सादर अभिवादन
आज की प्रस्तुति में आप सभी का हार्दिक स्वागत है
(शीर्षक आदरणीया श्वेता जी की रचना से )
होली आई मगर मन को नही भाई
ना वो उमंग था ना हुड़दंग
फिर भी मन में एक संतोष था कि
कम से कम हम सपरिवार संग है
और सकुशल है....
बिता साल तो कितने घर उजाड़ गया
कितने दिलों को लहुलुहान कर गया
ऐसे में तो ये रुखी-सूखी बेरंग सी
होली के लिए भी परमात्मा का शुक्रिया.....
पता है. .
आज तन में सुस्ती और मन में आलस्य छाया होगा
ऐसे में ये कुछ खास रचनाएं.....शायद,
आप की सुस्ती दूर कर दें....
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दोहे "कुर्ता होली खेलता, अंगिया के सँग आज" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
र्चा में हैं आज तो, होली के ही रंग।
इस पावन त्यौहार के, अजब-ग़ज़ब हैं ढंग।१।
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जली होलिका आग में, बचा भक्त प्रहलाद।
चमत्कार को देखकर, उमड़ा है आल्हाद।२।
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कली केसरी पिचकारी
कली केसरी पिचकारी
मन अबीर लपटायो,
सखि रे! गंध मतायो भीनी
राग फाग का छायो।
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प्राचीन संस्कृत साहित्य में होली
होली की मान्यता लोकपर्व के रूप में अधिक है किन्तु प्राचीन संस्कृत-शास्त्रों में इस पर्व का विपुल उल्लेख मिलता है । भविष्य पुराण में तो होली को शास्त्रीय उत्सव कहा गया है । ऋतुराज वसंत में मनाए जाने वाले रंगों के इस पर्व का प्राचीनतम सांकेतिक उल्लेख यजुर्वेद के तैत्तिरीय आरण्यक (1.3.5) में मिलता है-
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सदियां बीती रंग ना उतरी, भींगी थी ऐसी राधा
* चटख रंग प्रीत का पिया,*
* रंग वही मुझ पर डार,*
* छूटे ना जो बरस बरस,*
* रहने दो यह बाजारु गुलाल।*
* जिस रंग में रंगी थी राधा,*
यदि प्यार से पुकारो दौड़े चले आएँगे
नफरत से कोई रिश्ता नहीं है
ना ही लगाव हमारा |
जिसने भी आधात किया
पलटवार से होता स्वागत
बिना बात यदि रार बढ़ाई
सुकून कहीं खो जाता |
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अरविंद अकेला की लघुकथा । यह होली है भाई_
इंगलैंड में बैरिस्टरी की पढ़ाई करने वाला
28 वर्षीय प्रेम वर्मा बसंत का मौसम आते
हीं मन ही मन खुश था कि इस बार
वह होली में अपने देश भारत जायेगा ।
भारत में वह बिहार के गया
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तोबे एकला चलो रे
महात्मा गाँधी अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के बहुत बड़े प्रशंसक थे. 19 जुलाई, 1905 को तत्कालीन गवर्नर-जनरल लार्ड कर्ज़न ने सांप्रदायिक आधार पर बंगाल विभाजन के निर्णय की घोषणा की थी. बंगाल के निवासियों में धर्म के आधार पर फूट डालने के इस षड्यंत्र के विरोध
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कुछ ऐसी भी बातें होती हैं....
अब क्या करना है
ये जिंदगी और मिल
भी गई तो क्या?
अब वक्त ही नही है
इन सभी बातों के लिए
इन सभी जज़्बातों के लिए
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मैं नहीं खेलूँगी होरी
कल जो बीत गया
जीवन की डाली से झर गया फूल है
अब उसे दोबारा नहीं मिलना है
आज तो एक नया फूल
नए कर्म के रूप में
खिलना है
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आज पहली बार मोबाईल से प्रस्तुति बना रही हूँ......
गलतियाँ हो तो क्षमा चाहती हूँ......
आज प्रस्तुति भले ही बेरंग बनी हो....रचनाएँ सारी रंग बिरंगी मिलेगी....
आज का सफर यही तक
आप सभी स्वस्थ रहें, सुरक्षित रहें
कामिनी सिन्हा
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