फ़ॉलोअर



यह ब्लॉग खोजें

रविवार, मार्च 07, 2021

"किरचें मन की" (चर्चा अंक- 3998)

 मित्रों!
रविवार की चर्चा में आपका स्वागत है।
--

--
मुझको पुरुष बना कर प्रभु ने
,
बहुत बड़ा उपकार किया है।
नर का चोला देकर भगवन,
अनुपम सा उपहार दिया है।
--
नारी रूप अगर देते तो,
अग्नि परीक्षा देनी होती।
बार-बार जातक जनने की,
कठिन वेदना सहनी होती।।
--
चूल्हे-चौके में प्रतिदिन ही,
खाना मुझे बनाना होता।
सबको देकर भोजन-पानी,
मुझे अन्त में खाना होता।।
--
--
किरचें मन की 
छन्न से गिरा था
ग्लास काँच का ,
दूर दूर तक 
फैल गयीं थीं 
किरचें फर्श पर 
बड़े बड़े टुकड़े 
सहेज लिए थे
जल्दी से मैंने , 
संगीता स्वरुप ( गीत ), बिखरे मोती  
--
चलते-चलते | ग़ज़ल | डॉ. वर्षा सिंह | संग्रह - दिल बंजारा 

रंज-ओ-ग़म से नहीं बचा कोई

दर्द-ए-दिल की नहीं दवा कोई


ज़िन्दगी की उदास राहों में

है नहीं अपना आश्ना कोई

--
--
कुछ महिलाएं -  क्षणिकाएँ ( महिला दिवस ) 
कुछ महिलाएं
बहनें और माताएं
देतीं जीवन भर सेवाएं
सुघड़ गृहणी कहलाएं

कुछ पढ़ी लिखी नारी
करतीं दिन भर नौकरी
साथ में घर की चाकरी
कंधे से कंधा मिला कर रहीं बराबरी
--
गाँधी का नमक 
यह प्रसंग 1930 का है. नमक बनाने और उसे बेचने का एकाधिकार सरकार के पास सुरक्षित था. इस शोषक कानून के कारण नमक की असली कीमत से उसका बाज़ार भाव 40 गुना था.
महंगे नमक को न तो गरीब आदमी अपने प्रयोग के लिए पर्याप्त खरीद पाता था और न ही वो अपने मवेशियों को उसे दे पाता.
कम नमक मिलने के कारण मनुष्यों और मवेशियों के शरीर में आयोडीन की कमी हो जाती थी जिसके परिणामस्वरूप उन्हें घेंघा और कई अन्य घातक रोग हो जाते थे.
मार्च, 1930 में गांधीजी ने भारत को पूर्ण स्वराज्य दिए जाने की मांग को लेकर अंग्रेज़ सरकार के इस सबसे शोषक और अमानवीय कानून ‘नमक कानून’ को तोड़ने का निश्चय किया था.
गोपेश मोहन जैसवाल, तिरछी नज़र 
--
अंदर का कैनवास 
सागर सैकत में प्रथम किरण
ढूंढते हैं मुक्तामणि,
टूटे हुए सीपों
के बिखरे
हुए
खोल 
शांतनु सान्याल, अग्निशिखा 
--
--
--
उत्सवों का आकाश 
आजकल लाल पीले गुलाबी गुलाल में अपने फायदे के लिए बहुत से दुकानदार मिलावट कर देते हैं जिससे बड़ा नकसान होता है . पिछली होली पर लल्लू की आँख में गुलाल पड़ जाने से लाल हो गई .। दर्द के मारे उसका बुरा हाल --भागे उसे लेकर डाक्टर के पास । कल्लू पर तो किसी ने काला रंग डाल दिया ,उसके तो सारे बदन पर दाने -दाने निकाल आए । बहुत पहले हमारे दादा -परदादा चन्दन -कुंकुम से खेलते थे । पलाश के फूलों से अन्य फूलों के रंग से खेलते थे . । पलाश से तो तुम अब भी मिल सकता... 
सुधाकल्प, बालकुंज  
--
तब मानव कहना 
पुरुषोत्तम कुमार सिन्हा, कविता "जीवन कलश" 
--
उपन्यास समीक्षा : कारीगर : वेद प्रकाश शर्मा

इतना जरुर बता सकता हूँ कि ये कहानी आपका दिमाग 'हिलाकर' रख देगी।

और अगर आप सोच रहें है कि पूरी कहानी तो मैंने ही बता दी अब पढने के लिए क्या शेष रह गया ?

नही दोस्तों ! ये तो सिर्फ ट्रेलर था, असली कहानी जानने के लिए आपको पूरी किताब खुद पढनी पड़ेगी .

--
--
तोरा मन दर्पण कहलाये 
मन दर्पण है, परमात्मा बिम्ब है, जीव प्रतिबिंब है, यदि दर्पण साफ नहीं हो तो उसमें प्रतिबिंब स्पष्ट नहीं पड़ेगा। संसार भी तब तक निर्दोष नहीं दिखेगा जब तक मन निर्मल नहीं होगा।
--
और फिर लोग वाह-वाह करते हैं 
तुम्हारी जिंदगी में
सिर्फ अमृत वर्षा हो!
ऐसी ही हम कामना करेंगे।
तुझको हमेशा अपना कहेंगे 
--
मंगनी का अखबार बुजुर्ग मकान मालिक के अखबार मांगने की आदत से परेशान हर्षिता अपने पति से बहस कर रही थी, " हमें यहाँ आए हुए लगभग एक साल होने को आया है , और तभी से मलिक साहब हम से अखबार माँग कर ले जाते हैं और वापस देने का नाम नहीं...! " " तो क्या हुआ..! शाम को ही तो ले जाते हैं.. हमारे लिए तब तक बेकार ही होते हैं न. 
--
फ्रीडम हाउस' की नजर में भारत अब ‘आंशिक-स्वतंत्र देश’ 
अमेरिकी थिंकटैंक फ्रीडम हाउस ने भारत को स्वतंत्र से आंशिक-स्वतंत्र देशों की श्रेणी में डाल दिया है। यह रिपोर्ट मानती है कि दुनियाभर में स्वतंत्रता का ह्रास हो रहा है, पर उसमें भारत का खासतौर से उल्लेख किया गया है। फ्रीडम हाउस एक निजी संस्था है और वह अपने आकलन के लिए एक पद्धति का सहारा लेती है। उसकी पद्धति को समझने की जरूरत है। भारत का श्रेणी परिवर्तन हमारे यहाँ चर्चा का विषय नहीं बना है, क्योंकि हमने लोकतंत्र और लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं को महत्व अपेक्षाकृत कम दिया है। हम उसके राजनीतिक पक्ष को आसानी से देख पाते हैं। मेरी समझ से फ्रीडम हाउस के स्वतंत्रता-सूचकांक के भी राजनीतिक निहितार्थ हैं। बेशक मानव-विकास, मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों को लेकर देश के भीतर सरकार के आलोचकों की बड़ी संख्या है, पर स्वतंत्रता हमारी बुनियाद में है। 
Pramod Joshi, जिज्ञासा 
--
--
कलयुगी रावण 
आईना ना हमें दिखाओ, अपनी अशलील नजरों का जा कर सुद्धीकरण कराओ! 

अनगिनत चहरे छुपा के रखते हैं ये कलयुगी रावण

अशलील अंदाज में राम का नाम लेकर

 लड़कियों को छेड़ते हैं, 

मर्यादा की सारी हदें पार करते हैं, 

और खुद को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचंद्र का 

सच्चा भक्त बोलते हैं! 

--
आज के लिए बस इतना ही...।
--

14 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय शास्त्री जी,
    सुप्रभात 🙏
    रविवार की यह चर्चा बहुत अच्छी लिंक्स ले कर आई है। आपके श्रम को नमन 🙏
    मेरी ग़ज़ल को भी शामिल करने हेतु हार्दिक आभार 🙏
    सादर,
    डॉ. वर्षा सिंह

    जवाब देंहटाएं
  2. आपका बहुत बहुत धन्यवाद और आभार 🙏🙏

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुंदर चर्चा। मेरी रचना शामिल करने के लिए विशेष आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. बेहतरीन संकलन
    मेरी गजल को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार

    जवाब देंहटाएं
  5. सभी रचनाएँ अपने आप में अद्वितीय हैं मुग्ध करता हुआ चर्चामंच, मुझे शामिल करने हेतु असंख्य आभार आदरणीय - - नमन सह।

    जवाब देंहटाएं
  6. सुप्रभातम! 🙏 बहुत सुंदर रचनायें! मेरे लेख को मंच पर शामिल करने के लिए शुक्रिया। आप सभी का दिन शुभ हो 🙏

    जवाब देंहटाएं
  7. सुन्दर लिंक्स से सुसज्जित चर्चा.... मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित साक्षात्कार को चर्चा में शामिल करने के लिए हार्दिक आभार....

    जवाब देंहटाएं
  8. आदरणीय शास्त्री जी, नमस्कार !
    सुंदर संकलन एवम श्रमसाध्य कार्य हेतु आपका बहुत बहुत आभार व्यक्त करती हूं..मेरी रचना को शामिल करने के लिए आपका हृदय से अभिनंदन एवम वंदन करती हूं..सादर शुभकामनाएं ..जिज्ञासा सिंह..

    जवाब देंहटाएं
  9. पठनीय और सराहनीय अंक.. सभी रचनाकारों को बधाई ।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत आभार सर...। सभी अच्छी रचनाएं...। सभी को बधाई

    जवाब देंहटाएं
  11. बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।
    मेरे सृजन को स्थान देने हेतु बहुत बहुत शुक्रिया सर।
    सादर

    जवाब देंहटाएं

"चर्चामंच - हिंदी चिट्ठों का सूत्रधार" पर

केवल संयत और शालीन टिप्पणी ही प्रकाशित की जा सकेंगी! यदि आपकी टिप्पणी प्रकाशित न हो तो निराश न हों। कुछ टिप्पणियाँ स्पैम भी हो जाती है, जिन्हें यथा सम्भव प्रकाशित कर दिया जाता है।