मित्रों!
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
बुधवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
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आज सबसे पहले देखिए अनु की दुनिया : भावों का सफ़र पर
Anita Laguri "Anu" जी की यह रचना-
मैं जूता एक पैर का..

सड़क पर चलते हुए
मिल गया जूता एक पैर का
लेकिन दूसरा था नदारद
मैंने सोचा, दूसरा जूता कहाँ
चलो आगे देखते हैं...
मिल गया जूता एक पैर का
लेकिन दूसरा था नदारद
मैंने सोचा, दूसरा जूता कहाँ
चलो आगे देखते हैं...
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अब देखिए हिन्दी-आभा*भारत पर Ravindra Singh Yadav जी की
एक पुरानी रचना जो आज भी प्रासंगिक है-

हूँ मैं एक नाज़ुक-सा फूल,
घेरे रहते हैं मुझे नुकीले शूल।
कोई तोड़ता पुष्पासन से,
कोई तोड़ता बस पंखुड़ी;
पुष्पवृंत से तोड़ता कोई,
कोई मारता बेरहम छड़ी...
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कविता "जीवन कलश" पर पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा जी
सितार के टूटे तार के माध्यम से
अपनी अभिव्यक्ति प्रसतुत करते हुए लिखते हैं-
टूटा सा तार

जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार!
संभाले, अनकही सी कुछ संवेदनाएं,
समेटे, कुछ अनकहे से संवाद, दबाए,
अव्यक्त वेदनाओं के झंकार,
अनसुनी, सी कई पुकार, अन्तस्थ कर गई हैं,
तार-तार! जर्जर सितार का, हूँ इक टूटा सा तार ...
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बिखरे हुए अक्षरों का संगठन पर राजेन्द्र सिंह कुँवर 'फरियादी' जी
पहाड़ी फलों की जानकारी दे रहे हैं-
परमल, गुजकरेला, किंकोड़,
घुनगड़ी और मीठा करेला Kankoda

पहाड़ की संस्कृतियहां के खान-पान की बात ही अलग है। यहां के अनाज तो गुणों का खान हैं ही, सब्जियां भी पौष्टिक तत्वों से भरपूर है। ऐसी ही खास पहाड़ी सब्जी है मीठा करेला, जिसे अलग-अलग जगहों पर अलग नाम से जाना जाता है। कुछ लोग इसे परमला कहते हैं कई जगह ये ककोड़ा के नाम से जानी जाती है। शहरों में इसे राम करेला कहा जाता है। इसे ये नाम इसके गुणों की वजह से मिला है। इसे परमल, गुजकरेला, किंकोड़ा और घुनगड़ी भी कहा जाता है। अगर आप ठेठ पहाड़ी हैं तो मीठा करेला की सब्जी आपने जरूर खाई होगी। ये पहाड़ी सब्जी गुणों की खान हैं, अगस्त से लेकर नवंबर तक ये सब्जी पहाड़ में बेलों पर खूब उगती है...
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मेरी जुबानी : मेरी आत्माभिव्यक्ति पर~Sudha Singh जी की
कुण्डलियाँ भी पठनीय है-
सुधा की कुंडलियाँ....

थैली पॉलीथीन की, जहर उगलती जाय ।
ज्ञात हमें यह बात तो,करते क्यों न उपाय ।।
करते क्यों न उपाय, ढोर पशु खाएँ इसको ।
बिगड़ा पर्यावरण, अद्य समझाएं किसको।।
कहत 'सुधा' कर जोड़, सुधारो जीवन शैली ।
चलो लगाएंँ बुद्धि , तज़ें पॉलीथिन थैली।।
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तिरछी नज़र पर गोपेश मोहन जैसवाल जी का एक संस्मरण देखिए-
बाबा भारती और खड़ग सिंह

.... कहानी का सुखद अंत हुआ. बाबा भारती खुल कर हँसते हुए और अपनी दुल्हनिया सहित खड़ग सिंह, खिसियानी हंसी हँसते हुए, एक-दूसरे से विदा हुए।
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अब रंग जनजाति के साहित्य महोत्सव की जानकारी के बारे में
अब छोड़ो भी पर Alaknanda Singh जी की यह प्रस्तुति-
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आज मेरे विचार मेरी अनुभूति पर
कालीपद "प्रसाद" जी की एक ग़ज़ल भी पठनीय है-
कालीपद "प्रसाद" जी की एक ग़ज़ल भी पठनीय है-
ग़ज़ल
क्यों साँप चिता अजगर से लोग बिचलते हैं
इस मुल्क के’ नेता पूरा देश निगलते हैं |
भाषण नहीं’ देते रिपु का दोष बताते सब
हर बात में नेता घातक जह्र उगलते हैं...
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झरोख़ा पर निवेदिता श्रीवास्तव जी की
एक लघुकथा -
एक लघुकथा -
लघुकथा : पुनर्विवाह
"सुनो ... "
"हूँ ... "
मनुहार करती आवाज ,"इधर देखो न ... "
हँसी दबाती सी आवाज ,"तुमने तो सुनने को कहा था ... "
"जब इतना समझती हो तो हाँ क्यों नहीं बोलती ... "
"मैं क्यों हाँ बोलूँ ,तुमको पूछना तो पड़ेगा ही ... "
नजरें मिल कर खिलखिला पड़ीं ,"चलो न ... अब पुनर्विवाह कर ही लेते हैं !"
"पुनर्विवाह ... "
"हाँ ! हमारे मन और आत्मा का विवाह तो कब का हो चुका है ... अब ये समाज के साक्ष्य और मन्त्रों वाली भी कर ही लेते हैं ... "
वहीं कहीं दूर आसमान में खिला इंद्रधनुष नजरों में सज गया ..
"हूँ ... "
मनुहार करती आवाज ,"इधर देखो न ... "
हँसी दबाती सी आवाज ,"तुमने तो सुनने को कहा था ... "
"जब इतना समझती हो तो हाँ क्यों नहीं बोलती ... "
"मैं क्यों हाँ बोलूँ ,तुमको पूछना तो पड़ेगा ही ... "
नजरें मिल कर खिलखिला पड़ीं ,"चलो न ... अब पुनर्विवाह कर ही लेते हैं !"
"पुनर्विवाह ... "
"हाँ ! हमारे मन और आत्मा का विवाह तो कब का हो चुका है ... अब ये समाज के साक्ष्य और मन्त्रों वाली भी कर ही लेते हैं ... "
वहीं कहीं दूर आसमान में खिला इंद्रधनुष नजरों में सज गया ..
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प्रेम फ़र्रुखाबादी" जी के कुछ मुक्तक
मेरे मुक्तक
भाई किन्तु परन्तु कैसा,
मुँह में ठूँसो पैसा।
तब चलता शासन भैंसा
फिर काम कराओ जैसा॥
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अन्त में देखिए उच्चारण ब्लॉग पर मेरा यह संस्मरण-
संस्मरण "हम पहाड़ी मनीहार हैं"
आज सुबह–सुबह मेरे आयुर्वेदिक चिकित्सालय में गठिया-वात का इलाज कराने के लिए जाहिद हुसैन पधारे!
जाहिद हुसैन जब अपनी औषधि ले चुके तो मुझसे बोले - “सर! आप देसी हैं या पहाड़ी हैं।”
मैंने उत्तर दिया - “50 साल से ज्यादा समय से तो यहीं पहाड़ की तराई में रह रहा हूँ। फिर यह देशी-पहाड़ी की बात कहाँ से आ गई?”
जाहिद हुसैन जब अपनी औषधि ले चुके तो मुझसे बोले - “सर! आप देसी हैं या पहाड़ी हैं।”
मैंने उत्तर दिया - “50 साल से ज्यादा समय से तो यहीं पहाड़ की तराई में रह रहा हूँ। फिर यह देशी-पहाड़ी की बात कहाँ से आ गई?”

अब चौंकने की बारी मेरी थी।
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अनु जी की रचना " जूता एक पैर का " कल अपराह्न मैं अपने इलाज के लिये वाराणसी गया था ,तो वहीं समीप प्रसिद्ध दुर्गाजी मंदिर के बाहर खड़े-खड़े ही पढ़ रहा था..।
जवाब देंहटाएंउपेक्षा और तिरस्कार के दर्द को अनुभूतियों से ही समझा जा सकता है। वैसे,तो उनकी यह रचना तथाकथित साहित्य कला का विशेष प्रदर्शन नहीं करती है, परंतु इसमें कितनी सरलता से वह बात कही गयी है, जो हर व्यक्ति के जीवन से जुड़ी है।
कड़वी वाणी बोलने वाले साहित्यकारों को यह समझना चाहिए, शब्दों का भंडार तो अनेक विद्वानों के पास तब भी था और अब भी है, परंतु फिर भी संत कबीर की वाणी अमर है, क्यों कि उन्होंने ढाई आखर प्रेम का यह पाठ पढ़ा था।
खैर , गंभीर अवस्था में भी मैं इस रचना को पढ़ते-पढ़ते अपने बचपन की स्मृतियों में खो गया..
सोच रहा हूँ कि यह मानव का जीवन भी कितना विचित्र है , वह जीवनपथ पर चलते- चलते बूंद-बूंद कर कितना दर्द इकट्ठा कर लेता है।
पर सच यह भी है कि यही जमा दर्द तो हमारा पारसमणि है।
चर्चामंच पर आकर ऐसा लगता है कि एकसाथ यहाँ ढेर सारी बौद्धिक सामग्री उपलब्ध है, सभी को प्रणाम।
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंपठनीय रचनाओं से सजा हुआ आज का चर्चा मंच...आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया चर्चाओ से सुसज्जित अंक। मेरी रचना को चर्चा मंच में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, आदरणीय शास्त्री जी।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय शास्त्री जी द्वारा. सभी रचनाएँ प्रभावशाली हैं. ब्लॉग संसार की हलचल चर्चा मंच पर महसूस की जा सकती है.सभी रचनाकारों को बधाई एवं शुभकामनाएँ.
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को चर्चा मंच पर स्थान देने के लिये सादर आभार आदरणीय शास्त्री जी.
शुभ संध्या सर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति आदरणीय सर. अलग-अलग विषयों की सुंदर रचनाओं का संकलन. सभी रचनाकारों को बधाई.
सादर
बेहतरीन प्रस्तुति। सभी रचनाकार को बधाई।
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