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सोमवार, जनवरी 25, 2021

'शाख़ पर पुष्प-पत्ते इतरा रहे हैं' (चर्चा अंक-3957)

 सादर अभिवादन। 

सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है। 

बसंत की छटा बिखरने लगी है 

शाख़ पर पुष्प-पत्ते इतरा रहे हैं,

कोहरे की श्वेत चादर ओढ़े-ओढ़े

बसुंधरा रह-रहकर मुस्करा रही है। 

#रवीन्द्र_सिंह_यादव 

आइए पढ़ते हैं विभिन्न ब्लॉग्स पर प्रकाशित कुछ रचनाएँ-

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गीत "घर भर का अभिमान बेटियाँ" 

किलकारी की गूँज सुनाती,
परिवारों को यही बसाती,
दोनों कुल का मान बेटियाँ।
आन-बान और शान बेटियाँ।।
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लता-बेल सी बढ़ती जातीं,
सबके दुख-सुख पढ़ती जातीं,
मात पिता की जान बेटियाँ।
आन-बान और शान बेटियाँ।।

--

पंछियों ने---

बहेलिये 
किसी गुप्त जगह पर बैठकर 
बनाते हैं योजना 
बिछाकर लालच का जाल 
फैंक देते हैं
गिनती के दाने
--

लजाए पग समर्पण के 
डगर पर हौले-हौले धरुँ।
लहराऊँ स्वच्छंद गगन में 
अहाते में नभ के तारे भरुँ।
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मन से त्रस्त
वह अनमनी है
प्रसन्न नहीं
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कवियों, शायरों, गीतकारों ने अपने सृजन के रंगों से गणतंत्र के अनेक विविधरंगी काव्य सृजित किए। कुछ चुने हुए काव्य यहां प्रस्तुत हैं -कवियों, शायरों, गीतकारों ने अपने सृजन के रंगों से गणतंत्र के अनेक विविधरंगी काव्य सृजित किए। कुछ चुने हुए काव्य यहां प्रस्तुत हैं
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यूँ तो, विचरते हो, मुक्त कल्पनाओं में, 
रह लेते हो, इन बंद पलकों में,
पर, नीर बन, बह जाते हो,
कब ठहरते हो तुम!
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उड़ता सा आवेग था, भोर के धुंधलके में -
न जाने किधर जाएगा। किसी गुप्त
संधि की तरह रहते हैं, देह से
लिपटे हुए अनगिनत
सुरभित क्षणों के
आलेख, कुछ
आयु से
दीर्घ
--

सब कुछ 
छिन जाने के बाद भी 
कुछ बचा रहता है ।

सब समाप्त 
होने के बाद भी 
शेष रहता है जीवन, 
कहीं न कहीं ।
--
र्द रात
गर्म लिहाफ़ में
कुनमुनाती,
करवट बदलती
छटपटाती नींद
पलकों से बगावत कर
बेख़ौफ़ निकल पड़ती है
कल्पनाओं के गलियारों में,
दबे पाँव 
--

"सुनो! तुम जबाब क्यों नहीं दे रही हो? मैं तुमसे कई बार पूछ चुका हूँ, क्या ऐसा हो सकता है कि किसी भारतीय को गोबर का पता नहीं हो ?"

"क्या जबाब दूँ मेरे घर में ही ऐसा हो सकेगा.. मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी..!"

"आप दोनों आपस में ही बात कर रहे हैं और मुझे मेरे ही कमरे में कैद कर तथा मुझे ही कुछ बता नहीं रहे हैं। क्या मुझे कोई कुछ बतायेंगे?"

--

दर्द का पड़ाव | डाॅ (सुश्री) शरद सिंह |

 नवगीत संग्रह | आंसू बूंद चुए

तथाकथित अपनों के

चूर हुए वादे

स्याह कर्म वालों के

वस्त्र रहे सादे


ओर छोर

जन्मते तनाव

कभी पेंच कभी दांव।

--

दोहे "खरपतवार अनन्त"

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

होगा कुहरे का नहीं, जब तक नभ से अन्त।
तब तक आयेगा नहीं, खिलता हुआ बसन्त।।
--
निर्धन दुख को झेलते, सुख से हैं सामन्त।
कूड़ा-करकट बीनते, श्याम सलोने कन्त।।
--
आज बस यहीं तक 
फिर मिलेंगे अगले सोमवार। 
 

8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय सर।
    मुझे स्थान देने हेतु बहुत बहुत शुक्रिया।
    बधाई एवं शुभकामनाएँ।
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  2. अद्यतन लिंकों के साथ सार्थक चर्चा प्रस्तुति।
    मेरे ब्लॉग के दो-दो लिंक लगाने के लिए आभार।
    आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी।

    जवाब देंहटाएं
  3. आदरणीय रवीन्द्र सिंह यादव जी,
    पठनीय एवं रुचिकर लिंक्स का बेहतरीन संयोजन... साधुवाद 🙏

    मेरी पोस्ट को शामिल करने हेतु हार्दिक आभार 🙏
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत अच्छी भूमिका के साथ शानदार सूत्र संयोजन
    सम्मलित रचनाकारों को बधाई
    मुझे सम्मलित करने का आभार
    सादर

    जवाब देंहटाएं
  5. नमस्कार रवींद्र जी,
    बसंत आगमन पर सुंदर कव‍िता...शाख़ पर पुष्प-पत्ते इतरा रहे हैं,

    कोहरे की श्वेत चादर ओढ़े-ओढ़े

    बसुंधरा रह-रहकर मुस्करा रही है। ....के साथ सभी ब्लॉग बेहद शानदार हैं

    जवाब देंहटाएं
  6. गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या को सुरभित करता हुआ चर्चा मंच , सुन्दर प्रस्तुति व संकलन, मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार आदरणीय रवींद्र जी - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं

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