सादर अभिवादन !
शुक्रवार की चर्चा में आप सभी विज्ञजनों का चर्चा मंच पर हार्दिक स्वागत !
आज की चर्चा का शीर्षक "आम सा ये आदमी जो अड़ गया" आ.दिगंबर नासवा जी की ग़ज़ल से है ।
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अब बढ़ते हैं आज की चर्चा की चयनित सूत्र की ओर -
गीत "प्यार के बिन अधूरे प्रणयगीत हैं"
ताल बनती नहीं, राग कैसे सजे,
बेसुरे हो गये साज-संगीत हैं।
ढाई-आखर बिना है अधूरी ग़ज़ल,
प्यार के बिन अधूरे प्रणयगीत हैं।
नेह के स्रोत सूखे हुए हैं सभी,
खो गये हैं सभी आजकल आचरण।
कण्टकाकीर्ण पथ नापते हैं चरण।।
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बाल पके, एड़ियाँ भी घिस गईं,
कोर्ट से पाला कभी जो पड़ गया.
जो न सितम मौसमों के सह सका,
फूल कभी पत्तियों सा झड़ गया.
तन्त्र की हिलने लगेंगी कुर्सियाँ,
आम सा ये आदमी जो अड़ गया.
***
आंटी हमारे ही मुहल्ले में रहती है एक बेटा एक बेटी है अच्छा-खासा धूम-धाम से बेटे का ब्याह की थी और बहु एक महीने में ही घर छोड़कर चली गई और तलाक का नोटिस भेज दी। आंटी की बेटी तो पहले से ही तलाकशुदा थी वो भी आंटी के घर में ही बैठी थी। आंटी तो चली गई मगर मेरे जेहन में कई सवाल छोड़ गई....
कमी किस में थी ?
दोष किसका था ?
क्यूँ घर बस काम रहे है, उजड़ ज्यादा रहे है ?
क्यूँ आखिर क्यूँ ?
***
पहले जी" गये "दूसरे जी" के घर
"दूसरे जी" गये थे "तीसरे जी" के घर
धत् ! पता चला कि
"तीसरे जी" भी गये हुए हैं "चौथे जी" के घर
फिर "पहले जी" जब गये "चौथे जी" के घर पर
तो वो "महाशय जी" भी थे सिरे से नदारद.…...
***
आंख भर आई - डाॅ (सुश्री) शरद सिंह
किसी की याद आई
आंख भर आई।
सुलगती रात
बुझते दिन
छुपा बैठा हुआ बगुला
पांखों से गिने पलछिन
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उग आया टहनियों पर आफताब हो जैसे
दिखता है वो, एक ख्वाब हो जैसे
उग आया टहनियों पर आफताब हो जैसे
आये छत पर, तो हो जाते खुश इस तरह
उतर आया जमीं पर महताब हो जैसे
झटकना गेसुओं का, होना यूँ सुर्ख गालों का
मेरी इकरार ए मोहब्बत का जवाब हो जैसे
***
अब बस भी कर
ऐ ज़िंदगी !
और कितने इम्तहान
देने होंगे मुझे ?
मेरे सब्र का बाँध
अब टूट चला है !
***
कोई छू कर गया - डॉ. वर्षा सिंह
काश, खिड़की तो इक ज़रा खुलती
फिर से उम्मीद की हवा चलती
इस क़दर है उदास बाग़ीचा
फूल महका न अब कली खिलती
कोई छू कर गया ख़यालों में
चूनरी देर तक रही ढलती
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दूसरों के सुख से दुखी
और
दुख से सुखी महसूस करने वाले
कुछ लोग
कभी-कभी बेहयायी से
आने देते हैं
बाहर
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मेरी मोहब्बत से उसने किनारा कर लिया,
मेरे बिना कैसे उसने अपना गुजारा कर लिया,
कल देखा मैंने उसे अपने रक़ीब की गली में,
लगता है उसने इश्क़ फिर से दुबारा कर लिया।
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एक दिन मुझसे कहा मेरे बूढ़े से मन ने
चलो लौट चलें बचपन के आंगन में
वहाँ अपनी धूप होगी अपनी ही छाँव
होगा वही अपना पुराना गाँव
लेटकर झुलेंगे झिलगी खटिया की वरदन में
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आज का सफर यहीं तक…
फिर मिलेंगें 🙏🙏
"मीना भारद्वाज"
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पठनीय लिंकों के साथ सुन्दर चर्चा प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंआपका आभार आदरणीया मीना भारद्वाज जी।
हमेशा की तरह सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय मीना दी।
जवाब देंहटाएंबधाई एवं शुभकामनाएँ।
सादर
'जो मेरा मन कहे' को स्थान देने के लिये हार्दिक धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी चर्चा प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर सूत्रों से सजी प्रस्तुति के लिए हार्दिक आभार ।
जवाब देंहटाएंमीना भारद्वाज जी,
जवाब देंहटाएंआभारी हूं कि आपने मेरे नवगीत को चर्चा मंच में शामिल किया है।
सुखद अनुभूति 🌷
हार्दिक धन्यवाद 🌹🙏🌹
- डॉ शरद सिंह
बहुत रोचक एवं पठनीय लिंक्स उपलब्ध कराने के लिए आभार एवं साधुवाद 🌹🙏🌹
जवाब देंहटाएं- डॉ. शरद सिंह
बहुत ही सुन्दर सार्थक सूत्रों से सुसज्जित आज की चर्चा ! मेरी रचना को इसमें सम्मिलित करने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! सप्रेम वंदे !
जवाब देंहटाएंबहुत खूबसूरत चर्चा
जवाब देंहटाएंप्रिय मीना भारद्वाज जी,
जवाब देंहटाएंपठनीय सामग्री से युक्त बहुत अच्छी चर्चा... और इस चर्चा में मेरी पोस्ट को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार 🙏🏵️🙏
शुभकामनाओं सहित,
सादर,
डॉ. वर्षा सिंह
उम्दा चर्चा।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह लाजबाव प्रस्तुति मीना जी मेरी रचना को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद एवं सादर नमस्कार
जवाब देंहटाएंबहुत लाजवाब सूत्र ...
जवाब देंहटाएंआभार मेरी गज़ल को मान देने के लिए ...
रोचक लिंक्स से सुसज्जित चर्चा...मेरी पोस्ट को स्थान देने के लिए आभार.....
जवाब देंहटाएं