सादर अभिवादन।
सोमवारीय प्रस्तुति में आपका स्वागत है।
380 दिन चला किसान आंदोलन पिछले दिसंबर माह में स्थगित हो गया था जब भारत सरकार ने तीनों कृषि सुधार क़ानून वापस ले लिए थे। सरकार ने आश्वाशन दिया था कि MSP पर एक कमेटी का गठन होगा और किसानों पर लादे गए मुक़दमे वापस होंगे साथ ही इस आंदोलन की दौरान अपनी जान गँवानेवाले किसानों को राहत पैकेज दिया जाएगा
गीत "बैठे विषधर काले-काले" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कल तक थे जितने नालायक,
उनमें से कुछ आज विधायक,
सौदों में खा रहे दलाली,
ये स्वदेश के भाग्यविनायक,
लूट रहे भोली जनता को, बनकर जन-गण के रखवाले।
महलों में रहने वाले, करते घोटालों पर घोटाले।।
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सृजक
तब
जबकि
कई लोग
अपने अपने
रंग से
रंग देना चाहते है
माँ भारती को
कोई हरा
कोई सफेद
कोई केसरिया
कोई लाल
और
कोई कोई
स्याह....भी..
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उगती भोर
होलें पग से किरणें उतरी
पर्वत की चोटी
नील तवे पर सिकने आई
सोने की रोटी
बाल मरीची नाहन करता
भोर नहाती है।
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शहीद दिवस
पीर पराई
सदा हृदय धारी
आकुल मना।
अर्पित किया
तन मन जीवन
देश के हित।
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सर्जक का श्राप!...
इसलिए यह सर्जक सीधे स्वर्ग जाकर उन अति विशिष्ट साहित्यिक आत्माओं को चुन-चुनकर, उनके मान-सम्मान के अनुरूप, श्राप देते हुए कहना चाहता है कि इस कलि-काल में उन सबों को पुनर्जन्म लेना होगा। कारण हममें से किसी ने उन पूर्वकालीन सृजन को देखा तो नहीं है इसलिए सबकी आँखों के सामने फिर से कोई महानतम ग्रन्थ को रचना होगा।
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"गीता ज्ञान"-सत्य और असत्य
हमने अपने बुजुर्गो को हमेशा ये कहते सुना होगा कि- गीता जीवन जीने की कला सिखाती है। तो फिर क्यों, उन्होंने इस जीवन जीने की कला को ना ही खुद अपनाया ना हमें ही सिखाया ? क्यों जीवन के आखिरी क्षणों में ही इस ज्ञान को सुनने का कर्मकांड बनाया गया। क्यों इतने महान ग्रंथ को सिर्फ अदालत में शपथ लेने के लिए ही उपयोग में लाया गया?
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हार
यूँ ही नहीं मिलती मंजिलें
जगा दिल में एक जुनून
यहाँ लडना भी खुद है
संभलना भी खु्द है
गिर कर उठना भी खुद है
और हार कर जीतना भी।
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न किया कोई लड़ाई है!
इस खामोशी ने बैचेनी बढ़ाई है,
बड़ी दुविधा की स्थिति अाई है,
यह तूफान के पहले की शांति है,
या सच में ठंडी हवा की पुरवाई है।
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खुरपी के ब्याह बनाम क़ैद में वर्णमाला ... भाग-२
"आप लोग बस कहीं पर भी झंडे फ़हरा कर, चाहे दोपहिए
या चार पहिए गाड़ियों पर, ठेले पर
या फिर जुड़े में, कलाई में,
परिधानों में तिरंगा रंग की ऐसी की तैसी कर देते हो। झंडा फहराना और जलेबियाँ खाना भर ही आप इंसानों का गणतंत्र दिवस रह गया है शायद .. है ना
!?"
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पुकार लेना बारिश
मैं जो अपने बारे में बताना चाहती थी, उसे सुनने में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी। लोग वही सुनना चाहते हैं जो वो सुनना चाहते हैं। इसलिए बचपन से हमें वही बोलने की प्रैक्टिस करवाई जाती है, जो लोग सुनना चाहते हैं। बहुत सारी जिंदगी जी चुकने के बाद हमें समझ में आता वो जो हम रहे हैं अब तक वो तो कोई और था, जो मुझमें जीकर चला गया।
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और चलते-चलते नई पुस्तक की झलक-
गीत संग्रह-मेड़ों पर वसंत अमेज़न पर भी उपलब्ध
मेरा सद्यः प्रकाशित तृतीय गीत संग्रह मेड़ों पर वसन्त अमेज़ॉन पर भी बिक्री हेतु उपलब्ध है।सादर।आप सभी का दिन शुभ हो
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आज बस यहीं तक
फिर मिलेंगे आगामी सोमवार।
रवीन्द्र सिंह यादव