सादर अभिवादन !
रविवार की प्रस्तुति में आप सभी प्रबुद्धजनों का पटल पर हार्दिक स्वागत एवं अभिनन्दन !
आज की चर्चा की शीर्षक पंक्ति "कोरोना से खुद बचो, और बचाओ देश।"आदरणीय डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' जी की पुराने दोहों से ली गई है ।
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आइए अब बढ़ते हैं आज के अद्यतन सूत्र की ओर-
दोहे "धीरज रखना आप" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कोरोना से खुद बचो, और बचाओ देश।
लिखकर सबको भेजिए, दुनिया में सन्देश।।
जाकर कभी समूह में, करना मत घुसपैठ।
लिखना-पढ़ना कीजिए, अपने घर में बैठ।।
अनजाने इस रोग से, घबड़ा रहा समाज।
कोरोना से त्रस्त है, पूरी दुनिया आज।।
***
अबकी बार गुज़रो,
उस राह से,
ज़रा ठहर जाना,
पीपल की छाँव में,
तुम पलट जाना,
उस मिट्टी के ढलान पर,
बैठी है उम्मीद,
साथ उस का निभा देना,
***
स्वर्ग से नीचे
धरा पर उतरी
पहाड़ी नदी
करने आई
उद्धार जगत का
कल्याणी नदी
***
ऐसे वक्त में
अपने स्वार्थ को
साधते हुए
कर रहे
मोल - भाव
श्वासों का ,
और सोच रहे कि
बचा रहे हैं प्राण ,
***
क्या कभी आपने समुंदर किनारे बैठ कर उसकी आती जाती लहरों को ध्यान से देखा हैं ? सागर दिन में तो बिलकुल शांत और गंभीर होता है। ऐसा लगता है जैसे ,अपना विशाल आँचल फैलाये और उसके अंदर अनेको राज छुपाये ,एक खामोश लड़की हो जिसने सारे जहान के दर्द और सारी दुनियां की गन्दगियों को अपने दामन मे समेट
रखा है।
***
ज़िंदा होते,
तो धक्का-मुक्की करते,
आगे निकल जाते,
पर अब तो कोई चारा नहीं है.
***
आवश्यक है, इक अंतरंग प्रवाह,
लघुधारा के, नदी बनने की अनथक चाह,
बाधाओं को, लांघने की उत्कंठा,
जीवंतता, गतिशीलता, और,
थोड़ी सी, उत्श्रृंखलता!
गर, धारा से धारा ना जुड़ पाए,
नदी कहाँ बन पाए!
***
पल पल बीता दिन
सप्ताह गुजरे महीने बीतें
गुजरे वर्षों ने विदा ली
फिर आई है सालगिरह |
बचपन में बहुत उत्साह था
वर्षगाँठ मनाने का
***
सूफिज्म से आगे रूहानी इबादत की बात करते हैं शायर सुरेंद्र चतुर्वेदी
खुदाया इस से पहले कि रवानी ख़त्म हो जाए,
रहम ये कर मेरे दरिया का पानी ख़त्म हो जाए।
हिफाज़त से रखे रिश्ते भी टूटे इस तरह जैसे,
किसी गफलत में पुरखों की निशानी ख़त्म हो जाए।
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तुम चाहे मुझे भोला और नादान समझना,
गुजारिश है कि मुझ पर ही गुमान करना,
वो लम्हे जो साथ गुजारे थे सदा याद आएँगे,
कभी जो नज़र आ जाऊँ, मुझे बस तुम पहचान लेना।
***
कोरोना के खिलाफ जो जंग भारत ने लगभग जीत ही ली थी, सकुचाते हुए जिसकी विजय का जश्न भी मनाया था. उसे फिर हार न जाएं ऐसा डर आज हम सभी के मनों में समाया है। ऐसा लग रहा है जैसे हम सोते ही रहे और दुश्मन घर तक आ गया, और देखते ही देखते हर शहर, हर गली मोहल्ले में छा गया.
***
बेचैन रहती थी पलकें इस कदर l
अश्कों का कोई मोल नहीं था इस शहर ll
पर कटे परिंदों सा था ये हमसफ़र l
झुकी नज़रें बयाँ कर रही तन्हा यह सफ़र ll
मेहरम नहीं इनायत नहीं सुबह हो या रात भर l
फासला गहरा इतना दो पहर सागर के दो तरफ़ ll
***
घर पर रहें..सुरक्षित रहें..,
आपका दिन मंगलमय हो…,
फिर मिलेंगे 🙏
"मीना भारद्वाज"
बहुत ही सुंदर सराहनीय प्रस्तुति आदरणीय मीना दी।
जवाब देंहटाएंमेरी पुरानी रचना को स्थान देने हेतु दिल से आभार।
समय मिलते ही सभी रचनाएँ पढूँगी।
श्रमसाध्य प्रस्तुति हेतु एक बार फिर आपका दिल से आभार।
सादर
सुंदर प्रस्तुति.मेरी रचना को स्थान देने हेतु आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर चर्चा। सभी लिंक्स शानदार। मेरी रचना शामिल करने के लिए विशेष आभार।
जवाब देंहटाएंआपने बेहद श्रमसाध्य प्रस्तुति बनाई है ,पुरानी रचनाओं को भी ढूढ़कर लाई है ,मेरी इतनी पुरानी रचना को साझा करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया मीना जी। आपका कार्य सराहनीय है ,सभी रचनाकारों को भी हार्दिक शुभकामनायें,आप सभी स्वस्थ रहें,सुरक्षित रहें।
जवाब देंहटाएंवाह ! सामयिक समस्याओं को भी चर्चा में सम्मिलित करते हुए बहुत ही सुन्दर लिंक्स का चयन ! मेरी रचना को स्थान देने के लिए आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! सप्रेम वन्दे !
जवाब देंहटाएंसुंदर रचनाओं से सुसज्जित चर्चा । मेरी रचना को भी शामिल किया । आभार ।
जवाब देंहटाएंअभी सब पर जाना नहीं हुआ ।कोशिश होगी कि सब पर जा सकूँ ।
रोचक लिंक्स से सजी चर्चा।
जवाब देंहटाएंचर्चा मंच की आज की प्रस्तुति में उपस्थित हो आप गुणीजनों ने मेरा उत्साहवर्धन किया इसके लिए मैं आप सबका हृदयतल से आभार व्यक्त करती हूँ 🙏🙏
जवाब देंहटाएंआकर्षक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मीना जी, मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार
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