सादर अभिवादन।
'शिक्षा सबके लिये' का मिशन अब सरकार की मंशा से अलग हो चुका है। शिक्षा को कारोबार में बदलने और इसे सिर्फ़ सक्षम वर्ग के लिये सुनिश्चित करने के लिये अब सरकार की नीतियों में चालाकीभरी दूरदृष्टि अब साफ़ नज़र आने लगी है। भारत में शिक्षा प्राप्ति का इतिहास बुरी नीयत और वर्गभेद की घिनौनी दास्तां है।
देश के विश्वविद्यालय अब राजनीति के बीमार अखाड़े बन गये हैं। पूँजीवाद का सड़ा-गला रूप तैयार करने के लिये बहुत ज़रूरी है जनता की बौद्धिक क्षमता को नष्ट किया जाय। मूर्खों और जाहिलों पर शासन करना बड़ा आसान होता है क्योंकि उनसे तार्किक विश्लेषण की अपेक्षा नहीं रहती तो डर भी नहीं रहता और उन्हें भीड़-तंत्र की तरह इस्तेमाल करना बड़ा आसान होता है। पढ़ने-लिखने को करदाताओं पर बोझ कहा जाने लगा है लेकिन ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं कि नमक या माचिस ख़रीदनेवाला भी कर चुकाता है जिसे महिमामंडित नहीं किया जाता है।
पूँजीपतियों के लाखों करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ़ करना और कॉर्पोरेट टैक्स में उनके मन-माफ़िक कटौती करना देश के साधन संपन्न वर्ग को पूर्णतः उचित एवं तर्कसंगत लगता है। लोककल्याणकारी जवाबदेही से सरकार का क़दम पीछे खींचना पूँजीपरस्त हो जाना है। ऐसी मंशा का बलबती होना समाज में ग़ैर-बराबरी की खाई को और अधिक चौड़ा करने में अपना योगदान देना है।
पिछले दिनों एक बा-हियात, बे-हया दरबारी पत्रकार को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई शिक्षा शुल्क के विभिन्न मदों में अप्रत्याशित वृद्धि को जाएज़ ठहराते हुए देश की बहुसंख्यक जनता के घावों पर नमक डालते सुना तो ख़याल आया कि 'घायल की गति घायल जाने' और 'जाके पैर न फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई।'
'शिक्षा सबके लिये' का मिशन अब सरकार की मंशा से अलग हो चुका है। शिक्षा को कारोबार में बदलने और इसे सिर्फ़ सक्षम वर्ग के लिये सुनिश्चित करने के लिये अब सरकार की नीतियों में चालाकीभरी दूरदृष्टि अब साफ़ नज़र आने लगी है। भारत में शिक्षा प्राप्ति का इतिहास बुरी नीयत और वर्गभेद की घिनौनी दास्तां है।
देश के विश्वविद्यालय अब राजनीति के बीमार अखाड़े बन गये हैं। पूँजीवाद का सड़ा-गला रूप तैयार करने के लिये बहुत ज़रूरी है जनता की बौद्धिक क्षमता को नष्ट किया जाय। मूर्खों और जाहिलों पर शासन करना बड़ा आसान होता है क्योंकि उनसे तार्किक विश्लेषण की अपेक्षा नहीं रहती तो डर भी नहीं रहता और उन्हें भीड़-तंत्र की तरह इस्तेमाल करना बड़ा आसान होता है। पढ़ने-लिखने को करदाताओं पर बोझ कहा जाने लगा है लेकिन ऐसा कहने वाले भूल जाते हैं कि नमक या माचिस ख़रीदनेवाला भी कर चुकाता है जिसे महिमामंडित नहीं किया जाता है।
पूँजीपतियों के लाखों करोड़ रुपये के क़र्ज़ माफ़ करना और कॉर्पोरेट टैक्स में उनके मन-माफ़िक कटौती करना देश के साधन संपन्न वर्ग को पूर्णतः उचित एवं तर्कसंगत लगता है। लोककल्याणकारी जवाबदेही से सरकार का क़दम पीछे खींचना पूँजीपरस्त हो जाना है। ऐसी मंशा का बलबती होना समाज में ग़ैर-बराबरी की खाई को और अधिक चौड़ा करने में अपना योगदान देना है।
पिछले दिनों एक बा-हियात, बे-हया दरबारी पत्रकार को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई शिक्षा शुल्क के विभिन्न मदों में अप्रत्याशित वृद्धि को जाएज़ ठहराते हुए देश की बहुसंख्यक जनता के घावों पर नमक डालते सुना तो ख़याल आया कि 'घायल की गति घायल जाने' और 'जाके पैर न फटी बिवाई सो का जाने पीर पराई।'
आइए पढ़ते हैं मेरी पसंद की कुछ रचनाएँ-
*****
नमन आपको शारदे, मन के हरो विकार।
नूतन छन्दों का मुझे, दो अभिनव उपहार।।
--
तुक-लय-गति का है नहीं, मुझको कुछ भी ज्ञान।
मेधावी मुझको करो, मैं मूरख नादान।।
*****
मौसमी मुर्गा
क्या विभीषण,
मीर जाफ़र या कि हों जयचंद
जी,
सर कढ़ाई में इन्हीं का,
उँगलियों में, इनके घी.
*****
चुप हैं दिशाएँ
चुप हैं दिशाएँ
ओढ़े खमोशियाँ, ये कौन गुनगुना रहा है?
हँस रही ये वादियाँ, ये कौन मुस्कुरा रहा है?
डोलती हैं पत्तियाँ, ये कौन झूला रहा है?
फैली है तन्हाईयाँ, कोई बुला रहा है!
ये क्या हुआ, है मुझको आज!
लगे तन्हाईयों में, कहीं बज रहे हैं साज!
ख़ामोशियों ने, बदले हैं अंदाज!
*****
३८७.सड़कें
बेघर होती हैं सड़कें,
बारिश में भीगती हैं,
ठण्ड में ठिठुरती हैं,
धूप में तपती हैं सड़कें.
*****
विलीन हो जाओ प्रकाश पुंज मे..,!
३८७.सड़कें
बेघर होती हैं सड़कें,
बारिश में भीगती हैं,
ठण्ड में ठिठुरती हैं,
धूप में तपती हैं सड़कें.
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विलीन हो जाओ प्रकाश पुंज मे..,!
*****
स्नेहिल अंगुलियों कीछुवन मांगता है मन..
बन्द दृगों की ओट मेंनींद नहीं..जलन भरी है
ख़ुद की मौज में....
फूलों से,
खिल उठते हैं हममिजाज़ मौसम में
गुंचे गुलों के
बिना किसी इंतजार
बिना
इस सोच
बिना किसी उम्मीद
कि इस खुशबू को
कोई महसूसेगा या नहीं,
*****
मैं भी अधूरा जीने लगा हूँ,
तेरे ही खयालों में,
बढ़ने लगी है उलझन मेरी,
तेरे ही सवालों में।
*****
माँ!!
रजनी लगभग चिल्लाते हुए घर के अंदर आई।
माँ..माँ
रजनी ने लता को पकड़कर कमरे में गोल-गोल घुमा दिया।
अरे-अरे रुको मैं गिर जाऊँगी…
क्या पागल हो गई है तू ?
हाँ माँ सच पागल हो गई हूँ।
*****
आज भोर के आकाश में अद्भुत छटा थी।
चंद्रमा पुनर्वसु नक्षत्र (मिथुन राशि) पर
आर्द्रा व पोलक्स
तारकों को मिलाने वाली सरल रेखा पर थे।
आज ही वृश्चिक सङ्क्रान्ति है।
आज ही वृश्चिक सङ्क्रान्ति है।
*****
वो जो आए थे....... जो गुज़र गये
होते हुए ..... इसी रास्ते .....
मैं पुकारता ....यों ही रह गया
आदरणीय रवींद्र जी प्रणाम, आपकी यह चिंतन भरी प्रस्तुति हमें विचार करने पर विवश करती है आज मैं अपने विचारों को ज़्यादा नहीं खींचूँगा बल्कि कुछ शब्दों में ही व्यक्त करूँगा।
जवाब देंहटाएंमर रहे हैं लेखक,
किनकी चिता जलाऊँ
अब राख़ क्या है, माटी
तब अपने सिर लगाऊँ।
पँखे हैं उनके क़ाबिल,
जो उड़ रहे गगन में
मैं रेंगता मकौड़ा
नासूर हूँ चमन में।
जब-जब उठाऊँगा मैं
मस्तक निलय गगन में
हताशा के कचरे भरकर
फेकेंगे मेरे सिर पे
मेरे गीत "भागते रास्ते" को स्थान देने हेतु आपको एवं चर्चा मंच को सादर प्रणाम। 'एकलव्य'
बहुत सुंदर चर्चा। मेरी रचना को स्थान देने के लिए धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंशिक्षा का उद्देश्य अब मात्र यह रह गया कि किसी तरह से सरकारी नौकरी प्राप्त की जाए, ताकि बड़ा वेतन, बड़ा पद और बड़ी सुविधा मिले। अनुचित रुप से धन कमाने को मिले।
जवाब देंहटाएंसरकारी मासिक वेतन देश के करोड़ों युवाओं का " भगवान " बन गया है ।
हालात यह है कि ये युवा अपने जीवन का बहुमूल्य समय प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में गुजार देता है ।
जाहिर है कि सफलता सबको नहीं मिलती, करोड़ों में से कुछ हजार युवक ही सरकारी नौकरी पाते हैं।
शेष असफल होकर कुंठित जीवन बिताते हैं। उनके कर्म की गंगा सूख जाती है। आजीविका के लिए उनके पास कोई उत्तम व्यवस्था नहीं है। हमारे देश में सरकार चाहे किसी की भी रही हो, ऐसे बेरोजगार युवकों को सब्जबाग दिखाने के अतिरिक्त हमारे रहनुमाओं ने कुछ भी नहीं किया है । इन करोड़ों कुंठित युवकों वाला कोई राष्ट्र यदि जीवित है ,तो इसे आज आठवां आश्चर्य ही कहा जाएगा..।
एक जिलाधिकारी का कथन मुझे आज भी याद है । उनका कहना था कि अपने देश के युवा अब वैज्ञानिक, चिकित्सक ,अध्यापक और समाज सेवक बनने की जगह आईएएस और आईपीएस बनना चाहते हैं। उनकी दृष्टि में इस नौकरी में अधिक मान -प्रतिष्ठा है, यदि यह सोच नहीं बदली तो हम अपने राष्ट्र को भौतिक , नैतिक और सांस्कृतिक तीनों रूप से दरिद्र कर रहे हैं।
रवींद्र आपने शिक्षा को लेकर सरकार की मंशा पर उचित सवाल उठाया है।
साथ ही अच्छी रचनाओं का चयन मंच पर किया है।
सभी को प्रणाम।
आपका आभार शशि भाई चर्चा को रोचक बनाने के लिये.
हटाएंजी प्रणाम, धन्यवाद
हटाएंबहुत सुंदर लिंक्स, अद्भुत प्रस्तुति, मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार आदरणीय।
जवाब देंहटाएंअद्यतन लिंकों के साथ सार्थक और सुन्दर चर्चा।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसशक्त भूमिका के साथ सुन्दर सार्थक सूत्र । लाजवाब संकलन ।
हटाएंमेरे सृजन को मंच पर साझा करने के लिए हार्दिक आभार रविन्द्र जी ।
सार्थक चर्चा, भुमिका एक ज्वलंत प्रश्न उठाती हुई, सच शिक्षा व्यापार बन गई है, और सरकारी नीतियां नेताओं के हाथ का खिलौना। प्रजातंत्र पर हावी होता पूंजीवाद ,सब कुछ विकट है ,देश अधोगति को उन्नमुख।
जवाब देंहटाएंचर्चा पर सभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई
मेरी रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
सभी रचनाएं सार्थक और सुंदर।
बहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंखूबसूरत प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंकिस-किस क्षेत्र में आपत्तियां दर्ज करेंगे हम लोग, इन आपत्तियों की लिस्ट दिन-ब-दिन लंबी और लंबी होती जा रही है। शिक्षा के क्षेत्र में बाजारवाद तो पहले से ही कायम था..लेकिन जेएनयू जैसी शैक्षणिक संस्था के साथ राजनीतिक खेल खेलना यह स्पष्ट रूप से बहुत ही घटिया दर्जे की राजनीति है । आश्चर्य तो तब होता है जब व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी द्वारा फैलाया गया कचरा ज्ञान लेकर लोग सरकार के इस मनसे में साथ खड़े होकर उस यूनिवर्सिटी के पीछे पड़ गए हैं जिसने देश को एक से एक सफल व्यक्ति दिए हैं.. पूंजीवादी विचारधारा के लोगो मे सत्ता सुख का जबरदस्त स्वाद चड़ चुका है और
जवाब देंहटाएं... और अपने इस स्वाद में अनंत हीन वृद्धि करते रहने के लिए वह इस तरह के कदम उठा रहे हैं! अगर समाज के कुछ तबके के लोगों में शिक्षा प्रतिशत नगणयहो जाएंगे तो कोई भी आने वाले समय में इनके खिलाफ आवाज बुलंद नहीं करेगा.. देश प्रेम की भावना तो खत्म हो ही चुकी है अब अपने धर्म के प्रति प्रेम की भावना उछाल उछाल मार के लोगों में भेदभाव की नीतियां बढ़ा रही है... हमेशा की तरह सभी चयनित रचनाएं बहुत ही उम्दा है नए नए कवियों को पढ़ने का मौका मिल रहा है मेरी रचना को भी मान देने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद...!!
एवं अंत में शिक्षा को लेकर तैयार की गई आपकी भूमिका वाकई काबिले तारीफ है अगर लोगों ने इसे पढ़कर भी अपनी आंखें नहीं खोली तो आने वाले समय में हमारे बच्चे वही पढ़ेंगे जो सरकार उन्हें पढ़ाना चाहेगी उनकी खुद की बुद्धि शायद ही कभी विकसित हो पाएगी...!
मनसे को मंशे..पढ़ा जाये.
जवाब देंहटाएंमनमोहक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसराहनीय भूमिका के साथ सार्थक चर्चा प्रस्तुति सर.
जवाब देंहटाएंसभी रचनाकारों को हार्दिक बधाई.
सादर
सुंदर चर्चा.मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार
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