शीर्षक पंक्ति: आदरणीय अरुण चन्द्र रॉय जी की रचना से।
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सादर अभिवादन।
बुधवारीय प्रस्तुति में आप सभी का स्वागत है।
आज भूमिका में वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय अरुण चन्द्र रॉय जी की रचना का काव्यांश-
कुछ दिनों के लिए
टीवी पर बंद कर दीजिए
रंगीन प्रसारण
ब्रेकिंग न्यूज के साथ चलने वाले
सनसनीखेज संगीत प्रभाव को
कर दीजिए म्यूट
पैनलों की बहसों को कर दीजिए
स्थगित
प्राणवायु के बिना छटपटाती जनता का
सजीव प्रसारण पर भी
लगा दीजिए रोक।
आइए पढ़ते हैं आज की पसंदीदा रचनाएँ-
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यदि छापना ही है
प्रसारित करना ही है
तो कीजिए
संविधान की प्रस्तावना
बार बार
बार बार
बार बार
कुछ दिनों के लिए।
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जेबों में चराग़ों को अपने ले के निकलना.
मुमकिन है के थम जाए आज रात का ढलना.
है गाँव उदासी का आस-पास संभालना.हो पास तेरे कह-कहों का शोर तो चलना--आपकी उँगलियों पे क्या
नाचते हम न थे?
आपके रूखसार को क्या
चाहते हम न थे?
जो हम जुदा
ये क़रीब है?
आपकी उँगलियों पे क्या
नाचते हम न थे?
आपके रूखसार को क्या
चाहते हम न थे?
जो हम जुदा
ये क़रीब है?
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अंतरिक्ष तक जा पहुँचा है
अनगिन तारा मण्डल खोजे,
सागर की गहराई नापी
किन्तु हुआ बेबस नर सोचे !
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बुझ गई
सूरज की एक किरण
टूट गया एक तारा
बिखर गया एक घर
तो क्या?
मृत्यु है साश्वत
इसलिए बन जाओ दार्शनिक
और
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कांस पर जब यूँ बरसती
चांदनी भी क्या कहो ,
है मधुर यह क्षण विलक्षण
कांतिमय अंतस गहो !!
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बाहर सुनहरी धुप है
मौसम भी ठीक है
दिल कहीं मायूस
गुमशुदा हो चला है
कोई बात नहीं पर
दिल नासाज़ सा है
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है कैसी रीत
नश्वर जगत की
चाहो जिसको
दूर हो कर रहे
अधिक पास आता
आने लगता
कोई युक्ति नहीं है
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एक बादशाह ने एक दिन सपने में अपनी मौत को आते हुए देखा। उसने सपने में अपने पास खड़ी एक छाया देख, उससे पूछा-'तुम कौन हो? यहां क्यों आयी हो?'
उस छाया या साये ने उत्तर दिया-मैं तुम्हारी मौत हूं और मैं कल सूर्यास्त होते ही तुम्हें लेने तुम्हारे पास आऊंगी।' बादशाह ने उससे पूछना भी चाहा कि क्या बचने का कोई उपाय है, लेकिन वह इतना अधिक डर गया था कि वह उससे कुछ भी न पूछ सका। तभी अचानक सपना टूट गया और वह छाया भी गायब हो गयी। आधी रात को ही उसने अपने सभी अक्लमंद लोगों को बुलाकर पूछा-'इस स्वप्न का क्या मतलब है, यह मुझे खोजकर बताओ।' और जैसा कि तुम जानते ही हो, तुम बुद्धिमान लोगों से अधिक बेवकूफ कोई और खोज ही नहीं सकते। वे सभी लोग भागे-भागे अपने-अपने घर गये और वहां से अपने-अपने शास्त्र साथ लेकर लौटे। वे बड़े-बड़े मोटे पोथे थे। उन लोगों ने उन्हें उलटना-पलटना शुरू कर दिया और फिर उन लोगों में चर्चा-परिचर्चा के दौरान बहस छिड़ गयी। वे अपने-अपने तर्क देते हुए आपस में ही लड़ने-झगड़ने लगे।
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आज का सफ़र यहीं तक
फिर मिलेंगे
आगामी अंक में
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
सुप्रभात
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को इस अंक में शामिल करने के लिए आभार सहित धन्यवाद |
हार्दिक धन्यवाद अनीता सैनी जी 🙏
जवाब देंहटाएंसार्थक भूमिका और पठनीय सूत्रों से सजी चर्चा, आभार !
जवाब देंहटाएंउम्दा चर्चा।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन चर्चा प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति ! आशा है शास्त्री जी पहले से बेहतर होंगे
जवाब देंहटाएंसुंदर चर्चा,मंथन, मनन करने योग्य
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक और गहन विषय हैं...सभी को खूब बधाई।
जवाब देंहटाएंसार्थक शीर्षक और अच्छे चर्चा सूत्र ...
जवाब देंहटाएंआभार मेरी गज़ल को जगह देने के लिए आपका ...