड़ा ।
हुई हृदय को घोर निराशा अति विश्वास भी तोड़ा ।।
*****
"बिना किसी सवाल,
मैं झेलूँ रोज एक बवाल!
आलू छोटे आ गए तो बवाल!
भिंडी बड़ी आ गई तो बवाल!
गीला तौलिया बिस्तर पर, छोटा बवाल!
दफ्तर से फोन ना किया, बड़ा बवाल!..."
बादलों से फिर झरेंगे
गीत मेरे इश्क के,
सूखते दरिया में होंगी
फिर वही रवानियाँ !
मुस्कुराए भर थे हम तो...
*****
कभी सच्ची बात नजर नहीं आती
जब झूटी अपना फन फैलाती|
मुस्कान तिरोहित हो जाती जब सच्चाई समक्ष आती|
सच झूट में दूरी है बहुत कम जान लो
आँख और कान का है जितना फासला पहचान लो|
*****
आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे अगले सोमवार।
रवीन्द्र सिंह यादव
बहुत बढ़िया लिंक..सुन्दर चर्चा के लिए धन्यवाद आदरणीय रविंद्र सिंह जी
जवाब देंहटाएंआपका चयन लाजवाह है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर् प्रस्तुति।
आपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।
उम्दा है संकलन आज का |मेरी रचना को शामिल करने क्र लिए आभार सहित धन्यवाद |
जवाब देंहटाएंआदरणीय रवींद्र सिंह यादवजी, नमस्कार !
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट रचनाओं का संकलन संयोजन एवम सुंदर प्रस्तुति के लिए आपका हार्दिक आभार..चर्चा की शुरुआत बहुत ही सारगर्भित संदेशों के साथ हुई .. मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद एवम अभिनंदन ।
आदरणीय रवींद्र सिंह यादव जी,
जवाब देंहटाएंचर्चा की शुरूआत में आपका वक्तव्य महत्वपूर्ण है। सदैव की तरह आपने बहुत श्रमपूर्वक बेहतरीन लिंक्स का चयन किया है। इस हेतु साधुवाद 🙏
मेरी पोस्ट को यहां स्थान दे कर आपने मेरी पोस्ट के प्रति जो रुचि प्रदर्शित की है उसके लिए हृदयतल की गहराइयों से आपका आभार 🙏
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
सच है जहाँ राजनीति की घुसपैठ हुई वहां सोच कुण्ठ होते देख नहीं लगती
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर चर्चा प्रस्तुति
सुंदर चर्चा प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंअति सुंदर संकलन।
जवाब देंहटाएंहर विषय अपनी कहानी कह रहा है।
प्रभावी भूमिका के साथ सराहनीय संकलन।
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारो को बहुत बहुत बधाई।
सादर
बेहतरीन रचनाओं से सजे चर्चामंच के इस अंक में मेरी रचनाओं को शामिल करने हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीय रवींद्रजी।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसभी रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय हैं मुग्ध करता हुआ चर्चामंच, मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार आदरणीय - - नमन सह।
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